चार चारण−साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा

May 1994

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मित्रो-पाठक वृंदों, यो तो परमपूज्य गुरुदेव का संदेश लेखनी व वाणी के माध्यम से मुखरित हो विश्वभर में संव्याप्त हो रहा है, फिर भी उनकी अमृतवाणी-प्रवचनों के जो अंश हमारे पास उपलब्ध हैं, उन्हें आप पढ़ेंगे तो पायेंगे कि इन शब्दों के साथ गुँथी भाव तरंगें आपके अंतरंग को उछाल दे रही है। तथा आपकी भनक ही गणित गुत्थियों को सुलझा रही है। पूज्यवर की स्थूल काया हमारे बीच नहीं है किंतु उनकी लेखनी का अमृत संजीवनी के रूप में अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण योजना, युगशक्ति, एवं 3200 पुस्तकों तथा वाणी के रूप में आडियो-वीडियो कैसेट्स एवं अगणित व्यक्तियों द्वारा यथा रूप लिपिबद्ध प्रवचनों के रूप में आज भी अनेकानेकों का मार्गदर्शन कर रहा है। लखनऊ अश्वमेध यज्ञ समिति ने पूज्यवर के दो महत्वपूर्ण प्रवचनों को ही एक विशेष संदेश के रूप में प्रकाशित कर अपने अनुयाज का प्रथम चरण आरंभ कर दिया। यह बहुत अच्छी शुरुआत है। जो साहित्यिक जटिलताओं से भरी लेख मालाओं के प्रारंभ में ग्राह्य करने में कठिनाई अनुभव करते हों उनके लिए यह एक ऐसा जीवंत आहार है जो उनके रोम-रोम में प्राण संचार कर उन्हें जीवन पथ पर कहीं से कहीं पहुंचा देगा। प्रारंभिक पाठकों को तो यहीं से आरंभ कर अध्यात्म दर्शन की गहराइयों में प्रविष्ट होना चाहिए।

इस अंक में अनेकों अमृत वाणियों की शृंखला में प्रस्तुत है। पूज्यवर का एक ऐसा प्रवचन जो आपकी उँगली पकड़कर आगे चलना सिखायेगा-आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करेगा। जून 1980 में शाँतिकुँज परिसर में दिनाँक 13 को दिया गया यह उद्बोधन हम सबके लिए है। पढ़े। अमृतवाणी---

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें--

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

साथियों, युगनिर्माण परिवार का गठन एक प्रयोगशाला के रूप में हुआ है। प्रयोगशाला में रासायनिक पदार्थ तैयार किये जाते हैं और उसके परिणामों को सर्वसाधारण के सामने उपस्थित किया जाता है। युग निर्माण परिवार का गठन एक पाठशाला के तरीके से हुआ है, जहाँ विद्यार्थी पढ़ाये जाते हैं और पढ़-लिख करके वे समाज के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को सँभालते हैं। गायत्री परिवार का गठन एक व्यायामशाला के तरीके से किया गया है जिसमें लोग व्यायाम करते हैं और पहलवान बनकर के दंगल में कुश्तियाँ पछाड़ते है। युग निर्माण परिवार का गठन नर्सरी के तरीके से किया गया है जिसमें छोटे-छोटे फलदार पौधे तैयार किये जाते हैं और यहाँ पैदा होने के बाद दूसरे बगीचों में भेज दिये जाते हैं, जहाँ बड़े-बड़े उद्यान-बगीचे बनकर तैयार होते हैं। युगनिर्माण परिवार का गठन एक कृषि फार्म की तरीके से हुआ है। कृषि फार्म में छोटे-छोटे प्रयोग गन्ने के, सोयाबीन के अमुक के-अमुक के किये जाते हैं और उसके जो निष्कर्ष निकलते हैं, वह सब लोगों को मालूम पड़ते है और इसी आधार पर वे अपने-अपने कृषि कार्य को आरंभ करते हैं। व्यक्तियों के निर्माण की प्रयोगशाला के रूप में, पाठशाला के रूप में, व्यायामशाला के रूप में, नर्सरी और कृषि फार्म के रूप में , युगनिर्माण परिवार का गठन किया गया। हम चाहते हैं कि व्यक्ति बदल जायें और ऊँचा उठें, क्योंकि हम समाज को ऊँचा उठाना चाहते है। समुन्नत बनाना चाहते हैं।

