भगवान की इस धरोहर का दुरुपयोग न हो

May 1994

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जीवन क्या है ? समय के धागों से बुन कर बनाया गया एक कपड़ा। घड़ी-पलों से बुन कर बनाया गया एक मकान। समय ही ईश्वर प्रदत्त वह वैभव है जिसकी हुँडी इस संसार के बाजार में किसी भी दुकान पर बुनाई जा सकती है। इसके बदले कुछ भी खरीदा जा सकता है। धन-संपत्ति के लिए लोग आकुल व्याकुल होकर असाधारण उत्कंठा सँजोये होते हैं, पर वह भी कुछ नहीं, समय के बदले खरीदी हुई वस्तु ही है। श्रम ही पैसे के रूप में बदल जाता है। शारीरिक और मानसिक श्रम के बदले ही हम इच्छित वस्तुएँ खरीदते हैं। उन्हीं में एक धन वैभव भी है।

समय असीम भंडार किसी को भी नहीं मिला है। हर किसी के हिस्से में सीमित सांसें ही आई हैं। वे एक-एक करके बूँदों की तरह टपकती और अंतरिक्ष में विलीन होती रहती हैं। वह दिन दूर नहीं, जब यह भंडार चुक जाता है और जो गुम गया वह फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता। भंडार चुक जाने पर वह सब कुछ न जाने कहाँ विलीन हो जाता है जिसे हम अपना स्वरूप मानते हैं। मरने के उपराँत शरीर का कोई अस्तित्व बचता नहीं है। प्राण निकलते ही उसके अवशेष जल्दी से जल्दी अपने को-कलेवर को समाप्त करने में जुट जाते हैं। संबंधी अंत्येष्टि न भी करें तो गिद्ध, कुत्ते, शृंगाल आदि उसे ठिकाने लगा देते हैं। अन्यथा वह लोथड़ा अपने भीतर से ही सड़न से उत्पन्न हुए कृमि कीटकों द्वारा सफाचट कर दिया जाता है।

शरीर को ही हर कोई ‘ हम ‘ कहता है, पर क्या अपनी सत्ता इतनी स्वल्प है कि साँसों का चलना और रक्त का बहना बंद होते ही सदा-सर्वदा के लिए अविज्ञात के गर्त में समा जाय ? बात ऐसी है नहीं। कपड़े बदलने की तरह शरीर बदले जाते रहते हैं आत्मसत्ता परमात्मा का अविनाशी अंश होने के कारण अनंत काल तक चलती रहती है।

शरीरगत जीवन इसीलिए मिला है कि उपकरण के माध्यम से आत्मा को भटकाव से उबार कर सदा सर्वदा के लिए ऐसे आनंद भरे स्तर तक पहुँचा दिया जाय, जहाँ तृप्ति, तुष्टि , प्रगति और शाँति का अनंत और असीम साम्राज्य बना रहता है। पर उसे भी समय की कीमत पर ही खरीदा जाता है। विलास भी उसी स्रह्य क्द्म/द्मद्मद्भ द्बद्भ द्दरुह्फ्ह् होता है और अभ्युदय का चरम लक्ष्य भी उसी के बदले प्राप्त किया जाता है। यह अपनी इच्छा के ऊपर है कि जीवन के इस सीमित अवधि तक के लिए मिले हुए समय को किस प्रयोजन के लिए खर्च किया जाय। यह वह प्रश्न चिन्ह है, जिस पर किसी की समझदारी, नासमझी मापी, आँकी, जानी जाती है।

