वार्धक्य को गरिमा युक्त बनाया जा सकता है

May 1994

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वृद्धावस्था की परेशानियों को देख-रेख कर मनुष्य का ऐसा विश्वास हो चला है कि वह एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई समाधान, कोई औषधि हैं नहीं। सामान्य जीवन में जैसे की केशों पर सफेद रंग चढ़ने लगा,चेहरे पर त्वचा सिकुड़ने लगी निराशा और भय की लहर रह-रह कर कौंधने लगती है। किंतु विज्ञ जनों के अनुभव ऐसी कष्टकारक है नहीं केवल जीवन को आधे मूल्यों पर स्थापित कर देने के कारण ही यह दुरावस्था चुनौती बनकर आई है अन्यथा सही तरीके से जीवन को ढाला जाय तो बुढ़ापा मनुष्य के अस्तित्व का शृंगार करने में समर्थ है। चिंतन-चरित्र में चमक पैदा करने की स्वर्णिम स्थिति है। अगर उसे यों ही तृष्णा और निराशा से भरे क्षणों में व्यतीत किया जाता है तब तो यह निश्चित रूप से रोग और शोक का युग्म ही बन जाता है। मानसिकता पथभ्रष्ट हो जाती है। विशेष रूप से इस अवस्था में वाइटल एनर्जी का भारी मात्रा में क्षरण होता है।

इन दिनों की परिस्थितियों में बुढ़ापा बोझ जैसा बन गया है। अनेक रोगों की उत्पत्ति और उनके कसते शिकंजों से मन पर भय का अवतरण सा छाया रहता है। कर्मेंद्रियां और ज्ञानेन्द्रियाँ भी अपनी क्षमता में ह्रास अनुभव करने लगती हैं। प्रायः लोग खीज और दुःख से भरे दिखाई देते हैं लगता है इसी दुरावस्था को देखकर ही दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा है कि “मनुष्य के लिए सबसे अच्छी बात तो यही हो सकती थी कि वह यहाँ जन्म ही न लेता और दूसरी सर्वोत्तम बात यौवन में ही मरण हैं।”

मनुष्य प्राणि जगत में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं और सामर्थ्य भी अधिक रखता हैं। सबसे अधिक साधन और सुविधाएँ प्रकृति ने उसे ही प्रदान किये हैं। किंतु मनुष्य के लिए इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती हैं कि सब कुछ के रहते हुए भी दीन हीन अवस्था में अत्यन्त विवशता के साथ जीवन यापन करना पड़ता है। जीवन का वास्तविक सुख लेने की कला सीखी ही नहीं। जरावस्था तो हर प्राणि को अपने प्रभाव में लेती हैं। पर मनुष्य जैसी अवस्था में और किसी प्राणि को इस वार्धक्य पीड़ा से तपते हुए नहीं देखा जाता हैं। मनुष्य के लिए यह अवस्था कठोर प्रारब्ध का रूप धारण कर लेती हैं। इसमें त्रुटि किसी और कि नहीं स्वयं अपने आपके क्रियाकलापों और चिंतन वृत की हैं।

आग एक है, जो सर्दी से जीवन की रक्षा करती, भोजन पकाने से लेकर बड़े- बड़े कारखानों को चलाने तक का सारा कार्य अनवरत संपन्न करती चलती हैं किंतु किसी ना समझ के हाथ पहुँचकर एक छोटी सी चिनगारी ही भीषण अग्निकांड का रूप ले लेती हैं। औषधि विज्ञान का समूचा तंत्र उत्पादन से लेकर प्रयोग की विधाओं तक गहरी सूझबूझ की अपेक्षा के साथ पुष्पित पल्लवित होता हैं। आवश्यक क्रियाविधि का कुशलता से निर्वाह किये जाने पर यही औषधियाँ अभीष्ट परिणाम देती हैं और बड़े से बड़े रोगों को आसानी से ठीक करके आरोग्यता प्रदान करती हैं। इन्हीं के निर्माण और प्रयोग में मूर्खता का परिचय देने से प्राणघातक संकट उपस्थित हो जाता हैं जबकि कुशल और भैषज्य विद्या में निष्णात् विष के भी मारक प्रभावों को निरस्त करके जीवन रक्षक औषधियों जैसा लाभ उठाया करते हैं। इन सबके पीछे प्रयोक्ता की सूझबूझ का ही महत्व हैं जिससे शुभ और अशुभ लाभ और हानि, दुःख और हर्ष के प्रतिफल देखने को मिलते हैं।

