दलदल से उबरें, जीवनोद्देश्य को जानें

May 1994

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स्रष्टा को निष्पक्ष, चयनकारी और सुनियोजक कहा गया है। उसने हर प्राणी को उसकी आवश्यकता के अनुरूप साधन उपलब्ध कराये हैं, पर देखा जाता है कि मनुष्य की शारीरिक संरचना और मानसिक विशेषता ऐसी है, जो अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं। इसका कारण कोई पक्षपात नहीं, वरन् यह है कि उसे विशेष उत्तरदायित्व सौंपे गये है। उन्हें ठीक तरह संपन्न कर सकने की दृष्टि से ही वह विशेषताएँ और विलक्षणताएँ उपलब्ध कराई गई है, जो असाधारण स्तर की है। इसका कारण एक ही है कि उसे सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के उपयुक्त बनाया गया है। निराकार होने के कारण भगवान उन प्रत्यक्ष क्रियाकलापों को कर नहीं पाते, जो संसार को श्रेष्ठ , समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाये रखने के लिए किये जाने आवश्यक है।

इस हेतु उसे एक सहायक की आवश्यकता पड़ी। राजाओं के युवराज यही करते हैं। मनुष्य ईश्वर का राजकुमार है। उसे इसलिए इतनी विभूतियों के साथ सृजा गया है कि वह एक कुशल माली की तरह उसके विश्व उद्यान को, उन सारी विभूतियों से भर दे, जिनका समुच्चय परमेश्वर का गौरव बना हुआ है। सरकारी अफसरों, सेनाध्यक्षों, कोषाध्यक्षों को विशेष साधन और अधिकार इसलिए दिये जाते हैं कि उनका उपयोग वे मात्र लोक हित के लिए करें। निजी निर्वाह के लिए उन्हें अलग से वेतन दिया जाता है। मनमर्जी का खर्च उसी सीमा तक किया जा सकता है। सरकारी साधनों को यदि वे जनहित की अपेक्षा मनमर्जी से अवाँछनीय प्रयोजनों के लिए उपयोग करने लगे, तो उन्हें पदच्युत भी किया जा सकता है।

सही मनोयोग, उत्साह और भावनापूर्वक काम करने वाले कर्मचारी पदोन्नति के अधिकारी बनते हैं। मनुष्य भी आत्म परिष्कार और लोकमंगल में निरत रह कर महामानव, देवपुरुष , ऋषि , मनीषी और जीवन-मुक्तों के समतुल्य गौरव भरे पुरस्कार के भाजन बनते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण , उज्ज्वल चरित्र और सेवा साधना से भरापूरा जीवन जीने वाले धरती के देवता जैसी स्थिति प्राप्त करते और अपने चारों ओर स्वर्ग बिखरा देखते हैं। यही जीवन का लक्ष्य और आनंद है। यह सब विभूति-वैभव उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो आदर्शों के लिए समर्पित रहकर धर्मधारणा और लोक साधना की गतिविधियाँ अपनाते हैं। यह उत्कर्ष, अभ्युदय प्राप्त कर सकना हर किसी के अपने वश की बात है। चौराहे पर खड़ा मनुष्य इच्छानुसार किसी भी मार्ग को अपना सकता है। नरक अथवा स्वर्ग की ओर चलने वाली किसी भी दिशा को वह अपना सकता है। इस चयन की छूट उसे पूरी तरह मिली हुई है।

निजी आवश्यकताएँ मनुष्य की इतनी स्वल्प है, कि उन्हें निताँत सरलतापूर्वक कुछ ही घंटों के श्रम से उपार्जित किया जा सकता है। हाथी , ऊँट , भैंसे जैसे पशुओं को तो बड़ी मात्रा में आहार चाहिए, पर मनुष्य का पेट आधा किलो अन्न से भर सकता है। तन ढकने को कपड़ा और सोने के लिए जमीन प्राप्त कर लेना भी इतना कठिन नहीं है, जिसे पूरा करने में समूची सामर्थ्य लगाने और जीवनोद्देश्य की पूर्ति करने में व्यस्तता का बहाना बनाना पड़े। सभी प्राणी अपने अन्य साथियों जैसी सुविधाएँ प्राप्त करके सुखी और संतुष्ट जीवन यापन कर लेते हैं, फिर मनुष्य के लिए ही ऐसी क्या आफत है कि उसे कुबेर जैसी संपदा और इंद्र जैसी प्रभुता चाहिए। औसत नागरिक स्तर स्वीकार कर लेते पर सादगी के साथ गुजारा भी हो सकता है और उत्कृष्टता को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त अवसर एवं अवकाश भी मिल सकता है। इसमें न कोई अवरोध है, न व्यवधान।