संसारी वस्तुएँ ऐसी हैं जो गुम जाने पर फिर भी किसी प्रकार प्राप्त की जा सकती है। , पर कायकलेवर के साथ जुड़ा हुआ जीवन ऐसा है जो मनुष्यकृत नहीं भगवान प्रदत्त है। यह धरोहर के रूप में उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मिला है। उस पूर्ति के लिए जिसमें आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के दोनों ही प्रयोजन समान रूप से जुड़े हुए हैं। इतने बहुमूल्य हीरक हार का एक-एक दाना बहुमूल्य है। समय का एक-एक कण ऐसा है जिसका मूल्याँकन सहज बुद्धि से नहीं हो सकता है। इसका पता तो तब चलता है जब वह हाथ से छिन जाता है और प्रमाद अपनाये जाने के कारण सुखद विभीषिकाओं का घटाटोप अपनी समूची भयंकरता समेट कर सामने खड़ा होता है। उस परिस्थिति में पहुँचने पर पता चलता है कि कितनी बड़ी भूल हुई और कितनी बहुमूल्य संपदा उन प्रयोजनों पर लुट गई जिन्हें कृमि-कीटक तक अपनी गई गुजरी स्थिति में रहते हुए भी प्राप्त कर लेते हैं। पेट और प्रजनन के क्रिया-कलाप तो हर जीव-जन्तु बिना किसी कठिनाई के पूरे करते रहते हैं। फिर यदि मनुष्य ने पैसा बटोरने और दर्प दिखाने जैसी विडंबना में जीवन संपदा को लुटा दिया तो उसकी समझदारी को कोई किस प्रकार सराहेगा। भौतिक-संपन्नता और जीवन-संपदा की तुलना किसी प्रकार नहीं होती। एक मनुष्य उपार्जित है और दूसरी ईश्वर प्रदत्त। संपदा के बदले सुविधा साधन मात्र उपलब्ध हो सकते हैं। फिर क्षण-क्षण बदलते इस संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं जो देर तक एक रूप में टिक सके और सदा एक जैसी प्रसन्नता दे सके। दुरुपयोग करने पर वह वैभव और अहंकार पतन और पराभव से संबंधित अनेकों अनर्थ खड़े कर सकता है। फिर तृष्णा की खाई समुद्र से भी अधिक गहरी जो है, उसे सीमित सुविधा-साधनों से पाटा भी तो नहीं जा सकता। उपलब्धियाँ जिस क्रम से हस्तगत होती जाती हैं, ललक की ज्वाला उसी अनुपात से बढ़ती भी तो जाती है। वैभव कितना ही अधिक अर्जित क्यों न कर लिया जाय, उसके कारण व्यसनों का तापमान उसी क्रम से बढ़ता जाता है। साथ ही नशा पीने की मस्ती जिस प्रकार उत्तर जाती है और बदले में शरीर की नस-नाड़ियों को तोड़ मरोड़ कर रख देती है, उसी प्रकार संपदा के बदले जो पाया सँजोया जाता है वह व्यक्तित्व की गिरावट का ही निमित्त कारण बनता है। इसीलिए तथ्यों के जानकार अपनी दिव्य विभूतियों को खाई खंदक में गिराते रहने की भूल करने की बारी आने पर समय से पहले ही सावधान हो जाते हैं।

यदि अपने को दूसरों से बढ़कर ही सिद्ध करने की अहंता आकुल-व्याकुल कर रही हो तो उसकी पूर्ति के लिए अनेकों मार्ग खुले पड़े है। प्रतिस्पर्धा और महत्वाकाँक्षाओं के लिए अनेकों एक से एक महत्वपूर्ण द्वार खुले पड़े है। आवश्यक नहीं कि इसे लिए निकृष्टता की दिशा धारा ही अपनाई जाय। अहंता उद्दंडता की पूर्ति के लिए प्रेरित करती हे, किन्तु आत्मगौरव का तकाजा दूसरा है। उस संदर्भ में भी सराहनीय प्रगति की जा सकती ह। पुण्य परमार्थ के निमित्त भी बहुत कुछ किया जा सकता है। धर्म धारणा और सेवा भावना को चरितार्थ करने के लिए अनेकों क्षेत्र ऐसे पड़े है जिनमें साहसपूर्वक आगे बढ़ा जा सकता है और महामानवों की पंक्ति में जा बैठने के लिए बढ़−चढ़ कर शौर्य पराक्रम का प्रदर्शन किया जा सकता है। यही क्यों सूझना चाहिए कि निकृष्टता के दल-दल में डूब मरने का ही अपने साहस का प्रदर्शन किया जाय। यों आत्मघात में भी तो हिम्मत जुटानी पड़ती है और दुस्साहस भरे कदम उठाने पड़ते है, पर इसका प्रतिफल अपने या दूसरे किसी के लिए न प्रसन्नता दायक होता है और न सराहनीय। गति तो गर्त में गिराने के लिए देखी जाती है, पर वह अधोगामी होती है। गौरव ऊँचे चढ़ने में है। उसमें अपना स्थान एवं स्तर भी दूसरा की अपेक्षा अधिक ऊँचा उठा हुआ देखा जाता है और जमीन पर खड़े हुए लोग इस उत्कृष्टता के शिखर पर जा चढ़ने वाले का आश्चर्य भरी दृष्टि से देखते हैं और प्रयास की सराहना करते हैं। जब चयन करना पूरी तरह अपने ही हाथ की बात है तो पतन-पराभव की दिशा अपना कर लोग भर्त्सना और आत्म-प्रताड़ना का भाजन क्यों बना जाय ? उस मार्ग को क्यों न अपनाया जाय जिसमें पग-पग पर अपना और दूसरों का कल्याण कही कल्याण है।