ये समूची विशेषतायें मनुष्य की अपनी जागरुकता और दूरदर्शी विवेकशीलता से उपजती हैं। प्राकृतिक जीवनचर्या, सहयोग-सहकार की निश्चल प्रवृत्ति, प्रसन्नता, प्रफुल्लता का क्रम अपनाने वाले प्रायः बुढ़ापा भी युवकों जैसा व्यतीत करते हुए देखो जाते हैं। ढलती आयु में असाधारण उत्साह से परिपूरित देखे जाते हैं। ग्रेट ब्रिटेन के प्रधान मंत्री कहा करते थे “जवानी खिला हुआ फूल है तो बुढ़ापा पका हुआ मधुर फल।” एक रंगों की चित्र-विचित्रता का समूह दूसरा रस और गुणों का पुंज। दोनों की अपनी विशेषतायें हैं। ऐसा ही उनका उत्कृष्ट चिंतन और कार्यशैली थी जिसे चलते 60 वर्ष की आय में भी बच्चों जैसी निश्चिंतता और युवकों जैसी क्रियाशीलता में रत्तीभर भी गिरावट नहीं आई। मृत्यु पर्यंत शासन को अपनी सूझबूझ द्वारा परामर्श देते रहे।

वृद्धों के जीवन की समस्यायें अनेक प्रकार की गिनाई जाती हैं। शारीरिक अवयवों की क्षीणता, जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने के बाद आया मानसिक सूनापन, ये दो प्रमुख कारण हैं जिनसे और तरीके की भी छोड़ी-बड़ी समस्याएं जन्मती है और क्लेश को दिनोंदिन बढ़ाती ह। इन्हीं पर सूझबूझ के साथ अंकुश लगाने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया जाय तो दुःखद परिस्थितियों से सुगमतापूर्वक बचाव हो जाता है इसमें संदेह बिल्कुल नहीं हैं।

जर्मनी के प्रसिद्ध चिकित्सक क्रिस्टोफ विल्हेल्स ह्याफलैंड ने वृद्धों की समस्याओं पर गहराई से अध्ययन किया था। उनने जो निष्कर्ष निकाले वे सार संक्षेप में यही हैं कि भावनात्मक आदतें ही बुढ़ापा की अशक्तता का आधार हैं। नौकरी में थे। बड़ी तनख्वाह बड़ा मान था। ढेरों नौकर चाकर मातहत कर्मचारी हुक्म बजाया करते थे। पत्नी, बच्चों, से जुड़ा सारा परिवार हमारा मुँह देखता था। आज इन सब से दूर किसी काम के रहे नहीं। कोई बात नहीं पूछता। क्या करूं कहाँ जाऊँ। इन्हीं सब ऊहापोहों में कुढ़ते रहने से जीवन का सारा सुख चैन छिन जाता है। वास्तव में इस प्रकार का चिंतन तो युवा अवस्था की उमंगों के लिए भी घातक की होता है। व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक अहंकारी बना देता है। अधिकार में बहुत सुख है पर कर्तव्य की महानता और उससे मिलने वाली शाँति की बराबरी कभी नहीं कर सकता। जैसे-जैसे अधिकार क्षेत्र की सीमा का ह्रास होने लगे उसी क्रम से कर्तव्य का क्षेत्र का फैलाते चलने पर इस तरह की दिक्कतें स्वयमेव दूर हो जाती हैं। उपासना, साधना, स्वाध्याय के सतत् अभ्यास और उसके अनुसार कार्यक्षेत्र में उतरने पर सफल और स्निग्ध जीवन की सुवास मिलने लगती हैं।

