नरपशु नहीं, देवमानवों की पीढ़ी जन्मे

May 1994

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मानवी विकास जहाँ अन्यान्य घटकों पर निर्भर है, वहाँ परिवेश को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। यह सही है कि माता का चिंतन आहार तथा संस्कार बालक को प्रभावित करते हैं तथा जन्म लेने के बाद तक भी उन पर उनकी छाप रहती है किंतु बहिरंग जगत में आते ही कच्ची मनोभूमि पर वातावरण का दृश्यजगत का, आसपास के परिवेश-संगति का जो प्रभाव पड़ता है, उसका अपने आप में बड़ा महत्व है। यदि हम सही वातावरण शिशुओं, विकसित हो रहे बच्चों, को दे पाएँ, सुसंस्कारों का आरोपण कर पाएँ , तो जो संतति जन्म लेगी, निश्चित ही संस्कारवान-श्रेष्ठ चिंतन वाली होगी- देवमानवों के रूप में विकसित होने वाली। यदि वातावरण श्रेष्ठ आत्माओं को भी हेय स्तर का मिला तो संभव है उनकी प्रगति में अवरोध आ जाय, वे नरपशु की नहीं किन्हीं और रूपों में जीवन जीती हुई इस मानुष तन का दुरुपयोग करती देखी जायँ।

महापुरुषों का कथन है कि कई श्रेष्ठ स्तर आत्माएँ इस धरित्री पर आती हैं, किंतु उचित वातावरण गर्भावस्था में या उसके बाद न मिल पाने के कारण वे शीघ्र ही धरती छोड़कर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो पुनः श्रेष्ठ कोख व वातावरण की तलाश में सूक्ष्म जगत में चली जाती है। पारलौकिक जीवन सूक्ष्म जगत के रहस्य बड़े विलक्षण है अतः ऐसा होता हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

जन्म लेने के बाद घरों में जो स्वर्गोपम वातावरण मिलना चाहिए, वह न मिल पाने के कारण भी कई आत्माएँ घुटती -असाध्य मनोरोगों का शिकार होती व अल्पायु को प्राप्त होती दिखाई देती है। कई बार मानवी जगत से संबंध टूट जाने तथा पशुओं की संगति पाने पर मानव शिशुओं को वैसा ही विकसित होता देखा जाता रहा है। जंगल का जीवन जैसा परिवेश प्रदान करता है, शिशु वैसा ही विकसित होता चला जाता है। रामू भेड़िये की कथा प्रख्यात है, जिसमें उसे भेड़िये नवजात स्थिति में उठाकर ले गये थे व अंततः शिकारियों ने उसे भेड़िये की तरह चौपायों की भाँति चलते पाया। बहुत प्रयास करने पर भी उसे बचाया न जा सका। ऐसे उदाहरण अगणित हैं। एक घटना सन् 1924 की है, जब जर्मनी स्थित हैमलिन के जंगलों से वन रक्षकों ने पीटर नामक एक दस वर्षीय बच्चे को जंगली खूँख्वार जानवरों के मध्य खेलते हुए पाया। उस समय बच्चे की गर्दन में कमीज का टुकड़ा लटक रहा था। इस आधार पर विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया था कि कुछ विषम परिस्थितियों में यह लड़का घर से पलायन कर गया होगा। आचरण एवं बोली में वह जानवरों जैसा ही व्यवहार करता था। पीटर का सचित्र विवरण जब वहाँ के राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों में निकाला गया तो क्रूगर नामक एक किसान ने उसे अपना पुत्र बताया जो रोज-रोज के पारिवारिक कलह के कारण घर छोड़कर निकल गया था। इस तथ्य की पुष्टि तब हुई जब वह एक रात मौका पाकर पुनः घर से जंगल में भाग गया। खोजकर्ताओं ने दुबारा पकड़कर उसे इंग्लैंड के शासक किंग जार्ज प्रथम के सुपुर्द कर दिया। जहाँ विशेषज्ञों की देख−रेख में उसका शिक्षण प्रारंभ किया गया। बाद में वह एक सभ्य नागरिक बन गया और पचास वर्ष तक जीवित रहा।