आखिर समाज है क्या? समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। व्यक्ति जैसे होंगे वैसा ही तो समाज बनेगा। समाज कोई अलग चीज नहीं है। वरन् व्यक्तियों के समूह का नाम है। इसलिए व्यक्तियों के श्रेष्ठ बनाने का मतलब है-समय को अच्छा बनाने का मतलब है युग के प्रवाह को बदल देना। “युग का प्रवाह बदलेगा” अर्थात् समाज को बदल देना। समाज को बदल देना अर्थात् व्यक्तियों को बदल देना, यही हमारा उद्देश्य है। इसी क्रिया कलाप के लिए और परिवर्तन के लिए हम लगे हुए हैं और युग परिवर्तन का जो नारा लगाते हैं उसका मतलब ही यह है कि यह युग बदलेंगे, समाज बदलेंगे और व्यक्ति बदलेंगे। बदलने के लिए हम व्यापक क्षेत्र में प्रयोग नहीं कर सकते। अतः छोटे क्षेत्र में हम प्रयोग करते हैं ताकि इसकी देखा-देखी इसका अनुकरण करते हुए अन्यत्र भी यहीं परंपरायें चलें अन्यत्र भी इसी तरीके से क्रिया-कलाप चालू किये जा सकें। बाहर की परिस्थितियाँ मन की स्थिति के ऊपर निर्भर हैं। मन जैसा भी हमारा होता है, परिस्थितियाँ उसी के अनुरूप बननी शुरू हो जाती है। हम इच्छाएँ करते हैं, इच्छाओं से हमारा मस्तिष्क काम करता है। मस्तिष्क की गणनाओं से शरीर काम करता है। शरीर और मस्तिष्क दोनों ही हमारी अंतरात्मा की अंतःकरण ही प्रेरणा से काम करते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की पड़ी कि हमारी आँतरिक अवस्थाओं को आँतरिक मान्यताओं को-निष्ठाओं को परिवर्तित कर दिया जाय तो जीवन का सारा ढाँचा ही बदल जायेगा।

मनुष्य के सामने असंख्यकों समस्याएं है और उन असंख्य समस्याओं का समाधान केवल इस बात पर टिका हुआ है कि हमारी आँतरिक स्थिति सही बना दी जाय। दृष्टिकोण हमारा गलत होता है तो हमारे क्रियाकलाप गलत होते हैं और गलत क्रिया-कलापों के परिणाम स्वरूप जो प्रतिक्रियाएं होती हैं, जो परिणाम सामने आते हैं वे भयंकर दुखदायी होते हैं, कष्टकारक होते है। कष्टकारक परिस्थितियों के निवारण करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य का चिंतन और दृष्टिकोण बदल दिया जाय, परिष्कृत कर दिया जाय। यहीं हैं हमारे प्रयास जिसके लिए हम अपनी समस्त शक्ति के साथ लगे हुए है।

