उठ पड़ो हाथ लेकर मशाल। आवाज दे रहा महाकाल॥
निद्रा छोड़ो, तंद्रा तोड़ो। बढ़ते मद नद की गति मोड़ों।
उच्छृंखलताओं के प्रवाह। समता से, सन्मति से जोड़ो।
फोड़ो दुर्मति के घट कराल। आवाज दे रहा महाकाल ॥
तुम यज्ञवी! तुम कर्मवीर। मत हो हताश मत हो अधीर।
तुम महाबली! तुम सिंह-सुवन॥ रख दो कलुषों के वक्ष चीर।
क्यों जीते हो बनकर शृंगाल। आवाज दे रहा महाकाल॥
संस्कार-हीन, संसार दीन। अपने में ही जो रहा लीन।
अब स्वयं खोजना चाह रहा। सुख और शाँति के पथ नवीन।
प्रज्वलित करो चेतना ज्वाल। आवाज दे रहा महाकाल।
प्राणों में हो संकल्प शक्ति। मानवता के प्रति अचल भक्ति।
तुम चढ़ो ध्येय के शिखरों पर। इंद्रिय सुख से लेकर विरक्ति।
भेदों कुँठाओं के कपाल। आवाज दे रहा महाकाल।
भटकाव विश्व का और न हो। दुख का कोई भी ठौर न हो।
दुश्चिंतन अथवा दुराचार। सुविधाओं का सिरमौर न हो।
बेधो छल-बल के विकट व्याल। आवाज दे रहा महाकाल।।
-देवेन्द्र कुमार ‘देव’