गिरने वाला मनुष्य पतित, पराजित, हेय एवं अधोगामी गिना जाता है। मनुष्य जैसा शरीर रहते हुए भी नर-पशु वनमानुष, असभ्य और अनगढ़ गिना जाता है। आत्मा का, परमात्मा का लोकमत का कोप भाजन बनता है और भ्रष्ट चिंतन, दुष्ट-आचरण का प्रतिफल अनेकानेक कष्टों तिरस्कारों, अभिशापों के रूप में सिर पर चढ़ता है। वासना पूर्ति के लिए अनेकों अपव्ययी, दुर्व्यसनी, अनाचारी अपने-अपने कीर्तिमान स्थापित करने के लिए लालायित रहते हैं। उन्हें अधोगामी दुष्प्रवृत्ति को ही क्यों अपनाना चाहिए जिनमें मात्र विक्षोभ उत्पन्न करने और अनाचारी बनने के अतिरिक्त और कुछ सार है। ही नहीं। तृष्णा की पूर्ति के लिए व्याकुल तो रहा जा सकता है, पर उसकी पूर्ति किसी भी प्रकार संभव नहीं। आगे पड़ने वाली छाया को पकड़ सकने में कोई समर्थ नहीं हुआ। जितनी तेजी से उसे पकड़ने का प्रयत्न किया जाता है उतनी ही तेजी से वह आगे बढ़ जाती है। मनोरथ पूरा करने पर भी कोई चैन से नहीं बैठ सका है। अतृप्ति के क्षणों में बेचैनी रहती है, पर जब जितना कुछ मिलता जाता है, वह घटिया भी लगता है और कम भी। तब प्राप्ति का संतोष तो न जाने कहाँ चला जाता है। अधिक पाने के लिए जो नई लालसा उभरती है, वह जो पाया जा चुका उसके संतोष का भी अपहरण कर ले जाती है। प्यास पहले से भी अधिक बढ़ जाती है और असंतोष उससे भी अधिक उफन पड़ता है जितना कि कम साधनों की स्थिति में पहले रहा करता था।

संसार में एक से एक बढ़कर धनी मानी पड़े है। उन सब की पटतर कैसी की जाय ? इतना समय कौशल, अवसर, साधन आदि को जुटा सकना कैसे संभव हो ? अपने से अधिक संपन्नों पर दृष्टि डालने से अपनी स्थिति बहुत ही पिछड़ी हुई दीख पड़ती है। सोने की लंका वाला अपार भोगों का अधिपति कारण तक जब उस उपार्जन में से कुछ साथ न ले जा सका। सिकन्दर जैसे विपुल वैभव के अधिपति को अपने को अभावग्रस्त ही समझते रहना पड़ा और अपनी निराशा को व्यक्त करते हुए हाथ पसार कर विदा होने की बात सर्वसाधारण के सामने व्यक्त करता रहा तो फिर साधारण लोगों की तो बिसात ही क्या है ? सामान्य परिस्थितियों में तो हर किसी के लिए इच्छा और चेष्टा का उम्र प्रदर्शन करते रहने पर भी उस दशा में कुछ कहने लायक और बटोर सकने का सुयोग भी नहीं बन पड़ता। फिर ऐसी लालसाओं को साती सर्पिणी की तरह क्यों जगाया जाय जो देखने भर के लिए कितनी चमकदार है, पर उसके साथ घनिष्ठता जोड़ने से तो विष दंश चुभने और प्राण जाने का ही खतरा है। कोई चाहे तो अवाँछनीय उद्विग्नता को काबू में रख कर काम चलाऊ साधनों से भी भली प्रकार निर्वाह कर सकता है और संतोष भरी प्रसन्नता का निरंतर रसास्वादन कर सकता है। फिर भारभूत संचय को सिर पर लादने के लिए इतना व्याकुल नहीं रहा जाय जिसमें जीवन संपदा बुरी तरह खप जाय और हाथ कुछ भी न लगे।

