विपत्ति भी एक वरदान

May 1994

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“भगवन्। इस जीव का भाग्य विधान? “कभी-कभी जीवों के कर्म संस्कार ऐसे जटिल होते हैं कि उनके भाग्य का निर्णय करना चित्रगुप्त के लिए भी कठिन हो जाता है। अब वही जीव मृत्युलोक से आया है। इतने उलझन भरे इसके कर्म हैं - नरक में, स्वर्ग, में अथवा किसी योनि विशेष में कहां इसे भेजा जाय, समझ में नहीं आता। देह त्याग के समय की इसकी अंतिम वासना भी (जो कि आगामी प्रारब्ध की मूल निर्णायिका होती है) कोई सहायता नहीं देती। वह वासना भी केवल देह की स्मृति - देह रखने की इच्छा है। ऐसी अवस्था आने पर चित्रगुप्त के पास एक ही उपाय है, वे अपने स्वामी के सम्मुख उपस्थित हों।”

धर्मराज कभी नहीं समझ सके कि जीव का जो कर्म विधान उनको इतना जटिल लगता है, धर्मराज कैसे उसका निर्णय बिना एक क्षण सोचे कर देते हैं। यम एक मुख्य भागवाताचार्य हैं और भक्ति का -भक्ति के अधिष्ठाता का रहस्य जाने बिना कर्म का धर्म-अधर्म का ठीक-ठीक रहस्य ज्ञान नहीं होता। चित्रगुप्त ठहरे कर्म के तत्वज्ञ और कर्म-अकर्म की कसौटी पर ही सब कुछ परखना चाहते हैं। किंतु जब उनकी कसौटी उन्हें उलझन में डाल देती हैं, यमराज कर्म के परम निर्णायक हैं। उनके निर्णय की कहीं अपील नहीं अतः वे बिना हिचके निर्णय कर देते हैं। यह चित्रगुप्त जी के चित का समाधान है, किंतु धर्म के निर्णायक को आवेश में तो निर्णय नहीं करना चाहिए।

“यह अभागा जीव!” यमपुरी के विधायक यमराज के मुख्य सचिव चित्रगुप्त-उन्हें किसी जीव को नरक का आदेश सुनाते किसी ने हिचकते नहीं देखा और आज वे क्षुब्ध हो रहे थे-कैसे सहन करेगा यह इतने दारुण दुःख इतना दुःखदायी विधान, एक असहाय प्राणी के लिए।

“संयमी के मुख्य सचिव प्राणी के सुख-दुःख के दाता कब से हो गये?” चित्रगुप्त चौंक उठे। उन्होंने अपनी चिंता में देखा ही नहीं था कि देवर्षि नारद आ खड़े उनसे कह रहे हैं। उन्होंने प्रणाम किया देवर्षि को।

धर्मराज को सृष्टा ने केवल जाति आयु और भोग निर्णय का अधिकार दिया है। देवर्षि ने अपना प्रश्न दुहराया-”स्थूल शरीर तक ही कर्म अपना प्रभाव प्रकट कर सकते हैं, किंतु देखता हूँ ; धर्मराज के महामंत्री अब जीव के सुख-दुख की सीमा के स्पर्श की स्पर्धा भी करने लगे हैं।”

असंभव तो नहीं है। शरीर की व्यथा प्राणी को देख ही करे आवश्यक नहीं है। देवर्षि ने चित्रगुप्त के सम्मुख पड़ा कर्म विधान सहज उठा लिया।

“स्वयं धर्मराज ने यह विधान किया है।” चित्रगुप्त डरे ! परम दयालु देवर्षि का क्या ठिकाना, कहीं इतना कठोर विधान देखकर वे रुष्ट हो जायँ-उनके शाप को स्वयं स्रष्टा भी व्यर्थ करने में समर्थ नहीं होंगे।

“कुब्ज, कुरूप, बधिर, मूक, शैशव से अनाथ, अनाश्रय, उपेक्षित, उत्पीड़ित, मान भोग वर्जित, नित्य देह पीड़ा ग्रस्त मरुस्थल निर्वासित ........।” देवर्षि के साथ डरते-डरते चित्रगुप्त भी उस जीव के भोग के कोष्ठक में भरे गए विभाग को पुनः पढ़ते जा रहे थे मन ही मन। कहो तो उसमें कुछ सुख-सुविधा मिलने का कोई संयोग सूचित किया गया होता।

“अतिशय दयालु हैं धर्मराज। चित्रगुप्त की आशा के सर्वथा विपरीत देवर्षि के मुख से उल्लास स्वच्छ कर देने की व्यवस्था कर दी उन्होंने। विपत्ति तो वरदान है श्री नारायण का।”