मनुष्य के आँतरिक उत्थान, आँतरिक उत्कर्ष, आत्मिक विकास के लिए क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? इसका समाधान करने के लिए हमको चार बातें तलाश करनी पड़ती है। इन्हीं चार चीजों के आधार पर हमारी आत्मिक उन्नति टिकी हुई है और वे चार आधार हैं-साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा। ये चारों ऐसे हैं जिनमें से एक को भी आत्मोत्कर्ष के लिए छोड़ा नहीं जा सकता। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसके बिना हमारे जीवन का उत्थान हो सके। चारों में आपस में अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं, जिस तरीके से कई तरह की चौकड़ियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं-मसलन बीज एक, जमीन-दो, खाद-तीन, पानी-चार। चारों जब तक नहीं मिलेंगे कृषि नहीं हो सकती। उसका बढ़ना संभव नहीं है। व्यापार के लिए अकेली पूँजी से काम नहीं चल सकता। इसके लिए पूँजी-एक, अनुभव-दो, वस्तुओं की माँग-तीन, ग्राहक-चार इन चारों को आप ढूँढ़ लेंगे तो उसके लिए ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी-इन चारों चीजों की जरूरत है। चारों में एक भी चीज अगर कम पड़ेगी तो हमारी इमारत नहीं बन सकती। सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य का कौशल आवश्यक है, साधन आवश्यक है, सहयोग आवश्यक है और अवसर आवश्यक है। इन चारों चीजों में से एक भी कम पड़ेगी तो समझदार आदमी भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकेगा-सफलता रुकी रह जायेगी। जीवन निर्वाह के लिए भोजन, विश्राम, मल विसर्जन और श्रम उपार्जन-चारों की आवश्यकता होती है। ये चारों क्रियाएं होंगी तभी हम जिंदा रहेंगे, यदि इनमें से एक भी चीज कम पड़ जायेगी तो आदमी का जीवित रहना मुश्किल पड़ जायेगा। ठीक इसी प्रकार से आत्मिक जीवन का विकास करने के लिए आत्मोत्कर्ष के लिए चारों का होना आवश्यक है, अन्यथा व्यक्ति निमार्ण का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा।

अब हम चारों चीजों के ऊपर प्रकाश डालते हैं। पहली है उपासना प्लस साधना। उपासना और साधना-इन दोनों को मिलाकर एक पूरी चीज बनती है। उपासना का अर्थ है-भगवान पर विश्वास, भगवान की समीपता। उपासना माने भगवान के पास बैठना-नजदीक बैठना। इसका मतलब यह हुआ कि उसकी विशेषताएँ हम अपने जीवन में धारण करें-जैसे आग के पास हम बैठते हैं, तो आग की गर्मी से हमारे कपड़े गरम हो जाते हैं, हाथ गरम हो जाते हैं, शरीर गरम हो जाता है। पास बैठने का यही लाभ होना चाहिए। बर्फ के पास बैठते हैं, ठंडक में बैठते हैं तो हमारे हाथ ठंडे हो जाते है। पानी में बर्फ डालते हैं तो पानी ठंडा हो जाता है। ठंडक को नजदीक जाने से हमें ठंडक मिलनी चाहिए। गर्मी की समीपता से गर्मी मिलनी चाहिए। सुगंधित चीजों से सुगंध मिलनी चाहिए। चंदन के समीप उगने वाले पौधे सुगंधित हो जाते हैं-उसकी समीपता की वजह से। यही समीपता वास्तविक है। उपासना का अर्थ यह है कि हम भगवान का भजन करें, नाम लें, जप करें, ध्यान करें, पर साथ-साथ हम इस बात के लिए कोशिश करें कि हम भगवान के नजदीक आते जायें। भगवान हमारे से समाविष्ट होता जाये और हम भगवान में समाविष्ट होते जायें अर्थात् दोनों एक हो जायें। एक होने से मतलब यह है कि दोनों कि इच्छाएँ, दोनों की गतिविधियाँ, दोनों की क्रिया पद्धति, दोनों के दृष्टिकोण एक जैसे रहें। हम को ईश्वर जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर जैसे बनें न कि ईश्वर पर हुकुम चलायें और उनको यह आदेश दें कि आपको ऐसा करना चाहिए। आपको किसी भी हालत में हमारी माँगें पूरी करनी चाहिए उपासना का तात्पर्य अपनी मनोभूमि को इस लायक बनाना है कि हम भगवान के आज्ञानुवर्ती बन सकें। उनके संकेतों के इशारे पर अपनी विचारणा और क्रियापद्धति को ढाल सकें। उपासना-भजन इसलिए किया जाता है।

