गाय का पुतला बनाकर उनने आश्रम के आँगन में डाल दिया और लाँछन लगाया कि इसे नारद ने मारा है। उसे गौहत्या का दंड मिले।
यथार्थता खुल गई। पुतला नकली था, सो उसे फिंकवा दिया गया।
गौतम गंभीर हो गये। उनने कहा- ‘ ‘ब्राह्मणों ! मैंने जाना कि तुम्हारे क्षेत्र में दुर्भिक्ष क्यों पड़ा ? जहाँ के विद्वान ईर्ष्यालु होते हैं, वहाँ शान्ति का वातावरण नहीं रहता। ‘ ‘
इतरा यों उत्पन्न तो शूद्र कुल में हुई थी ; पर उसे महर्षि शाल्विन की धर्मपत्नी बनने का सुयोग मिल गया। उसके एक पुत्र भी था।
एक बार राजा ने बड़ा यज्ञ - आयोजन किया। उसमें सभी ब्राह्मणों और ब्रह्म कुमारों का सत्कार हुआ। सभी को दक्षिणा मिली। किंतु इतरा के पुत्रों को “शुद्र” कहकर उस सम्मान से वंचित कर दिया गया।
शाल्विन बहु दुःखी हुए। इतरा को भी चोट लगी। बच्चा भी उदास था।
इस असमंजस ने एक नया प्रकाश दिया। तीनों ने मिलकर निश्चय किया कि वे जन्म से बढ़कर कर्म की महत्ता सिद्ध करेंगे।
शिक्षण का नया दौर आरम्भ हुआ। इतरा पुत्र ऐतरेय को धर्मशास्त्रों की शिक्षा में पारंगत कराया गया। देखते—देखते वे अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे।
एक बार वेद ऋचाओं के अर्थ करने की प्रतिस्पर्द्धा हुई। दूर-दूर देशों के विद्वान् और राजा एकत्रित हुई। प्रतियोगिता में सभी की पाँडुलिपियाँ जाँची गयी। सर्वश्रेष्ठ ऐतरेय घोषित किए गये।
इतरा शुद्र थी। उसके पुत्र ने पिता के नाम पर ही, मामात की कुल परंपरा प्रकट करने के लिए अपना नाम ‘ऐतरेय’ घोषित किया। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ वेद ऋचाओं के भावार्थ को प्रकट करने वाला अद्भुत ग्रंथ हैं। उसका सृजेता जनम से शुद्ध होते हुए भी, पुरुषार्थ से ‘ब्राह्मण’ बना।