अब भला इसमें कोई क्या कहें और इन्हें ही इतना अवसर कहाँ कि किसी की बात सुनने को रुके रहें। चित्रगुप्त के विधान का पोथ पटका उन्होंने और उनकी वीणा की झंकार दूर होती चली गयी।

एक दिन राजस्थान के एक राज्य में वहाँ के महाराजा की सवारी नगर दर्शन हेतु निकली। यह भी कोई बात है कि उनके सामने रापथ पर कोई कुबड़ा, गूँगा, काला, कुरूप, चाँडाल बालक आ जाय। राजसेवकों ने उसे पीट-पीट कर अधमरा कर दिया और घसीट कर मरे कुत्ते के समान दूर फेंक दिया।

“कौन था रह ?” महाराज ने पूछा।

“एक चाँडलिनी का पुत्र। मंत्री ने उत्तर दिया। “ इसके अभिभावक इसे रास्ते से दूर क्यों नहीं रखते?” महाराज का क्रोध शाँत नहीं हुआ था।

“इसका कोई अभिभावक नहीं।” कुछ देर लगी पता लगाने में और तक मंत्री ने प्रार्थना की माता-पिता तो इसके बचपन में ही मर गए। अब तो इसी प्रकार भटकता रहता है।

“नगर का अभिशाप है यह।” महाराजा को कौन कहे कि गर्व के शिखर से नीचे आकर आप देखें तो वह भी आपके समान ही सृष्टिकर्ता की कृति है ; किन्तु धन, अधिकार का मद मनुष्य की विवेक दृष्टि नष्ट कर देता है। महाराज ने आदेश दिया “इसे दूर मरुस्थल में निर्वासित कर दिया जाय। राजधानी में ऐसी कुरूपता नहीं रखनी चाहिए।”

छोसा अबोध बालक। वैसे ही वह दर-दर की ठोकर खाता फिरता था। कूड़े के ढेर पर से छिलके उठाकर उदर की ज्वाला शाँत करता था। लोग दुत्कारते थे। बच्चे पत्थर मारते थे। वृक्ष के नीचे भी रात्रि व्यतीत करने का स्थान कठिनता से पता था और अब उसे नगर से भी निर्वासित कर दिया गया। हाथ पैर बाँधकर ऊँट पर लादकर एक राज सेवक उसे मरुभूमि में ले गया और वहाँ उसके हाथ पैर उसने खोल दिये। अंग में लगे घाव पीड़ा करते थे। मरुस्थल की रेत तपती थी और ऊपर से सूर्य अग्नि की वर्षा करते थे। आँधियोँ मरुभूमि में न आयेंगी तो आयेंगी कहाँ ; लेकनिक मृत्यु उस बालक के समीप नहीं आ सकती थी। उसके भाग्य ने उसे दीर्घायु जो दीथ्भ्। कितनी बड़ी विडंबना थी उसकी वह दीर्घायु।

जब प्यास से वह मूर्छित होने के समीप होता , कहीं न कहीं रेत में दबा मतीरा उसे मिल जाता। खेजड़ी की छाया उसे मध्याह्न में झुलस जाने से बचा देती थी। मतीरा ही उसकी क्षुधा भी शाँत करता था। वैसे उसे मरुस्थल के मध्य में एक छोटा जलाशय भी मिल गया था और वहाँ कुछ खजूर वृक्ष भी मिल गए; किंतु खजूर बारहमासी फल तो नहीं हैं।

इस भाग्यहीन बालक का स्वभाव विपत्तियों को भोगते- भोगते विचित्र हो गया था। बचपन में तो वह रोता भी था। पर अब तो जब कष्ट बढ़ता था तो वह उलटे हँसता था प्रसन्न होता था। अनेक बार उसे मरुस्थल के डाकू मिले और उन्होंने उसे जी भर के पीटा। वह उस पीड़ा में भी खूब हँसा। मानो उसे पीड़ा में सुख लेने का स्वभाव मिल गया हो।

वह क्या सोचता होगा ? वह जन्म से मूक और बधिर था। शब्द ज्ञान उसे था नहीं। अतः वह कैसे सोचता होगा , यह समझ में नहीं आता था। लेकिन वह कुछ काम करता था। दिन निकलता देखता तो सूर्य के सम्मुख पृथ्वी पर बार -बार सिर पटकता। आँधी आती तो उसे भी इसी प्रकार प्रणाम करता और कभी आकाश में कोई दस्यु दल आ जाय तो उन लोगों को तथा उनके ऊंटों को भी वह इसी तरह प्रणाम करता था।