साधना-साधन का अर्थ है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव को साथ लेना। वस्तुतः मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे के सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके ले आया है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि हानिकारक है। तो भी स्वभाव के अंग बन गये है, और हम मनुष्य होते हुए भी पशु संस्कारों से प्रेरित रहते हैं और पशु-प्रवृत्तियों को बहुधा अपने जीवन में कार्यान्वित करते रहते हैं। इस अनगढ़पन को ठीक कर लेना, सुगढ़पन का अपने भीतर से विकास कर लेना, कुसंस्कारों को जो पिछली योनियों के कारण हमारे भीतर जमे हुए है, उनको निरस्त कर देना और अपना स्वभाव इस तरह का बना लेना जिसको हम मानवोचित कह सकें-साधना है। साधना के लिए हमको वही क्रिया-कलाप अपनाने पड़ते हैं जो कि एक कुसंस्कारी घोड़े या बैल को सुधारने के लिए उसके मालिकों को करने पड़ते हैं-हल में चलने के लिए और गाड़ी में चलने के लिए। कुसंस्कारों को दूर करने के लिए हमको लगभग उसी तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि सरकस के पशुओं को पालते हुए उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे सरकस में तमाशा दिखा सकें। इसी तरह के प्रयत्न हमको अपने गुण, कर्म, स्वभाव के विकास के परिष्कार के लिए करने पड़ते हैं। कच्ची धातुओं को जिस तरीके से आग में तपा करके उनको शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है, जेवर आभूषण बनाये जाते हैं, उसी तरीके से हमारा कच्चा जीवन-कुसंस्कारी जीवन को ढाल करके ऐसा सभ्य और ऐसा सुसंस्कृत बनाया जाय कि हम ढली हुई धातु के आभूषण के तरीके से अथवा औजार-हथियार के तरीके से दिखायी पड़े। जंगली झाड़ियों को काटकर के माली लोग अच्छे-अच्छे झाड़ और खूबसूरत पार्क बना देते हैं। हमको भी अपने झाड़-झंखाड़ जैसे जीवन को परिष्कृत करके-काट-छाँट करने-समुन्नत करके इस लायक बनाना चाहिए कि जिसको कहा जा सके कि वह सभ्य और सुसंस्कृत जीवन है।

इसके लिए हमको नित्य ही आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। अपनी गलतियों पर गौर करना चाहिए। उनको सुधारने के लिए कमर कसनी चाहिए और अपने आपका निर्माण करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए और जो कमियाँ हमारे स्वभाव के अंदर हैं, उन्हें दूर करने के लिए जुटे रहना चाहिए। आत्म विकास इसका एक हिस्सा है। हमको अपनी संकीर्णता में सीमित नहीं रहना चाहिए। अपने अहं को और अपनी स्वार्थपरता को, अपने हितों को व्यापक दृष्टि से बाँट देना चाहिए। दूसरे के दुःख हमारे दुःख हों, दूसरों के सुखों में हम सुखी रहें, इस तरह की वृत्तियों का हम विकास कर सकें तो कहा जायेगा कि हमने जीवन साधना करने के लिए जितना प्रयास किया, उतनी सफलता पायी। साधना से सिद्धि की बात प्रख्यात है। जीवन की साधना की सिद्धि में ही किसी प्रकार के संदेह की गुँजाइश नहीं है। अन्य किसी बात में तो संदेह की गुँजाइश भी है, देवी-देवताओं की उपासना करने पर हमको फल मिले न मिले कह नहीं सकते, लेकिन जीवन की साधना करने का परिणाम निश्चित रूप से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में लाभ के रूप में देखा जा सकता है। यह साधना के बारे में निवेदन किया गया है।

