निर्भय जीवन ही श्रेष्ठ जीवन

May 1994

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निर्भीकता मानव जीवन की सर्वोपरि संपदा है। इसके अभाव में मनुष्य पग-पग पर डरता और त्रास सहता रहता है। भयग्रस्त रहना एक ऐसी निकृष्ट मानसिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति का आत्मिक बल गिर जाता है। वह उचित और उत्कृष्ट को कहने और करने का साहस खो बैठता है। शारीरिक कष्ट या भौतिक दुष्परिणाम की आशंका से उसकी इंद्रियाँ और काया शिथिल पड़ जाती हैं और वह अनुचित, असत्य एवं अन्याय के समक्ष घुटने टेक देता है।

आज प्रायः प्रत्येक व्यक्ति, समाज, सरकार और सम्पूर्ण विश्व भयग्रस्त है। व्यक्ति को चोरी, ठगी, बीमारी, अपमान, असफलता, असहयोग, विश्वासघात आदि का भय है, तो समाज को दंगों, भुखमरी, महंगाई, अभाव आदि का भय है। सरकारें आँदोलन, अराजकता और उपदस्थता से डरती हैं और समूचा विश्व गृह युद्ध, शीत युद्ध, परमाणु युद्ध और और सर्वनाश से भयभीत है। इस भय का मुख्य कारण उस शारीरिक,मानसिक, भौतिक, नैतिक, सामाजिक या राजनीतिक स्थिति की कल्पना है जो हमारी आशाओं और आकाँक्षाओं के विपरीत है। न चाहते हुए भी जिसके घटित हो जाने की आशंका है। मूर्धन्य मनीषियों ने इस आशंका के निम्नलिखित कारण बताये है।

कर्तव्य में आस्था का न होना तथा आदर्श कर्तृत्व का अभाव।

संसार के अटल नियमों की या तो जानकारी न होना या जानकारी होते हुए भी उनमें दृढ़ विश्वास और आस्था का अभाव।

भौतिक पदार्थों में सुख की अनुभूति और उनके वियोग में दुःख का भाव।

ईश्वर की न्याय, व्यवस्था तथा दयालुता में अविश्वास।

यदि मनुष्य अपने कर्तव्य को सुख दुःख, हानि लाभ, यश अपयश आदि को समान समझकर केवल कर्तव्य के लिए पालन नहीं करता, तो उसे हानि, दुःख, अपयश का भय लगा ही रहेगा। झूठ बोलने ,चोरी करने, हिंसा करने , रिश्वत लेने जैसे अपराध करने या कर्तव्य पालन में उदासीनता बरतने पर सभी को दंडित होने या अपमानित किये जाने का भय सताता रहता है। इसी तरह अस्वच्छ रहने , अखाद्य वस्तुओं का सेवन करने , अनियमितता और असंयम बरतने , शारीरिक श्रम न करने , मन में निकृष्ट विचार आने देने से शारीरिक मानसिक मशीनरी के विषाक्त हो जाने या जंग लगकर खराब हो जाने का डर बना रहेगा। भय के यह सभी कारण ऐसे है जिन्हें हम स्वयं उत्पन्न करते है और मकड़ी के जाल की तरह उसमें कैद होकर रह जाते है।

शास्त्रकारों ने संसार के पाँच अटल नियम बताये है।

भौतिक जगत में निरंतर परिवर्तन के फलस्वरूप जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म , सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख , लाभ के बाद हानि के पश्चात् लाभ, विजय के बाद पराजय और पराजय के पश्चात् विजय , यश के बाद अपयश और अपयश के बाद यश अमीरी के बाद गरीबी और गरीबी के बाद अमीरी इस प्रकार वृत्ताकार घूमते है जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद होता हैं। जिसे जीवन सुख, लाभ, विजय, यश, धन आदि में आसक्ति रहती है उसे मृत्यु दुःख, हानि, पराजय, अपयश और निर्धनता का भी भय लगा रहेगा।

केवल आत्मा या विश्व की संचालक शक्ति ही अजर, अमर और अपरिवर्तनशील है। आत्मा में स्थित हो जाने पर भय नहीं रहता।

उत्पत्ति , पालन और प्रलय, जन्म, जीवन और मृत्यु संसार का नियम है इस नियम को न जानने के कारण मृत्यु का भय लगा रहता है और यह सताता रहता है।

संसार के सारे काम सहयोग, प्रेम, सद्भावना, विश्वास, ईमानदारी से चलते है। इनके विपरीत आचरण से हमें भय लगता है।

