साधन नहीं, साधना

May 1994

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धर्म और दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति का पतन-देख नागेश भट्ट का स्वाभिमानी मन विचलित हो उठा। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक आर्ष-साहित्य का अवाँछनीय भाग सुधार नहीं डालेंगे, जब तक शुद्ध और सच्चे दर्शन का निर्माण नहीं कर लेंगे - तब तक और कोई काम करेंगे ही नहीं, चाहें उन्हें भूखों कही क्यों न मरना पड़े।

शाम तक जो कुछ मिल जाता खाकर वे दिन भी आर्ष-ग्रन्थों की खोज, पठन-पाठन, मनन-चिंतन और लेखन-संकलन में ही लग रहते। अपनी संस्कृति को जीवित करने को उनकी अदम्य भावना ने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं देने दिया। आयु जैसे-जैसे ढलती गयी वैसे-वैसे उनका शरीर ही निर्बल नहीं होता गया वरन् पीठ में कूबड़ भी निकल आया।

लोग हँसते और कहते - यह देखो भगवान का काम। कहते हैं जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा स्वयं करता है। अब भगवान को क्या हो गया है जो अपने इस प्रेमी की भी रक्षा नहीं कर पाए ? कहने वाले तो नागेश के सामने भी न जाने क्या-क्या कह जाते, पर उस निस्पृह सेवक का मन जैसे कमल का पत्र बन गया था। कोई कुछ कहता वह उसी तरह दुलक जाता जैसे पुरइन के पत्ते पर से पानी। जिस दीवार के सहारे बैठते थे, जब वह चुभने और कूबड़ को कष्ट देने लगी तो नागेश भट्ट ने उस दीवार को कटवाकर छेद करा लिया। छेद इतना बड़ा था कि जब वे दीवार के सहारे बैठ जाते तो कूबड़ उसी में समा जाता और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होता।

इस तरह निर्धनता और अभाव के मध्य नागेश भट्ट की साधना निरंतर चलती रही। स्वार्थी तत्वों द्वारा मिलाये, मिथ्या, विचारों, श्लोकों को अपने साहित्य में से वे ऐसे निकाल-निकाल कर फेंकते गए जैसे किसान खेत के झाड़ - झंखाड़ को। नागेश भट्ट प्रकाँड पंडित गिने जाने लगे। उनकी योग्यता के आगे कोई भी प्रतिक्रियावादी व्यक्ति टिक नहीं पाता था।

महाराज पेशवा बाजीराव ने यह सब सुना तो स्तब्ध रह गए। सचमुच ऐसा भी पंडित और लगनशील तपस्वी अब भी इस देश में हो सकता है, इस पर उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने ऐसे महान साधक और संस्कृति निष्ठ देव-पुरुष के दर्शन करने और उन्हें सहायता देने का निश्चय किया।

पेशवा बाजीराव महाराष्ट्र से चलकर स्वयं ही वाराणसी पहुँचे। वस्तुतः जैसा सुना था, वैसा ही पाया। नागेश भट्ट का शरीर काल का कौर बन चला था। पर वह थे कि अब भी पुस्तकों का ढेर जमा किए अपनी साधना में जुटे पड़े थे जैसे शेष संसार उनके लिए किसी श्मशान की तरह हो-जहाँ न तो कुछ दर्शनीय होता है न ग्रहणीय। संसार में कोई भौतिक सुख भी होता है, यह उन्होंने जाना ही नहीं।

पेशवा ने उन्हें देखा तो उनकी आंखें डबडबा आयीं। अपने दुर्भाग्य पर उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। ऐसे महापुरुष को तो बहुत पहले सहयोग दिया जाना चाहिए था। संभवतः तब वे अब की अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक काम कर सके होते।

बाजीराव ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया और बड़े आदर के साथ-”कहा, आयार्च प्रवर ! आज्ञा दें मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूं तो यह मेरा बड़ा सौभाग्य होगा। “

ध्यान भंग हुआ तो नागेश भट्ट ने सिर ऊपर उठाकर महाराज की ओर देखा और उन्हें आदर के साथ बैठाते हुए कहा-हाँ महाराज ! आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए एक सूत्र कठिनाई से हाथ लगा है पर उसकी व्याख्या नहीं हो पा रही। यदि आप उसमें मेरी सहायता कर सकें तो आपकी बड़ी कृपा होंगी।”

आर्थिक सहायता देने के लिए आये महाराज पेशवा यह सुनकर स्तब्धित हो बोले “आपकी साधना अद्वितीय है उसकी सफलता कोई रोक नहीं सकता। धन्य है आपका ब्राह्मणत्व एवं यह देश जिसने आप जैसे नर रत्नों को जन्म दिया।”

प्रतिभाएँ जब आज अपने शोषण की, अधिकारों की तथा कार्य क्षेत्र में प्रतिकूलताओं का शोर मचाती दिखाई देती है तो लगता है, उन्हें ब्राह्मणत्व का क, ख, ग समझाना सर्वाधिक अनिवार्य है। यदि यह समझ में आ गया तो बिना किसी गिला-शिकवा के प्रतिभा परिष्कार संपन्न हो आत्मबल संपन्न देवमानवों से, यह धरित्री देवभूमि - अभिपूरित होती दिखाई पड़ने लगेगी।


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