दूसरा है-स्वाध्याय। मन की मलिनता को धोने के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक है। दृष्टिकोण और विचार प्रायः वहीं जमे रहते हैं हमारे मस्तिष्क में जो कि बहुत दिनों से पारिवारिक और अपने मित्रों के सान्निध्य में हमने सीखे और जाने। अब हमको श्रेष्ठ विचार अपने भीतर धारण करने के लिए श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करना चाहिए। चारों ओर हम जिस वातावरण से घिरे हुए हैं, वह हमको नीचे की ओर गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे गिरने की तरफ होता है। हमारा स्वाभाविक स्वभाव ही ऐसा है जो नीचे स्तर के कामों की तरफ-निकृष्ट उद्देश्यों के लिए आसानी से लुढ़क जाता है। चारों तरफ का वातावरण जिसमें हमारे कुटुँबी भी शामिल हैं, मित्र भी शामिल हैं, हमेशा इस बात के लिए दबाव डालते हैं कि हमको किसी भी प्रकार से किसी भी कीमत पर भौतिक सफलताएँ पानी चाहिए। चाहे उसके लिए नीति बरतनी पड़े। हर जगह से यही शिक्षण हमको मिलता है। सारे वातावरण में इसी तरह की हवा फैली हुई है और यही गंदगी हमको भी प्रभावित करती है। हमारे गिरावट के लिए काफी वातावरण विद्यमान है।

इसका मुकाबला करने के लिए क्या करना चाहिए? श्रेष्ठता के मार्ग पर अगर हमको चलना है-आत्मोत्कर्ष करना है, तो हमारे पास ऐसी शक्ति भी होनी चाहिए जो पतन की ऐसी घसीट ले जानें वाली इन सत्ताओं का मुकाबला कर सके। इसके लिए एक तरीका है कि हम श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ में संपर्क और सान्निध्य बनाये रखें, उनके सत्संग को कायम रखें। यह सत्संग केवल पुस्तकों के माध्यम से संभव है, क्योंकि विचारशील व्यक्ति हर समय बातचीत करने के लिए मिल नहीं सकते। इनमें से बहुत तो ऐसे हैं जो स्वर्गवासी हो चुके हैं और जो जीवित हैं वे हम से इतनी दूर रहते हैं कि उनके पास जाकर के हम उनसे बातचीत करना चाहें तो वह भी हमारे लिए बड़ा कठिन है। हम जा नहीं सकते और उनके पास जायें भी तो उनके लिए भी कठिन हैं, क्योंकि प्रत्येक महापुरुष समय की कीमत को समझता और व्यस्त रहता है। ऐसी हालत में हम लगातार सत्संग कैसे कर पायेंगे? कभी साल दो साल में एक- आध घंटे का सत्संग कर लिया, तो उससे हमारा उद्देश्य पूरा हो जायगा ? इसलिए अच्छा तरीका यही है कि हम अपने जीवन में नियमित रूप से जैसे अपने कुटुँबी और मित्रों से बात करते हैं, श्रेष्ठ महानुभावों से-युग के मनीषियों से बातचीत करने के लिए समय निकालें। समय निकालने की इस प्रक्रिया का नाम है - स्वाध्याय।