दुर्भाग्य केवल एक ही है कि पथभ्रष्ट मनुष्य उन महत्वाकाँक्षाओं के फेर में पड़ जाता है, जो दूर से देखने पर तो बड़ी मनमोहक मालूम पड़ती है, पर निकट आने पर विष दंश गड़ा कर सारा रक्त चूस जाती हैं। विलासिता , तृष्णा और दर्प प्रकट करने वाली अहंता का कुचक्र ऐसा है कि इनमें से एक भी गड़ी तिजोरी की तरह व्यक्ति को अकचकाकर रख देने के लिए पर्याप्त है, फिर यदि तीनों का ही आक्रमण चल पड़े , तो समझना चाहिए कि सन्निपात जैसी स्थिति बन गई और ऐसी लौह शृंखला में वह बँध गया , जिनसे छुटकारा पाना अति दुर्लभ हो जाता है।

कुछ पगले ऐसे भी देखें गये हैं जो दिनभर कूड़े-कचरे में से चमकदार चीजें बीनते और पीठ पर लादते रहते हैं , भले ही वे कितना ही निरर्थक या भारभूत क्यों न हों। लालची भी यही करते हैं। पैसे की रटंत एक प्रकार के उन्माद की तरह चढ़ी रहती है। उसकी तृप्ति के लिए अहिर्निशि व्यस्त रहना भी कम पड़ता है। इतना ही नहीं, अतृप्ति की आग को बुझाने के लिए अनाचार पर उतारू होकर वह ईंधन जुटाना पड़ता है जो संतोष तो दे ही कैसे सकेगा ? आग में तेल डालने से लौ निरंतर और अधिक , और अधिक के रूप में हाहाकार उत्पन्न करने वाला दावानल भड़का देती है।

उपयोग के लिए सीमा निर्धारित है। रोटी , कपड़ा और मकान की एक सीमा है उससे अधिक बटोरने पर वे भारभूत बन जाते हैं। संपन्नता संचय के पीछे पागल होकर सारा समय गँवा देने वाले भी उपयोग तो अन्यान्यों की तरह सीमित हो कर पाते हैं। बचत को फिर कभी के लिए जमा रखने की ललक में धनी बने व्यक्ति उसकी सुरक्षा और अभिवृद्धि के फेर में निरंतर चिंतित बने रहते हैं। संचय को लपकने के लिए अपने भी विराने हो जाते हैं। ईर्ष्या करते और नीचा दिखाने के लिए आक्रमण का कोई भी स्वरूप अपनाने के लिए षड्यंत्रों पर षड्यंत्र रचते रहते हैं।

लालची व्यक्ति की अनुदार निष्ठुरता संचय को किसी पुनीत कार्य में लगाने के लिए तो किसी प्रकार सहमत ही नहीं होती, फलतः दुर्व्यसनों, अपव्ययों और कुकृत्यों में ही उसे लगाना पड़ता है। कृपण का धन मुकदमें- बाजी, बीमारी आवारागर्दी, चापलूसी, ठगी जैसे छिद्रों से होकर गंदी नालियों में बह जाता है। मरते समय मात्र पश्चाताप और पाप ही सिर लद कर रह जाता है। हर किसी को मुट्ठी बाँधे आना और हाथ पसारे जाना पड़ता है- यह सोचना भी मूर्खतापूर्ण है कि उत्तराधिकारियों के लिए विपुल धन छोड़कर जाना, आराम की जिंदगी जीने की व्यवस्था बनाने में प्यार का प्रदर्शन है। होता उससे ठीक उलटा है। अमीरों की संतानें अकर्मण्य और दुर्व्यसनी बनती हैं। तीसरी पीढ़ी के लिए कुछ बचाता ही नहीं, इसलिए उन्हें दुर्गुणों से ग्रसित रहने के कारण भिखारी या अपराधी की जिंदगी जीनी पड़ती है। विपुल वैभव छोड़ मरने वाले स्वयं तो कोल्हू के बैल की तरह पिसते और पिसाते ही रहते हैं, जो छोड़ मरते हैं वह हराम का माल जिनके ऊपर भी लदता है, वे उससे सुख तो पा ही कैसे सकेंगे ? भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण की उसके बदले खरीदते और गये-गुजरे व्यक्तित्व के कारण तरह-तरह के त्रास ही सहते और देते रहते हैं। कृपणों की निष्ठुर संपदा अपने लिए, साथियों और वंशजों के लिए अनेकानेक विपत्तियों का कारण ही बनती है।

