गायत्री महासत्ता का सुरक्षा कवच

May 1994

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भगवान। मुझे भय बहुत लगता है। महर्षि का दर्शन करने आए थे महाराज दिव्य भद्र और उनके साथ ही आयी थी राजकुमारी। जब पिता महर्षि से विदा होने की अनुमति लेने लगे तो उस बालिका ने ऋषि के पदों में मस्तक झुकाकर प्रार्थना की।

बालिकाओं के लिए भीरु होना अस्वाभाविक नहीं है। ऋषि ने अंजली बाँधे , मस्तक झुकाए सामने खड़ी उस दस वर्ष की बच्ची की ओर देखा।

सब मेरा उपहास करते हैं। मुझे तो एकाकी कक्ष में दिन में जाते भी भय लगता है। उस राज कन्या के विशाल निर्मल नेत्र भर आये और अरुण , सुकुमार अधर काँपने लगे-

भैया कहते है कि मैं उनके उपयुक्त बहिन नहीं हूँ। जब भय लगे माँ गायत्री का स्मरण कर लिया करो। महर्षि ने सहज भाव से कह दिया।

यह अतिशय चपल हैं। महाराज ने अपनी कन्या की कठिनाई सूचित की। कुछ काल एक स्थान पर तो इसका शरीर स्थिर नहीं रह पाता। इधर से उधर फुदकती फिरती है। इसका मन कैसे स्मरण में लगेगा। नहीं यह बात नहीं है। बच्ची ने भोलेपन से कहा माँ कहती है...... कहते - कहते कुछ अटक सी गई। क्या कहती है तुम्हारी माँ, कहो - कहो। महर्षि उसे उत्साहित करते हुए बोले। कहती हैं स्त्रियों को गायत्री नहीं जपनी चाहिए। बालिका ने सकुचाते, झिझकते अपना वाक्य पूरा किया।

नहीं बेटी ऐसी बात नहीं है। प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले - कन्या और पुत्र दोनों की माता की प्राणप्रिय संतान हैं। भला माँ अपने बच्चों में कहीं भेद भाव करती है। स्त्रियों का गायत्री अधिकार तो पुरुषों से भी पहले है। मातृ जाति भला जगत् माता की उपासना से वंचित क्यों रहेगी ?

भोली बालिका की समझ में बात आ गई। वह प्रसन्न मन से नियमित गायत्री उपासना करने लगी। शीघ्र ही उसका भय जाता रहा। मन में उत्साह और हलकापन आ गया। आँखों में प्रसन्नता की ज्योति झलकने लगी। समूचा जीवन प्रसन्नता की हिलोर बनने लगा।

एक दिन राजकन्या अपनी सहेलियों के साथ राजोद्यान भ्रमण करने निकली थी। अभी थोड़ी ही देर हुई होगी तभी राजकुमार चंडबाहु का संदेश उन्हें मिला। राजकुमार आज अपने रथ से गुप्त रूप से अंग नरेश की राजधानी गए थे। अंग राज महाराज दिव्यभद्र से उनके पिता की शत्रुता है। किंतु कामुकता तो यह सब नहीं देखती। जब से अंग राजकुमारी पर श्री जगन्नाथ की रथयात्रा समारोह में दृष्टि पड़ी , राजकुमार उन्हें किसी प्रकार भूल नहीं पाते। अपने गुप्तचरों की सूचना के अनुसार राजोद्यान में राजकन्या के सम्मुख अकस्मात् उपस्थित होकर उसके चकित कर देने में वे सफल हो गए थे।

अनार्योचित कर्म है यह। राजकन्या ने तुच्छ सेवक की भाँति उसे झिड़क दिया-लज्जा आनी चाहिए आपको। तत्काल आप चले नहीं जाते तो भैया मणिभद्र की गदा के पारुष्य से परिचित होना पड़ेगा और अंडग राज्य का कारागार आपका आतिथ्य करेगा।

राजकन्या ने सचमुच सहेली को सूचना देने भेज दिया था। सिर पर पैर रखकर राजकुमार को भागना पड़ा। इतना तिरस्कार, जीवन में अपमानित होने का प्रथम अवसर था। राजकुमार क्रोध से उन्मत्त हो उठे- इस अभिमानों को अपने पैरों पर डालकर रहना है। संकल्प कर लेना सरल है, किन्तु उसकी पूर्ति के साधन सोचने लगे तो हृदय बैठ गया। नाम मात्र का राज्य है उनका। अंडगं नरेश से युद्ध की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अडग युवराज मणिभद्र से द्वन्द्व करने जायँ तो उपचार के लिए भवन भी लौट सकेंगे- कम संभावना है। अंत्तः राजकुमार को कुलेश्वर कौलिक का स्मरण हो आया।