अहंकार की पूर्ति दूसरों को गिराने, हराने में हो सकती है या फिर चापलूसों को चाटुकारिता से भरे-पूरे यशोगान कुछ राहत दे सकते है। प्रदर्शन के लिए आत्म-विज्ञापन असाधारण रूप से खर्चीला होता है, उस उसमें वास्तविकता न होने से धुएँ से बनने वाले बादलों की तरह निरर्थकता के अतिरिक्त और कुछ होता नहीं। यश, श्रेय किसी को भी प्रिय लग सकता है। प्रसूति के बाद बच्चे को पाकर गुदगुदी सी तो अनुभव हो सकती है, पर उसमें स्थिरता कहाँ ? चिरस्थायी यश पाने के लिए तो पुण्य परमार्थ के क्षेत्र में दुस्साहस स्तर के त्याग बलिदान का परिचय देना पड़ता है। धर्म धारणा और सेवा भावना की कड़ी कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। इससे कम मूल्य में खरीदा गया बखान, यशगान पाकर बालकों के झुनझुने पाने या गुब्बारा मिलने जैसा कुतूहल तो दीख पड़ सकता है, पर उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जो किसी का श्रद्धा-सम्मान अर्जित कर सके। प्रामाणिकता का धनी और विश्वास भरे सम्मान का अधिकारी बनी सके। इन्हीं सब बातों को देखते हुए तत्व दर्शियों ने क्षुद्र, जनों द्वारा अपनायी जाने वाली वासना, तृष्णा और अहंता के व्यामोह को भ्राँतियों में भटकना मात्र कहा हे और उस कुचक्र में न फँसने के लिए सावधान किया है।

नीति और प्रीति का राजमार्ग ही हर किसी के लिए सरल और श्रेयस्कर है। इसी दिशा में कदम बढ़ाते रहने वाले ही जीवन लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ हुए है। अपने लिए भी अवलंबन करने योग्य राजमार्ग यही है। जीवन को धन्य बनाने के लिए और कोई “शार्टकट” है। नहीं संतोष और उल्लास प्रदान कर सकने वाले मणि−मुक्तक उसी उत्कृष्टता पर अवस्थित मानसरोवर के अतिरिक्त और कहीं मिलते नहीं है। कस्तूरी के मृग की तरह जहाँ - जहाँ भटकते हुए बेमौत न मरना हो तो दूसरा विकल्प यहीं है कि अपनी नाभि में अवस्थित कस्तूरी होने का ज्ञान प्राप्त किया जाय और अंतरात्मा की प्रेरणाओं का अनुसरण करते हुए उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अपनाया जाय। वह किया जाय जिसे करने में ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति मानवी सत्ता की गौरव गरिमा बढ़ सकें।

जीवन चर्या की प्रतिक्रिया मात्र अपने तक ही सीमित नहीं है समान स्तर के और कुछ छोटे लोग उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। निकृष्टता अपना कर परोक्ष रूप से असंख्यों को वैसा ही अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। चोर लबार, व्यभिचारी, दुराचारी, दुर्व्यसनी जिसे भी संपर्क में आते है, उत्तेजित और अभिभूत मनः स्थिति का अपना प्रभाव और दबाव होता है, पर छूत की बीमारी की तरह समीपवर्तियों पर आक्रमण किये बिना नहीं रहती। तालाब में ढेला फेंकने पर उससे उठने वाली लहरें उस जलाशय की हर दिशा में दौड़ने लगती हैं। इसी प्रकार भ्रष्ट आचरण भी अदृश्य जगत में अपना प्रभाव छोड़ते हैं और अनेकों को वही दिशा अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। नशेबाज और व्यभिचारी असंख्यों को अपनी छूत लगाते हैं और अपने जैसा बनाते रहते हैं। इस पाप विस्तार का दुष्परिणाम लौट कर अपने ही ऊपर आता है। इसलिए आत्मघाती आचरण करने वालों को विश्व विक्षोभ उत्पन्न करने का अपराधी भी ठहराया जाता है। उनके ऊपर न केवल अपने पापों की प्रताड़ना बरसाती है, वरन् उसके प्रभाव क्षेत्र से उत्पन्न हुआ विक्षोभकारी अनाचार भी अपने मार्गदर्शक को ही सहयोगी बनाता है। और न्यायकर्ता के सामने अपराधियों वाले कटघरे में खड़ा करता है।