व्यामोह भी लालच की तरह दूसरा आत्मघात है। परिवार को सीमित रखा जाय, और परिजनों को सद्गुणी, सुसंस्कारी, स्वावलंबी बनाया जाय, तो समझना चाहिए कि उसने अपने कर्तव्य का पालन कर लिया , अन्यथा औलाद बढ़ाते चलना, अपने लिए अर्थ चिंता में डूबना, पत्नी का स्वास्थ्य चौपट करना, बालकों भविष्य अंधकारमय बनाना और देश को समस्याग्रस्त रहने के लिए विवश करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इन्हीं विपत्तियों को बढ़ाते चलने को लोग परिवार-पोषण कहते हैं और उन्हें आलसी-प्रमादी बनने के लिए उस पैसे को लुटाते रहते हैं, जो सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगकर विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों में लगाया जा सकता था।

तीसरी महत्वाकाँक्षा अपने को अधिक अमीर और चतुर प्रदर्शित करने के लिए उत्थित करने वाला अहंकार है, जिसमें अनेकों ठाट बाट, पाखंड और प्रपंच रचने पड़ते हैं, उद्धत और उद्दंड आचरण अपनाना पड़ता है। फिर भी लोग न तो उसकी धाक मानते हैं और न खुले मन से उसकी प्रशंसा करते हैं। अमीरी इन दिनों बेईमानी की पर्यायवाची बन चली है, निष्ठुरता का आरोप लगाती है और ईर्ष्या भड़काती है। ऐसा अहंकार किस काम का जो अपने समय , चिंतन और प्रयासों को उद्धत स्तर का बनाकर दूसरों को भर्त्सना करने का अवसर दे और अपने आप को असाधारण बनने के प्रपंच में फँसाकर हेय स्थिति में गिरा दे। फिर वह दुर्व्यसन खर्चीला भी तो बहुत पड़ता है। निरंतर जाल-जंजाल बुनते रहने के लिए उकसाता भी तो है।

देखा गया है कि विवेकहीन व्यक्ति लोभ, मोह और अहंकार के प्रदर्शन में अपनी समूची शक्ति गँवा देता है और जब जीवन लक्ष्य पूरा करने के लिए कुछ करने का स्मरण आता है, तब प्रतीत होता है कि भौतिक और आत्मिक संपदा का समूचा भाग तथाकथित महत्वाकाँक्षाएं कही जाने वाली तृष्णा की पूर्ति के लिए खप गया। अब व्यस्तता और अभाव-ग्रस्तता का बहाना बनाने के अतिरिक्त और कुछ शेष बचा ही नहीं, जिसके बदले पुण्य-परामर्श कमाया, सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म को सार्थक बनाया जा सके।

हथकड़ी के रूप में लोभ , बेड़ी के रूप में मोह और अहंकार के रूप में कैदी की तरह मुश्क बाँधने वाली लौह शृंखला के त्रिविध भव बंधनों में मनुष्य स्वेच्छा-पूर्वक बंधता है। इतना ही नहीं, उस कृत्य में निरत रहते को बुद्धिमानी मानकर शेखी और बघारता रहता है। पर यह विडंबना किसी के लिए भी सत्परिणाम उत्पन्न नहीं करती। सताने और रुलाने का कार्य ही यह कर पाती है और प्रपंची पिशाचिनियों की तरह उँगलियों पर नचाती, हँसाती, रुलाती है। जो पास में था, उसका पूरी तरह अपहरण ही करती रहती है। आश्चर्य है कि अपने को बुद्धिमान समझने और बताने वाले व्यक्ति भी उसी कुचक्र में फंसते, ईश्वर प्रदत्त दिव्य संपदा को बर्बाद करते रहते हैं। रोते-कलपते हाथ मलते, सिर धुनते अपनी प्रपंच लीला समाप्त करते हैं।