दूसरा काम प्रायः प्रतिदिन वह यह करता कि खेजड़ी की एक डाल तोड़ लेता और विभिन्न दिशाओं में दूर-दूर तक एक निश्चित दूरी पर उसके पत्ते टहनियाँ तब तक डालता जाता जब तक मध्याह्न की धूप उसे छाया में बैठने को विवश न कर देती। अनेक बार उसके डाले इन पत्तों के सहारे मरुस्थल में भटके यात्री एवं दस्यु उसके जलाशय तक पहुँचे थे। अनेक बार उन दस्युओं ने उसे पीटा था। बहुत कम बार किसी यात्री ने उसे रोटी का टुकड़ा खाने को दिया। लेकिन उसने खेजड़ी के पत्ते डालने का काम केवल तब बन्द रखा जब वह ज्वर से तपता पड़ा रहता था।

मरुस्थल की आग में एकाकी , दिगंबर , असहाय , भूख , प्यास से संतप्त रहते वर्ष पर वर्ष बीतते गए उसके। बहुत बीमार पड़ा और बार - बार पड़ा , किन्तु मरना नहीं था। इसलिए जीवित रहा। बालक से युवा हुआ और इसी प्रकार वृद्ध हो गया। उसकी देह में हड्डियों और चमड़े के अतिरिक्त और था भी क्या। अनेक बार यात्री उसे प्रेत समझ कर डरे थे।

दुर्भाग्य ही तो मिला था उसे ! एक अकाल का वर्ष आया वह नन्हा जलाशय सूख गया जो वर्षों से उसका आश्रय रहा था। खेजड़ी में पत्तों के स्थान पर काँटे रह गए थे। उसे वह स्थान छोड़कर मरुस्थल में भटकना पड़ा।

अंधड़ से रेत नेत्रों में गिर गयी। प्यास के मारे कंठ सूख गया। गले में काँटे पड़ गये और अंततः वह मूर्छित हो गया।

सहसा आकाश में मेघ प्रकट हुए जो केवल राजस्थान की मरुभूमि में कभी-कभी कुछ शताब्दियों के अंतर से प्रकट होते हैं। बड़ी-बड़ी बूंदों की बौछार ने उसके संतप्त शरीर को शीतल किया। उसने नेत्र खोलने की चेष्टा की ; किन्तु उसमें भर गयी थी। देह में भयंकर ताप था। वह जीवन में पहली बार वेदना से चीखा-मूक की अस्पष्ट चीत्कार उसके कंठ से निकली।

उतंग मेघ उसके लिए तो आये नहीं थे। मरु की राशि में शातियों से समाधिस्थ महर्षि। उतंक उठे थे समाधि से। उनकी तृषा शाँत करने के लिए मेघ आते हैं। महर्षि ने अपने समीप से आयी हैं। महर्षि ने अपने समीप से आयी वह चीत्कार-ध्वनि सुनी और आगे बढ़ आयें।

कृष्ण वर्ण, कुब्ज, श्वेत केश, कंकाल मात्र एक मानवाकार प्राणी रेत में पड़ा था। महर्षि की दृष्टि पड़ी। वे सर्वज्ञ थे। उन्हें कहाँ सूचित करना था कि उनके सम्मुख पड़ा प्राणी बोलने और सुनने में असमर्थ हैं। लेकिन महर्षि का संकल्प तो वाणी की अपेक्षा नहीं करता। उनकी अमृत दृष्टि पड़ी उस सम्मुख के प्राणी पर और फिर वे अपनी साधना भूमि की ओर मुड़ गए और एक दिन पुनः देवर्षि नारद संयमनी पधारें।

“आपके उस अतिशय भाग्यहीन जीव की अब क्या स्थिति हैं?” धर्मराज का सत्कार स्वीकार करके जाते समय देवर्षि ने सहसा चित्रगुप्त से पूछ लिया-”जीवन में भाग्य का भोग उनको कितना दुखी कर सका, यह विवरण तो आपके समीप होगा नहीं।

“आपका अनुग्रह जिसे अभय दे कर्म के फल उसे कैसे उत्पीड़ित कर सकते हैं ?” चित्रगुप्त ने नम्रता पूर्वक बतलाया-”भोग विवर्जित करके सयंमनी के स्वामी ने उन्हें अनेक दोषों से सुरक्षित कर दिया था। आपत्तियों ने उन्हें निष्काम बनाया। विपत्ति का वरदान पाए बिना प्राणी का परित्राण कदाचित ही हो पाता हैं।”

महर्षि उतंग के अनुग्रह ने उनके निष्कलुष वासना रहित चित्त को आलोकित कर दिया। चित्रगुप्त जी ने बताया-”अब हमारे विवरण में केवल इतना ही है कि अपनी मरुराशि में सुरक्षित कर लिया हैं।” जिसके संबंध में श्रुति कहती है - न तस्य प्राणाश्चोत्क्राँमति तन्नैव प्रत्नीयन्ते

उस मुक्तात्मा के संबंध में इससे अधिक विवरण चित्रगुप्त के समीप हो भी कैसे सकता था?


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