भयावह अंधकार, घोर श्मशान भूमि, उल्लुओं की कभी-कभी कर्णभेदी ध्वनि तथा शृंगालों का शब्द, किन्तु क्रोध एवं क्षेम के आवेश में राजकुमार ने इधर ध्यान ही नहीं दिया था। वे सीधे चलते गए।

जलकर चिता की लपटें शाँत हो चुकी थी, परंतु अंगारों का धूमिल प्रकाश था। कृष्णवर्ण , दीर्घ अवभूत कुलेश्वर कौतिक जैसे शीतकाल की रात्रि में धूनी के समीप पड़े हों, इस प्रकार उस चिता के पार्श्व में भूमि पर पड़े थे।

तू -काम क्षुब्ध आया है। अवधूत ने अपने पदों में प्रणत, हिचकियाँ भरते राजकुमार को तथा उनके द्वारा लाए गए महापूजा के उपकरणों को सहज भाव से देखा।

भगवन्। महापूजा के उपकरण समीप रखकर राजकुमार चंडबाहु दंडवत् प्रणिपात करते भूमि पर पड़े थे। रात्रि के अंधकार में उनके अश्रु भले न देखे जा सके, उनके भरे कंठ के स्वर टूट रहे थे- आपके अतिरिक्त और कोई मुझे अवलंब नहीं दे सकता।

निगम के साधक कामना को निर्मूल करके परिपूत होते हैं और आगम कामना का केंद्रीकरण करके परिपूत होते हैं और आगम कामना का केंद्रीकरण करके उसमें आत्माहुति देने का आह्वान करता है। अवधूत अपनी मस्ती में बोलने लगे- शुद्ध सच्चिदानंद ही महाशक्ति की गोद में -सत्य, रज, तुम होकर प्रतिफलित होता है। महर्षि भित चित् का साक्षात्कार करते हैं आत्म रूप में और कुलेश्वर रजोगण की ख्रम परिणति में आत्माहुति करके शिवोडहं कहता है। भित और कुलेश्वर का कंठ ही व्यक्त कर सकता था। सत्वशरीर भित को तो सौम्यता प्राप्त हुई इस जीवन में।

तू यह सब समझेगा नहीं। अचानक बोलते-बोलते अवधूत चुप हो गए। राजकुमार की और दो क्षण देखकर फिर बोले- तुझे सिद्ध आकर्षण चाहिए। श्रद्धा और संयम सर्वत्र साधना में अनिवार्य है, किंतु तंत्र के साधक में लोकोत्तर साहस भी चाहिए। संपूर्ण ब्रह्मांड विस्फुरित हो जाए तो भी साधक का आसन अविचल रहे-कर सकेगा ?

कर सकूँगा। दृढ़ स्वर राजकुमार ने स्वीकार किया। अहंकार का औद्धत्य अवधूत ने अट्टहास किया।

कोई क्षति नहीं होती शरीरों के शीर्ण होने से। काली का ग्रास है यह देह और तू शाश्वत है। गायत्री से संघर्ष करने चला है तू। महामाया की इच्छा..........।

अवधूत के प्रलाप को राजकुमार ने नहीं समझा, किंतु अपने को उन्होंने हुतार्थ माना, क्योंकि अवधूत ने उन्हें आकर्षण प्रयोग की संपूर्ण विधि समझा दी थी और वे गर्व कर सकते थे कि कुलेश्वर कौल जैसे महासिद्ध ने मंत्र दान किया था उन्हें।

क्या है ? राजकुमारी ने इधर-उधर देखा। अकस्मात् उनकी निद्रा भंग हो गयी थी। कक्ष में मंद प्रकाश था और उनकी सहेलियाँ उनके समीप ही शाँत सो रही थी। आखिर वह क्यों जाग गई ? उसकी निद्रा में विघ्न कैसे पड़ा ? आज उसे भय क्यों लग रहा है?