डॉ0 एच॰ डब्ल्यू हेर्गड ने तो वृद्धावस्था की अनेक कठिनाइयों का कारण काहिल-आलस्य बताया है। परिश्रम - शीलता के अभाव में शरीर की नस-नाड़ियाँ अपने अंदर संचित मलों को निकाल नहीं पाती। उससे भीतर ही भीतर अवयवों को क्षीण और बेकार बना देती हैं। भोजन ठीक से नहीं पचता, और न उससे पर्याप्त मात्रा में जीवन रस ही तैयार हो पाते हैं। कमजोर अवस्था में रोगों के आक्रमण होने लगते हैं। इनसे बचाव बचाव के लिए प्रारम्भ से ही यह मानकर चलना चाहिए कि संसार में आज तक कोई औषधि उपलब्ध नहीं जिसके द्वारा बुढ़ापे को टाला जा सके। सुयोगों की भी स्थिति बिना आधार के आकाश में लटकी नहीं होती है। इसके पीछे भी विगत जन्मों के या इस जन्म के पराक्रम पुरुषार्थ से संग्रहित पुण्य ही होते हैं। जिसने प्रीव से च्यवन को अश्विनीकुमारों का राजा ययाति को उनके पुत्र का अप्रतिम सहयोग मिल पाता है। प्रमादी तो सर्वत्र उपेक्षित ही होते हैं। इसलिए आलस्य और प्रमाद से वृद्धावस्था को बचाये रखने की हर संभव कोशिश ही सारगर्भित है। इसी से हँसती - हँसाती जिन्दगी का अनुपम अनुदान बरसाया जा सकता है। रोग-शोक जरा मृत्यु का भी गरिमायुक्त बनाया जा सकता है।

वृद्ध शब्द का अर्थ ही हैं वर्धनशील- विकासशील। महाभारत कहता हैं कि केवल आयु के बढ़ जाने से ही कोई वृद्ध नहीं हो जाता है। सेमल के फल की गाँठ बढ़ने पर भी सारहीन होने के कारण व्यर्थ है। छोटा और दुबला पतला वृक्ष भी यदि फलों के भार से लदा हैं तो उसे ही वृद्ध जानना चाहिए। इसका अर्थ यह हैं कि मनुष्य को अपने भीतर सद्गुणों के अभिवर्द्धन का अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञान और शक्ति के सतत् अभ्यास द्वारा बढ़ाने का ही प्रतिफल और अभिलाषा हैं जिसके चलते कठोपनिषद् का नचिकेता मृत्यु द्वारा दिये गये समस्त प्रलोभनों को ठुकरा देता हैं और सच्चे जीवन का वरदान माँगता हैं। सामान्य लोगों की सड़ी- गली जिन्दगी से वह पहले से ही सावधान हैं। तभी तो सुखप्रद जीवन का रास्ता चुनता हैं। जेनोफन के हर्क्यूलीज कथानक भी कुछ ऐसा ही अर्थ देता हैं। प्रेय और सुकृति अनेक प्रकार के सम्मोहनों के साथ दो कुमारियों के रूप में उपस्थित होते हैं। वहाँ पर हर्क्यूलीज ने भी दूरदर्शिता का ही परिचय दिया और प्रेय को छोड़कर सुवृत्ति को चुन लिया। जरा और मृत्यु के दुःखों और प्रताड़नाओं से छुटकारा पाने के लिए एक मात्र तरीका यही हैं कि मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझा जाय और प्रयत्न प्रारम्भ किया जाय। तब मनुष्य अजरा नदी को पार कर जायेगा और फिर बुढ़ापे के कष्टों को भोगने की स्थिति बनेगी ही नहीं। इसी बात को कौषीतकी उपनिषद् इस रूप में कहती है “विजराँ वायं नदीं प्रापत्, न वाऽयं जिगीष्यतीत।”

इस प्रकार देखते हैं कि योग्यता प्रतिभा एवं अनुभवों की दृष्टि से आयु का उत्तरार्ध बहुत महत्वपूर्ण है पर यही व्यर्थ की कुशंकाओं और भ्रांतियों में ही व्यतीत हो जाता हैं। आयु के अनुरूप अवयवों में अन्यान्य चिन्ह दिखाई देने लगते हैं। पर ये अशक्तता असमर्थता के संकेत नहीं है बल्कि आयु के अनुरूप क्रियाशीलता में परिवर्तन लाने के हैं। अब तक का जीवन पारिवारिक जीवन को सुखप्रद बनाने में व्यतीत हुआ हैं तो आगे का शेष समय आत्मनिर्माण लोक संग्रह जैसे उत्तमोत्तम कार्यों में सुनियोजित काने की बात सोची जाय। “मरने के लिए जीवन धारण करना उपयुक्त नहीं। मनुष्य की शोभा जीवन के लिए मरने में है।” छाँदोग्य उपनिषद् का यह सार वाक्य जिस दिन से जीवन अंग बन जायगा जरा और जीर्णता का दुःख मूलक प्रभाव स्वयमेव मिटता चला जायगा।


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