सदाशयता का मार्ग अपनाने वाले जहाँ अपने पुण्य परमार्थ का सत्परिणाम उपलब्ध करते हों वहाँ उन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में उत्पन्न हुई सत्प्रवृत्तियों के लिए भी श्रेयाधिकारी ठहराया जाता ही। सन्मार्ग अपनाने वालों को दुहरा लाभ मिलता है। अपने सत्कर्मों का भी और दूसरों पर छोड़े गये श्रेयस्कर प्रभाव का भी। इसी तथ्य को देखते हुए अपने सुधार को संसार की सबसे बड़ी सेवा ठहराया गया है। अध्यापक अनेकों को शिक्षित बनाने का श्रेय प्राप्त करते है। अपने प्रतिभावान् प्रयत्नों से हम अनेकों को अपनी तरह गिराने या उठाने का वातावरण बनाते हैं।

विचार क्राँति की आवश्यकता आज की परिस्थितियोँ में इसीलिए निताँत आवश्यक मानी गई है। आस्था संकट, अन्न संकट उत्पन्न करने वाले दुर्भिक्ष से भी अधिक भयंकर है। वस्तुओं के अभाव में मात्र शरीर को ही कष्ट उठाना पड़ता है, पर अचिंत्य चिंतन का अभ्यास तो उपयुक्त परिस्थितियों को भी कुसंस्कारी, दैन्य, दारिद्रय से भर देता है। इसलिए यदि प्रमुखता देने योग्य परमार्थ को अपनाना हो तो उसके लिए विचार परिष्कार का पर्यंत प्राण-पण से करना चाहिए। सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त सुरम्य वातावरण उत्पन्न होने की आशा इसी आधार पर की जा सकती है कि विचारणा, भावना, आस्था, रुझान और क्रियाकलापों में शालीनता की पक्षधर सुसंस्कारिता का अधिकाधिक समावेश किया जाय। यदि औचित्य का मार्ग अपनाया जा से उसके लिए प्रेरणा-प्रद वातावरण मिल सके तो समझना चाहिए कि व्यक्ति और समाज के लिए सर्वतोमुखी कल्याणकारी परिस्थिति उत्पन्न करने का सुयोग बन गया। अनेकों समस्याओं से अलग अलग उपायोँ से जूझने के स्थान पर मूल कारण के समाधान का उपाय भी समस्त समस्याओं का एक ही हल सिद्ध हो सकता है। जन मानस का परिष्कार ही अपने समय का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है। जड़ सींचने से समूचा वृक्ष हरियाने और फूलने - फलने लगता हैं। यदि इस तथ्यान्वेषी दूर दर्शिता से काम न लिया जाय तो हरे पत्ते को पोंछने धोने का ऐसा लम्बा मार्ग अपनाना पड़ेगा जो कष्ट साध्य होने के साथ - साथ इस दृष्टि से भी संदिग्ध ही रहेगा कि उन बहुमुखी प्रयासों से उपयुक्त समाधान निकलेगा भी या नहीं।

चेचक की फुँसियों पर मरहम कहाँ तक लगाई जाय। अच्छा यही हैं कि रक्त शोधन का उपाय - उपचार किया जायें। रक्त में विषाक्तता भर जाने पर चेचक ही नहीं और भी अनेकानेक चित्र-विचित्र आकृति प्रकृति के रोगों का प्रकोप हो सकता हैं। इस लिए चिर स्थायी स्वास्थ्य समाधान ढूँढ़ने हैं। अपने समय में जनता के सम्मुख उपस्थित अनेकों समस्याओं, आपत्तियों, उद्विग्नताओं, आशंकाओं, चिंताओं का एकमात्र कारण है - चिंतन में निकृष्टता की पक्षधर दुष्प्रवृत्तियों की भरमार। उसी कारण दुष्कर्म पड़ते हैं और क्रिया की प्रतिक्रिया का परिपाक अनेकानेक विपत्तियोँ के रूप में प्रस्तुत होता दीख पड़ता हैं।