इसी तरह का विवरण फ्राँस स्थित एवराँन नगर के विक्टर नामक बालक का मिलता है जिसे सन् 1696 में जंगल में भेड़ियों के समूह से पकड़ा गया था। एक दिन अवसर मिलने पर वह भी फिर से उसी जंगल में पलायन कर गया जहाँ से उसे पकड़ा गया था। सन् 1768 में भयंकर सर्दी की एक रात में वह वन स्थित एक कृषि फार्म पर आया जहां उसे फिर पकड़ लिया गया और मूर्द्धन्य शरीर विज्ञानी एवं मनोविद डॉ0 इटार्ड को सौंप दिया गया। उन्होंने उसे धैर्य पूर्वक मानवीय व्यवहार एवं सूत्र-संकेतों का प्रशिक्षण दिया। गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते के पश्चात् उनने निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया कि पीटर की उम्र 20 वर्ष की है। किन्हीं परिस्थितियों के कारण मानव संस्कृति और सभ्यता से कट जाने के कारण उसमें मानवीय आचरणों का अभाव हो गया था, पर प्रकृति सहचरी के कठोर आघातों से वह इतना अधिक सामंजस्य स्थापित कर चुका था कि चिलचिलाती धूप एवं कड़कड़ाती शीत में भी मजे से रहता रहा। डॉ0 इटार्ड के संरक्षण में उसने अपने जीवन के 40 वसंत देखो तक तक वह एक सभ्य नागरिक बन चुका था।

सन् 1973 में आस्ट्रिया के समाचार पत्रों में पाँच वर्षीय एक बालक का सचिव विवरण छपा था जिसे वैज्ञानिकों के एकोजी दल ने जर्मनी के जंगलों में शिकारी कुत्तों के झुंड से पकड़ा था। वह कुत्तों की तरह ही चलता और भौंकता था। देखा गया कि संकट आने पर वह अपनी बाहें मादा कुतिया की गर्दन में डाल देता था और उसी को अपनी माँ समझता था। इससे पूर्व सन् 1960 में थाईलैंड के प्रसिद्ध चिड़ियाघर चैंगमाई के मालिक हैरोल्ड एम यंग ने लाहू पहाड़ियों के घने जंगल में रहने वाले एक भीमकाय भेड़िये बालक को पकड़ा था। रात्रि के समय वह पहाड़ी से नीचे उतरता और मनुष्यों तथा पशुओं को अपना शिकार बनाता। भेड़ियों की तरह ही वह अपने दाँतों से शिकार की गर्दन पर वार करता और उनका सफाया कर देता था।

सर्वाधिक आश्चर्यपूर्ण विवरण आयरलैंड के उस बच्चे का है जिसे जंगली भेड़ों के समूह में से पकड़ा गया था। उसकी विशेषता यह थी कि अन्य मेमनों की तरह ही वह झाड़ - झंखाड़ों से पत्तियाँ नोचकर खाता, उन्हीं की तरह हाथ पैरों से चलता और मेमनों की बोली में अपना स्वर मिलाता था। सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ0 एम्स्टेर्डम में परीक्षणोपराँत निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया है कि उस बालक ने प्रकृति के साथ इतना सघन तादात्म्य स्थापित कर लिया था कि सर्दी-गर्मी का उसके शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। अंततः वातावरण सही मिलने पर वह मानव बालक के रूप में विकसित हो सका।

उपरोक्त विवरणों से तथ्य एक ही निकलता है कि मानवी प्रगति के लिए परिवेश, सुसंस्कारी वातावरण अत्यंत अनिवार्य है। क्या आज की तथा कथित सभ्य मानव जाति निरंतर प्रदूषित हो रही संस्कृति, टी0वी0 मीडिया द्वारा गड़बड़ा रहे घर के वातावरण एवं स्वयं के व्यवहार पर भी थोड़ा ध्यान देगी ताकि भावी पीढ़ी सुसंस्कारी बन सके।


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