प्रजायोगः एक युगानुकूल साधना प्रयोग

May 1994

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कोई समय था जब परिवार के दायित्व स्वल्प थे। निर्वाह साधनों की कमी न थी। जीवन चर्या भी बिना चिंता आकांक्षा के हँसी-खुशी से चलती थी। समस्याएँ, कठिनाइयाँ और उलझने भी न थीं। उस मनःस्थिति और परिस्थिति में एकाँत एकाग्रता सहज उपलब्ध होती थी और लोग लंबे समय तक तप, योग, अनुष्ठान, स्वाध्याय जैसे प्रयोजनों में तत्परता और तन्मयता के साथ लंबे समय तक लगे रहते थे। न किसी को व्यस्तता थी और न अभावग्रस्तता, चिंता, आशंका की कठिनाई। वह समय अनेकानेक साधनाएँ देर तक करते रहने के लिए उपयुक्त रहा होगा। पर अब तो परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आत्मपरिष्कार के आधार भी आवश्यक हो गये हैं जो पहले हस्तगत रहते थे।

सामयिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए सर्वसाधारण के लिए ऐसी क्रिया-प्रक्रिया का निर्धारण करना जरूरी है, जो सर्वसुलभ, समय के अनुरूप और पुरातन लक्ष्य की उपलब्धि करा सकने में समर्थ हो। यही है “प्रज्ञायोग“। इस अनास्था युग में ऋतम्भरा प्रज्ञा की-दूरदर्शी विवेकशीलता की महती आवश्यकता प्रतीत होती है। इसलिए इन दिनों उपासना का लक्ष्य प्रज्ञा को बनाना ही समीचीन है। यों गायत्री महामंत्र के रूप में उसकी अभ्यर्थना आदि काल से होती आयी है।

योग कहते हैं जोड़ने को वैयक्तिक अस्तित्व को उत्कृष्ट आदर्शवादिता को जोड़ने का तत्वदर्शन एवं व्यवहारिक स्वरूप है। यों आत्मा और परमात्मा के मिलन को योग कहते है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप भी निराकार है। परमात्मा सत्ता भी तत्वतः उसी स्तर की है। आत्मा शरीर ओढ़ कर जिस प्रकार आवश्यकतानुसार शरीरधारी बन जाती है उसी प्रकार निराकार परमात्मा भी आवश्यकतानुसार देवमानवों के रूप में प्रकट और लुप्त होता रहता है। दैवी शक्तियों में भी उसकी झाँकी होती रहती है। फिर भी वह व्यापक होने के कारण है निराकार ही।

ऐसी दशा में आत्मा और परमात्मा का मिलन दो व्यक्तियों के दृश्य सम्मिलन जैसा नहीं हो सकता। हो भी तो वह क्षणिक रहेगा। शाश्वत और सुनिश्चित मिलन तो भावनाओं के रूप में ही हो सकता है। संवेदनाओं, आकाँक्षाओं, आस्थाओं, विचारधाराओं और क्रियाकलापों में इसकी झाँकी मिल सकती है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन वस्तुतः बन पड़ा या नहीं।

प्रज्ञायोग को श्रद्धा और विवेक का ज्ञान और कर्म का-मनुष्य और देव का समन्वय कह सकते हैं। यह कोई घटना नहीं, दृश्य भी नहीं, कृत्य भी नहीं। भावना क्षेत्र की एक विशिष्ट उपलब्धि है। उसे प्राप्त करने के लिए जो कृत्य करने पड़ते है। यही है प्रज्ञायोग का उपलब्धियाँ विभूतियाँ हस्तगत करने की क्रिया प्रक्रिया। ज्ञान से कर्म न बन पड़ता है और कर्म से ज्ञान की अभिवृद्धि होती है। दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है।

एक दिन को अन्य जन्म मानकर चिंतन और कृत्यों में कुछ उच्चस्तरीय तत्वों का श्रेष्ठता का समावेश किये रहने की यह प्रक्रिया है। उस दिशा में धकेलने के लिए कृत्य है। उस आधार पर उत्पन्न हुई गतिशीलता को क्रियान्वित होते रहने के लिए उपलब्ध उत्तेजना को गतिशील बनाये रहना बन पड़े तो ही समझना चाहिए कि प्रज्ञायोग का मूलभूत उद्देश्य समझा गया और उससे समुचित लाभ उठाने का मार्ग समझ लिया गया। यदि ऐसा निर्धारण न हो तो इसे भी अन्यान्य चिन्ह पूजाओं में से एक ही कहा जायेगा।


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