मनुष्य इतना अशक्त नहीं कि अपने निर्वाह साधन खड़े न कर सके। उसे तो इतना क्षमता संपन्न बनाया गया है कि स्वयं सुख शाँति से रह सके और जलते दीपक कि तरह अपने प्रभाव क्षेत्र में हर्षोल्लास भरा आलोक वितरण कर सके। व्यवधान एक ही है कि अवाँछनीयता के प्रति आकर्षित हो तदनुसार वासना, तृष्णा, अहंता की गुत्थियों में फँसकर अपने लिए और दूसरों के लिए पतन, पराभव का वातावरण विनिर्मित करना।

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा हैं। इस उद्घोष को उछालने वाले युग मनीषियों ने प्रस्तुत समस्याओं और संकटों के निराकरण का यही समाधान सुझाया है कि हम अपने जीवन का स्वरूप, एवं लक्ष्य समझें, कर्तव्यों का परिपालन करें इसका प्रभाव बाह्य जगत पर पड़े बिना नहीं रह सकता। सुगंध और दुर्गंध के उद्गम अपनी-अपनी प्रतिक्रिया से व्यापक वातावरण को प्रभावित करते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि जीवन संपदा का श्रेष्ठतम, उपयोग करने वाला अन्य अनेकों को उसका अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित न कर सकें।

यह बार-बार स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि स्रष्टा ने सुर दुर्लभ मानवी काया इसलिए प्रदान की है कि उसके द्वारा आत्म परिष्कार और सत्प्रवृत्ति प्रचलन के रूप में अपनी तथा संसार की दुहरी सेवा-साधनों को अपनाया जाय। वह निश्चित रूप से पेट प्रजनन भर के लिए नहीं है। यदि इतना ही सीमित उद्देश्य रहा होता तो किसी भी जीव जंतु के कलेवर में रहते हुए यह दोनों ही इच्छाएँ भली प्रकार पूरी की जा सकती थीं, तब मनुष्य को अनेकानेक विशेषताओं और विभूतियों से भरापूरा दिव्य जीवन गढ़ने और अनुग्रह-पूर्वक प्रदान करने की आवश्यकता ही न पड़ती है।

उसकी संरचना मात्र इसी प्रयोजन के लिए हुई है कि अपनी और सृजेता की गौरव गरिमा का परिचय उत्कृष्टताओं के साथ दे सके जो स्रष्टा को अपना विश्व-उद्यान सुरम्य देखने के रूप में अभीष्ट है, जिन कृत्यों को अन्य प्राणी नहीं कर सके, उन्हें अपने उच्चस्तरीय आदर्शवादी क्रियाकृत्यों द्वारा संपन्न कर सकें उपलब्धियाँ सौभाग्य की सूचक तो हैं, पर उनका सदुपयोग बन पड़ने पर ही सार्थकता है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है। जो जितना महत्वपूर्ण है उससे लाभ भी उसी स्तर का मिलने की संभावना है, पर साथ ही यह आशंका भी जुड़ी हुई है कि यदि उसका दुरुपयोग होने लगे तो घातक भी इतनी अधिक हो जाती है कि स्थिति सँभालते नहीं सँभलती। हाथी जिस दरवाजे पर बँधा होता है उसकी सुविधा प्रतिष्ठ में भी चार चाँद लगाता है, पर यदि वह पागल हो उठे तो अनेकों को मारता, कुचलता पेड़ों को तोड़ता, फसलों को रौंदता विकराल रूप भी धारण कर लेता हैं। मनुष्य सत्प्रवृत्तियों से सुसज्जित है। जीवन संपदा का श्रेष्ठतम उपयोग करें, तो वह अपना और अन्यायों का कल्याण साधता,स्रष्टा की कलाकारिता को सार्थक करता है, पर यदि वह वासना, तृष्णा और अहंता की अवाँछनीयता पर उतर आये तो उसे दैत्य, दानव, प्रेत, पिशाच के रूप में बदलते भी देर नहीं लगती।


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