स्वाध्याय को आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक माना गया है। स्वाध्याय के बारे में ब्राह्मण ग्रंथों में कहा गया हैं जिस दिन विचारशील आदमी स्वाध्याय नहीं करता उस दिन उसकी संज्ञा चाँडाल जैसी हो जाती है। स्वाध्याय का महत्व भजन से किसी भी प्रकार से कम नहीं है। भजन का उद्देश्य भी यही है कि हमारे विचारों का परिष्कार हो और हम श्रेष्ठ व्यक्तित्व की ओर आगे-आगे बढ़ें। स्वाध्याय हमारे लिए आवश्यक है। स्वाध्याय से हम महापुरुषों को अपना मित्र बना सकते हैं और जब भी जरूरत पड़ती है तब उनसे खुले मन से खुले दिल से बातचीत कर सकते है। जिस तरीके से शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान करना आवश्यक है। कपड़े धोना आवश्यक है, उसी प्रकार से स्वाध्याय के द्वारा , श्रेष्ठ विचारों के द्वारा अपने मन के ऊपर जमने वाले कषाय - कल्मषों को मलिनता को धोना आवश्यक है। स्वाध्याय से हमको प्रेरणा मिलती है-दिशायें मिलती है, मार्गदर्शन मिलता है, श्रेष्ठ पुरुष हमारे सान्निध्य में आते है, और हमको अपने मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करते है, मार्गदर्शन करते है। ये सारी की सारी आवश्यकतायें स्वाध्याय से पूरी होती है। इसलिए स्वाध्याय का साधना और भजन के बराबर ही मूल्य और महत्व समझा जाना चाहिए। तीसरी बात जो आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है, उसका नाम है संयम। संयम का अर्थ है- रोकथाम। अगर हम रोकथाम करें तो जो हमारी शक्तियों का घोर अपव्यय होता रहता है, उसको बचा सकते है। हम अपनी अधिकाँश शारीरिक और मानसिक शक्तियों को अपव्यय में नष्ट कर देते है, कुमार्ग पर नष्ट कर देते है। यदि उनको रोका जा सका होता और उपयोगी मार्ग पर लगाया गया होता तो निश्चित रूप से उन शक्तियों के चमत्कार हमको देखने को मिल सकते थे जो हमारे पास थी। पर हम बर्बादी से कुछ बचा नहीं सके। चार तरह के संयम निग्रह रूप में बताये गये है- इंद्रिय निग्रह, मन निग्रह,समय निग्रह, और अर्थ निग्रह। इंद्रिय निग्रह में जिह्वा और कामेंद्रिय का संयम मुख्य है। ये इंद्रियां हमारी कितनी सारी शक्तियों को नष्ट करती है और स्वाध्याय को किस बुरी तरीके से खोखला करती है, यह सभी जानते है। इंद्रिय निग्रह का महत्व बताने की जरूरत नहीं है। शारीरिक दृष्टि से जिनको समर्थ बनाना हो, निरोग और दीर्घ- जीवी बनना हो उनको इंद्रियां निग्रह का महत्व समझना और अपने आपको संयम का अभ्यासी बनाना चाहिए। दूसरा संयम मनोनिग्रह है। मन में कितने सारे विचार उठते है, लेकिन वे असंगत, असंयमित, बुराइयों एवं मनोविकारों से भरे होते है इससे हमारा मस्तिष्क विकृत होता और बुरी आदतें पड़ती है। मनःशक्तियाँ निग्रहित करके किसी कार्य में लगायी गई होती तो हम वैज्ञानिक बन गये होते। साहित्यकार बन गये होते। जिस भी कार्य में हमने मन लगाया होता , सफलता की उच्च श्रेणी तक जा पहुंचे होते पर अस्त−व्यस्त मन के कारण से कोई सफलता संभव न हो सकी। मनोनिग्रह करके एकाग्रता की सामर्थ्य प्राप्त कर सके , तो उससे हमारी सफलताओं का द्वार खुल सकता है। तीसरा है समय का निग्रह।हम समय को आलस्य और प्रमाद में पड़े- पड़े बर्बाद करते रहते है। कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं करते , जब जो आया मनमर्जी से काम कर लिया , मन नहीं हुआ तो नहीं किया। इस तरीके से अस्तव्यस्तता में हमारा जीवन नष्ट हो जाता है, जबकि समय का थोड़ा- थोड़ा या भी उपयोग करते तो न जाने कितना लाभ उठा सकते थे। चौथा निग्रह- अर्थ निग्रह भी ऐसा ही महत्वपूर्ण है। पैसे को विलासिता से लेकर न जाने किस किस काम में,व्यसनों में , अनाचारों में हम खर्च करते है। अगर उसको फिजूलखर्ची से हम बचा सके होते और उस धन को हमने किसी उपयोगी काम में लगाया होता तो भौतिक एवं आत्मिक उन्नति की दिशा में हम कहीं आगे बढ़ गये होते। अर्थ निग्रह, इंद्रिय निग्रह, मनोनिग्रह समय निग्रह इन चारों निग्रहों को हम करें तो संयमशील हो सकते है। हमको संयम बरतना चाहिए अस्वाद व्रत का ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना चाहिए मौन का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे-ऐसे असंख्य संयम है जिनको अपनाने से हम तपस्वी बनते है और अपनी शक्ति का बहुत बड़ा भाग बचा करके अच्छे काम में लगाते है।