जैसा कर्म किया जाता है उसी के अनुसार फल मिलता है। जैसा बीज बोते हैं वैसा पौधा उगता है। बुरा कार्य करने वाले को बुरा फल मिलने-दुष्परिणाम भुगतने का भय सताता रहता है। वेदों में कहा गया है कि यद्यपि भौतिक पदार्थों में वास्तविक सुख नहीं है, फिर भी यदि मनुष्य सुख का साधन समझकर उनका संग्रह करता है तो उनके विग्रह पर उसे दुःख का भय बना रहना स्वाभाविक है। सभी जानते हैं कि रोगी की स्वादिष्ट- भोजन भी कड़ुवा लगता है। चर्म रोगी को बहुमूल्य वस्त्र भी चुभते है। बिना परिवार के व्यक्ति को शानदार मकान भी काट खाने को दौड़ता है और असाध्य रोगी के लिए अतुल संपदा व्यर्थ है। परंतु इनके वियोग का भय प्रायः सभी को सताता रहता है। इस सृष्टि का एक मात्र संचालक ईश्वर हैं। संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड उसके नियोजन और नियमों के अनुसार चलता है। जो भी व्यक्ति उसके सहारे अच्छा काम करता है, वह प्रगति पथ पर आगे ही बढ़ता है। संयोगवश यदि मार्ग में संकट पड़ भी जाते है तो वह दया करके उसे संकट से निकालता है और यदि वह नहीं भी निकालता तो भी उसमें हमारा और विश्व का कल्याण निहित रहता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता में विश्वास नहीं है तो कोई भी कठिन काम प्रारंभ करने और उसे पूरा करने में असफलता का भय बना रहेगा। भय के उपर्युक्त का कारणों को दूर कर दिया जाय तो प्रत्येक मनुष्य में निर्भीकता का दिव्य गुण आ जाएगा। यह निर्भीकता तीन प्रकार से आती है-(1) विज्ञ निर्भीकता (2) विवेक निर्भीकता (3)ईश्वर निष्ठ निर्भीकता विज्ञ निर्भीकता- जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ और खतरे आते है, जिनसे मनुष्य को भय लगता है। यदि वह उन कठिनाइयों और खतरों के समाधान का मार्ग जान लेता तो वह उनकी ओर से निर्भीक हो जाता है। एक विद्यार्थी परीक्षा देने जाता है। असफलता से उसे भय लगता है, परंतु यदि उसने पाठ्यक्रम संबंधी प्रश्नों के उत्तर तैयार कर लिए है तो उसे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः मनुष्य में अनंत शक्तियों का भाँडागार भरा पड़ा है। जब वह संकल्पबद्ध हो सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है, तो पर्वत जैसी ऊँची बाधायें भी अपने बीच में से मार्ग देने के लिए बाध्य हो जाती है। अतः निर्भीकता लाने के लिए हमें मार्ग में आ सकते वाली बाधाओं और कठिनाइयों से जूझने के लिए तैयार रहता चाहिए। भरत के स्वतंत्रता संग्राम में करोड़ों नर नारी निर्भीक होकर जेलों में गये और अनेक प्रकार की यातनायें हँसते-हँसते सही। प्रचंड मनोबल बने रहने पर ही सफलता हाथ लगती है। विवेक निर्भीकता -जो विवेक से काम लेते हैं, सत्- असत् को जानते हैं और मन तथा बुद्धि को सन्तुलित रखते हैं, उनमें इतना आत्मविश्वास विकसित हो जाता हैं कि फिर उन्हें किसी प्रतिकूल परिस्थिति से भय नहीं लगता। भय की उत्पत्ति विवेक -हीनता से होती है कथा सरित्सागर में कहा गया है “निर्विमर्शा हि भरवः।” अर्थात् भय से भीत होने वाले अविवेकवान हुआ करते हैं।

ईश्वर निर्भीकता - जिस व्यक्ति को ईश्वर की सर्वव्यापकता, सर्वशक्ति संपन्नता, दया और न्याय पर पूर्ण विश्वास है। जो प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का स्वरूप देखता है, जो सृष्टि को ईश्वर की अभिव्यक्ति मानता है भय उसके पास तक नहीं फटकता। भक्त प्रहलाद को भगवान पर, मीरा को अपने गिरधर गोपाल पर पूर्ण विश्वास था। उन्होंने अडिग होकर हँसते-हँसते अनेकों यातनायें सहीं, पर भय उन्हें छू तक न सका।

मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए निर्भीकता परम आवश्यक है। इसलिए श्री भगवद्गीता में दैवी संपदा लक्षणों में निर्भीकता को पहला स्थान दिया गया है। यदि संसार के इतिहास को देखा जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचाना पड़ेगा कि विश्व के सभी महापुरुष निर्भीक, निडर और साहसी थे। वास्तव में निर्भीकता उनकी महानता उनकी महानता का मापदंड और उनकी सफलता का रहस्य रहा है। महात्मा गाँधी विश्व की बड़ी से बड़ी शक्ति से नहीं डरते थे। उन्होंने डटकर उस सरकार का विरोध किया जिससे साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था और पराजित भी किया।

निर्भयता व्यक्ति और समाज के लिए सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं। इसके बिना कोई व्यक्ति या राष्ट्र महान नहीं बन सकता। सचमुच वह राष्ट्र महान है जहाँ निर्भीक लोग बसते हैं। भौतिक संपदा उसी समय सार्थक होती है जब वह निर्भीक लोगों के पास रहती है। निर्भयता से मनुष्य को इतना बल मिलता है कि वह बड़े से बड़ा त्याग कर सकता है और कठिन से कठिन परिस्थितियों का भी सामना करने में समक्ष हो सकता है।


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