यही है भूल-भुलैया का तिलस्म, जिसमें प्रवेश कर जाने के बाद आगे का रास्ता दीखना ही समाप्त हो जाता है। यही है वह भव-बंधन जिसमें मुश्कें कसे कैदी की तरह निरंतर त्रास सहना पड़ता है। यही है वह भ्रम जंजाल जिसमें फँसा हुआ मनुष्य लाभ की बात सोचता और मात्र हानि उठाता रहता है।

स्रष्टा की उस आशा अपेक्षा का भी यह तिरस्कार है जिसने अपनी सर्वोपरि कलाकृति जीवन संपदा इसलिए प्रदान की थी कि उसमें हाथ बँटाने वाला युवराज अपनी विभूतियों का सदुपयोग करके स्वयं प्रसन्न रहेगा और उसे प्रसन्न करेगा। पर देखा जाता है कि भ्रम-जंजालों में फँसा मनुष्य अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने के अतिरिक्त और कुछ कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता। मृगतृष्णा में भटकते-भटकते प्यासे मरने वाले हिरन की तरह उसकी दुर्गति ही होती है। माया के बंधन इसी प्रचलन को कहते है। इसी को स्वेच्छापूर्वक वरण की गई आत्महत्या भी कह सकते हैं।

अनेकानेक कर्म काँडों के साथ जुड़ी हुई पूजा-अर्चा का प्रयोजन इतना ही है कि अंधकार के भटकाव से निकालने वाले उस प्रकाश की प्रति हो जो जीवन के सत्य और लक्ष्य का भान करा सके। जो निरंतर मिलते मरण के त्रास से जुड़कर मानवी गरिमा के अमृत का रसास्वादन करा सके। जो असत् से जुड़ी प्रीति की विपत्ति समझा सके और सत् के रूप में आत्म साक्षात्कार को उपलब्ध कराने के लिए इस जन्म धारण को कृतकृत्य बना सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए की गई आत्मिक पेकार को कण-कण में गुँजित करना और उसकी दिव्य प्रतिक्रिया की अनुभूति करना, यही है साधना का तत्वदर्शन और प्रयोजन। यदि वह बन पड़े तो तृप्ति-तृष्टि और शाँति की तीनों दिव्य विभूतियाँ हस्तगत होती हैं।

ईश्वर को न किसी के उपहार की आवश्यकता है, और न मनुहार की। वह इतना दरिद्र नहीं कि किसी के भोग-प्रसाद के बिना भूखा बैठा रहे। वह इतना ओछा भी नहीं है कि अपनी प्रसन्नता के लिए चापलूसों द्वारा किए गए गुणगान से प्रसन्न होकर उन्हें मन चाहे वरदान प्रदान कर सके। मनोकामनाओं की पूर्ति में उसकी कोई रुचि नहीं है। यह कार्य तो उसने मनुष्य को प्रखर प्रतिभा प्रदान करके पहले ही पूरा कर दिया है कि उत्कृष्ट प्रयोजनों के लिए , पुरुषार्थ करें और अभीष्ट उपलब्धियाँ सरलतापूर्वक उपार्जित करें। कर्तव्यों की उपेक्षा करते हुए मुफ्त में उचित-अनुचित वरदान पाने के लिए लालायित रहने वाले इस प्रयोजन के लिए गिड़गिड़ाने , नाक रगड़ने को ईश्वर के दरबार में भक्ति समझा जाता है न पूजा आराधना। ईश्वर तक पहुँचने और उसकी सहज अनुकंपा प्राप्त करने के लिए तो अपने ही दोनों चरणों को उठाते हुए उत्कर्ष के शिखरों तक अनवरत श्रम करते हुए पहुँचना पड़ता है। वे चरण हैं (1) आत्म परिष्कार (2) विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने के लिए किये गये पुण्य परमार्थ। आत्म कल्याण का , जीवन की सार्थकता का , ईश्वर की अजस्र अनुकंपा प्राप्त करने का सदा से यही मार्ग रहा है और यह अनंत काल तक चलता रहेगा भी। उन्हीं को अपनाकर परम-पद पाया जा सकता है तथा नर में नारायण प्रकट करने का सुयोग सौभाग्य पाया जा सकता है। यही है वह शाश्वत सत्य और सनातन राजमार्ग जिसे अपनाकर लोग इच्छित दिशा अपनाते और अपने लिए उत्थान या पतन का पथ प्रशस्त करते है। स्वर्ग और नरक में से किसी का भी स्वेच्छा-पूर्वक चयन कर सकना स्रष्टा ने पूरी तरह मनुष्य के अपने हाथ में दे रखा है। इसमें उसका कोई हस्तक्षेप नहीं। वह न किसी पर अनुकंपा बरसाता है, न निष्ठुर होता है, न उपेक्षा, शत्रुता जैसा अवाँछनीय हस्तक्षेप करता है। आत्मा, परमात्मा का ही छोटा अंश है। बूँद को पूरा अधिकार है कि वह दिशा अपनाए और महासागर में पहुँच कर उसी के रूप में अपनी स्थिति परिवर्तित करे। कोयले का परिष्कृत रूप हीरा है। मनुष्य जब अपने आप को कषाय-कल्मषों से मुक्त कर लेता है तो उसका वास्तविक स्वरूप निखरता और वह गरिमा उपलब्ध होती है, जिससे यह जन्म सार्थक और कृतकृत्य होता है।