चौथा कार्य सेवा का है। मनुष्य समाज का ऋणी है क्योंकि वह सामाजिक प्राणी है। भगवान ने उसको इसीलिए जन्म दिया है कि वह उसके इस विश्व उद्यान की सेवा करे। उसकी जीवात्मा का विकास और जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सेवा से बड़ा तप और सेवा से बड़ा पुण्य कुछ भी नहीं हो सकता। हमको सेवा करने के लिए समय निकालते रहना चाहिए। सारे का सारा समय अपने लिए ही न खर्च कर दें, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा करने के लिए भी कुछ लगायें। हमारा धर्म होना चाहिए कि हम अपनी शक्तियों का एक अंश दुखियारों के लिए और पीड़ितों के लिए पतितों के लिए लगायें। हमारे लिए सबसे बड़ा सेवा का कार्य क्या हो सकता है? ज्ञान यज्ञ से बड़ा कोई और दूसरा पुण्य नहीं हो सकता। इसको ब्रह्मदान भी कहा गया है। यह सर्वोत्तम धर्म है, क्योंकि ज्ञान -यज्ञ से हम मनुष्यों को दिशा दे सकते हैं जिससे वे बुराइयों से बच सकें और उन्नति के मार्ग ऊँचे उठ सकें। ज्ञान, विचारणा, भावना यही तो है शक्ति का अंश, इसलिए ब्राह्मण और साधु हमेशा से ज्ञान यज्ञ को ही सर्वोत्तम सेवा मान करके उसमें संलग्न रहे है और यह प्रयत्न करते रहें है कि हम स्वयं अच्छे बने और अपनी अच्छाई दूसरों पर बिखरें। इसके लिए हमको अंशदान करना चाहिए। सेवा के लिए हमको एक घंटा समय और दस पैसे नित्य का जो न्यूनतम कार्यक्रम दिया गया था ज्ञान यज्ञ विचार क्रांति के लिए, उस पर हमको मुस्तैदी से अमल करना चाहिए। कोई भी आदमी हममें से ऐसा न हो जो कि सेवा के लिए एक घंटा समय और दस पैसे जैसी न्यूनतम शर्त को पूरा न करता हो। इससे ज्यादा ही ‘हम करें’ ज्यादा ही उत्साह दिखायें।

हम केवल भौतिक जीवन ही न जियें। आध्यात्मिक जीवन भी जियें। हमारी क्षमताओं का उपयोग हमारे समय का उपयोग, पेट पालने तक ही सीमित न रहे , बल्कि लोक मंगल और लोकहित के लिए भी खर्च करें। इस तरीके से हम चार आधार जीवन में अपनाये रहकर के आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चल सकते है। अपना परिष्कार और परिवर्तन किया तो समाज का परिवर्तन और समाज का परिष्कार स्वाभाविक और सरल हो जायेगा। युग का परिवर्तन व्यक्ति के परिवर्तन और समाज के परिवर्तन के साथ जुड़ा हुआ है। अपनी छोटी सी प्रयोगशाला में हम इसी का प्रयोग करते है अपनी प्रयोगशाला में सम्मिलित रहने वाले-अपने परिवार में शामिल रहने वाले हर व्यक्ति से प्रार्थना करले है कि आप को आत्मिक उन्नति के लिए अभी बताए गए इन चार आधारों को मजबूती के साथ ग्रहण करना चाहिए और अपने दैनिक जीवन में समन्वित रखना चाहिए। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा दैनिक जीवन में न्यूनतम मात्रा में भले ही हों, पर सम्मिलित अवश्य और अनिवार्य रूप से रहने चाहिए।


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