महर्षि भित ने आज से छः वर्ष पूर्व उसे भय निवारण का उपाय बतलाया था- माँ गायत्री का ध्यान तो अब उसका जीवन बन गया है। जब वह आखेट में अपने अग्रज के साथ अश्रावरुढ होकर निकलती है , बचपन में उसका उपहास करने वाले बड़े भाई मणिभद्र अब कहते हैं- अंग राजकुल की यशोमूर्ति है मेरी अनुजा और आज रात्रि में यह भय अकारण भय उसी राजकुमारी को ? अपनी श्य्या पर ही वह बैठ गई और मंद स्वर में स्तवन करने लगी- वर्णास्त्र कुँडिका हस्ताँ शुद्ध निर्मल ज्योतिषीम्। सर्वत्तवमयी वंदे गायत्रीं वेदमातरम्।

लगा सारा कक्ष स्निग्ध चंद्रिका से परिपूर्ण हो गया है। माँ गायत्री स्वयं आविर्भूत हो गयी हैं और उनसे झर रही है वह स्निग्ध, उज्ज्वल असीम वात्सल्य धारा के रूप में एक शुभ्र ज्योत्सना। राजकन्या ने अपना मस्तक झुकाया और उसे कुछ ऐसा मधुर आलस्य आया कि वह शय्या पर पुनः लुढ़क कर गाढ़ निद्रा में मग्न हो गई।

वह रात्रि भी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की। महारात्रि का मुहूर्त जाग्रत करने राजकुमार चंडबाहु श्मशान में बैठा था। आज अपना आकर्षण प्रयोग संपूर्ण करके ही आसन से उठेगा। इसी रात्रि में इसी श्मशान भूमि में - अभिमानिनी आंग राजकन्या उसके चरणों पर गिरेगी।

‘ठं ठाँ ठूँ वौषट’ अत्यंत कर्कश किंतु दृढ़ स्वर गूंज रहा है श्मशान की नीरवता में। प्रज्वलित चिता में पड़ी पीली सरसों की आहुतियों की गंध वायु में भरी है। नीलवसन रक्त चंदन चर्चित देह राजकुमार सरसों के साथ अपराजिता के पुष्पों की अनवरत आहुति चिताग्रि में डाले जा रहा है।

‘कंकाल देह प्रकट हुए, चिल्लाए नृत्य करते रहे और स्थित खड़े हो गए। शतशः अदृश्य नागों की फुंसकार वायु में उठी और लीन हो गई। ज्वालाएँ स्थान-स्थान पर धधकी, वहीं बुझ गयीं। राजकुमार अविचल रहा, निष्कंप रहा और उसका स्वर स्थिर रहा - ठं ठाँ ठूँ वौषट्।

राजकुमार तब भी निष्कंप रहा जब साक्षात् चामुंडा, श्मशान कालिका, नीलवसना, कराल द्रंष्ट, कपालभालिका अट्टहास करती चिताग्रि से बाहर ऐसे कूद पड़ी जैसे साधक के मस्तक पर ही कूद जाएगी।

ठं ठा ठूँ बौषट्। आनय ताँ ....। अचानक संपूर्ण गगन में जैसे प्रलयाग्रि प्रकट हो गयी। प्रचंड प्रकाश आकाश में आया और चामुँडा श्मशान कालिका ने अपने केश नोच लिए। उसके शरीर कका नीलाँबर वसन भस्म हो गया क्षणार्ध में। ठं। एक अकल्पनीय दारुण शब्द - संपूर्ण ब्रह्माँड जैसे चूर्ण-विचूर्ण हो गया हो, ऐसा विकराल - विकट विस्फोट।

आज विज्ञान की कृपा से परमाणु विस्फोट की भयंकरता का हम सबके अनुमान है। विश्व के मूल में जो मातृका बीज है, उन बीजाक्षरों में किसी का विस्फोट हो जाये तो सृष्टि का कहीं पता न चले। यह तो सर्वेश्वर की महिमा है कि बीजाक्षरों का विस्फोट सदा साधक में व्यष्टि में होता है।

“ठं” बीज का राजकुमार के मस्तिष्क में माँ गायत्री के के स्मरणाघात् से विस्फोट हो गया। राजकुमार उस दिन से एक असाध्य उन्माद से ग्रसित हो गया वह अकस्मात् दौड़ता भागता वस्त्र नोंचता और “ठं” का आर्तनाद करके मूर्छित हो जाया करता था।

तांत्रिकों के समुदाय में तब से यह सुना जाने लगा कि उसी समय, से आकर्षण के अभिसार के लिए चामुँडा श्मशान कालिका का अनुष्ठान आरंभ करते ही वह उन्मादिनी हो उठती है और साधक को ही अपना शिकार बना लेती है। यह सब गायत्री महाशक्ति की साधना का ही प्रताप था।


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