सराहनीय बुद्धिमत्ता वह है जिसके आधार पर चिरस्थाई लाभ के लिए तात्कालिक छोटी सी हानि भी उठाली जाय। विद्यार्थी, पहलवान, किसान, व्यवसायी, आरंभिक दिनों में घाटा उठाते हैं उन्हें अपने श्रम और खर्च का तत्काल कोई प्रतिफल नहीं मिलता, पर समय आने पर लगाई गयी पूँजी सैकड़ों गुने सत्परिणाम लेकर वापस लौट आती है। इस नियति निर्धारण पर जिनका विश्वास है वे सत्प्रयोजनों में मुक्त हस्त से उदारता-पूर्वक अपना अनुदान नियोजित करते और हर दृष्टि से नफे में रहते हैं। इसके विपरीत जिनकी मान्यता यह है कि तुरन्त के लाभ को ही बस कुछ मानना चाहिए, वे जाल में फँसकर प्राण गँवाने वाली चिड़ियों और मछलियों की तरह मूर्ख बनते और कष्ट उठाते हैं इंद्रिय भोगों के लिए अतिशय आतुर व्यक्ति स्वाद तो कुछ क्षण ही चखते है, पर अपनी जीवनी शक्ति को बुरी तरह गँवाकर दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु के शिकार बनते हैं। आवारागर्दी में जीवन भी भटकने वाले दर-दर से दुत्कारें खाने वाले लोग वे ही होते हैं जिन्होंने वर्चस्व अभिवर्धन की कल्याणकारी राह छोड़कर आलस्य प्रमाद अपनाया, दुर्व्यसनों में समय गँवाया। कुसंग में पड़ कर कुमार्ग अपनाते और अनर्थकारी दल-दल में फँसते रहे, जिन्हें किसी भी कीमत पर तत्काल विपुल वैभव चाहिए उन्हें उस मक्खी का उदाहरण बनना पड़ता हैं, जिसने कढ़ाई भरी चासनी को एक बार में उदरस्थ कर लेने की ललक में आँखें मूँद कर कूद पड़ी थी और अपने पंख और पैर उसी में लिपट जाने के कारण बेमौत मरी थी।

लोभ-लिप्सा उसी सीमा तक उचित हो सकती है, जिस सीमा तक कि उससे शरीर निर्वाह की उचित आवश्यकताएँ पूरी होती रही। शेष तो अपने और अपनों के लिए अनर्थ हेतु कमाना है। जो उचित रीति-नीति अपना कर सीमित समय में , अधिक कमा सकता है। उनके लिए सही मार्ग एक ही है कि पीड़ा और पतन के निवारण में उस बचत को लगा दे जो लिप्सा और तृष्णा की पूर्ति के लिए अनावश्यक रूप से जमा की जा रही है, अथवा फुलझड़ी की तरह जला कर उस मौज मस्ती के लिए उड़ाई जा रही है जो अनर्थकारी परंपराएँ पैदा करती है। अपने को सताती और दूसरों को रुलाती है।

सुख संतोष और गर्व गौरव मात्र इस बात में केन्द्रीभूत है कि न्यूनतम में गुजारा करते हुए शेष बचत को उन प्रयोजनों के लिए नियोजित कर दिया जाय जिनके लिए कि यह मनुष्य जीवन का अलभ्य अवसर बड़ी आशाओं और अपेक्षाओं के साथ पवित्र धरोहर के रूप में दिया गया है। इससे कम में कोई विलासी अहंकारी मौज मस्ती के लिए कितना ही क्यों न कमा ले, निश्चित रूप से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में अवाँछनीयताएँ संचित करता है और उनके दुष्परिणाम निरंतर त्रास पाने के रूप में सहता रहता है। चिंतित खिन्न, उद्विग्न, रुष्ट , असंतुष्ट ऐसे ही लोग रहा करते हैं। जीवन का अपव्यय, सृष्टि का दोहन , विचारशीलों का तिरस्कार पाने में न जाने किन्हें क्या मजा आता है, जो कभी प्रपंच में निरंतर व्यस्त रह कर मानवोचित पुण्य-प्रयास करने में कतराते और चित्र-विचित्र समस्याओं को तिल का ताड़ बना कर श्रेष्ठता का परिपोषण न करने का बहाना बनाते रहते हैं।

जितने श्रम और मनोयोग औसत आदमी प्रपंचों में रस अनुभव करते हुए मरता-खपता रहता है, यदि उतना ही प्रयास जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया होता तो निश्चय ही बड़े परिणाम में ऐसा कुछ किया जा सकता था , जिससे अंतरात्मा इस जन्म में संतोष अनुभव करती, अनुकरणीय और अभिनंदनीय कृत्य कर पाती और परलोक की दृष्टि से अनंत काल तक सद्गति प्राप्त करते रहने की परम मंगलमयी परिस्थितियाँ प्राप्त करती रहती।

ढलाई से पहले धातुओं की गलाई करनी पड़ती है। स्रष्टा के सुख शाँति भरे ढाँचे में ढलने के लिए अपनी उन भ्राँतियों और दुष्प्रवृत्तियों को गलाना पड़ेगा जो इस सुरम्य संसार को खंदक-खाई और पाप पतन का आगार बना लेते हैं। इसी लिए आत्म-परिष्कार की आवश्यकता को सर्वोपरि महत्व की प्राथमिकता देने योग्य बताया गया है। अभ्युदय के सर्वांग सुँदर रंग में अपने को रँगने के लिए आवश्यक है कि मैले कपड़े को जिस प्रकार धो लिया जाता है, उसी प्रकार महानता की मंगलमयी परिस्थितियों को वरण करने के लिए उचित यही है कि उन भ्राँतियों से निपट लिया जाय जो निविड़ बंधनों में बाँधने वाली माया रूपी नागपाश में बाँधने वाली सर्पिणी कही जाती है। यह और कुछ नहीं सही को गलत और गलत को सही बनाने वाली भ्राँति है जिसके कारण रंगीन चश्मा पहन कर अपने को और संसार को अपने कल्पित रंग में रँगे हुए हम देख रहे हैं। अच्छा होता यह चश्मा उतार दिया जाता और दृश्यों को उस असली रूप में देखा होता जैसा कि वे वास्तव में है। भेड़ों के झुँड में पले सिंह शावक ने अपनी हैसियत को तभी जाना था जब उसे अपने असली स्वरूप का ज्ञान हुआ था। कस्तूरी मृग जिस सुगंध के लिए व्याकुल होकर अनेक दिशाओं में दौड़ता , थकता और निराशा से ग्रसित होकर बेमौत मरता है। हम सुख की तलाश में वासना, तृष्णा और अहंता की तृप्ति करने के लिए अथक श्रम करते और असह्य भार ढोते हैं। आश्चर्य यह है कि नाली के कीड़ों की तरह इस हेय स्थिति से उबरने के लिए साहस दिखाना तो दूर , विचार करने तक की आवश्यकता नहीं समझते हैं। समझदार कहे जाने और उस पर अभिमान करने वाले मनुष्य की यह कितनी बड़ी नासमझी है कि वह अपने स्वरूप, दायित्व और लक्ष्य से अनजान बन कर सतत् भटकता रहता है। इस भटकन से मुक्ति ही इस जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। इसी के निमित्त अध्यात्म का समूचा सरंजाम है।


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