बाल ब्रह्मचारी दयानंद ने दो सांडों को आपस में लड़ते देखा। वे हटाये हट नहीं रहे थे। स्वामी जी ने दोनोँ के सींग दो हाथों से पकड़े और मरोड़कर दो दिशाओं में फेंक दिया। डर कर वे दोनों भाग खड़े हुए। ऐसी ही एक घटना और है।
स्वामी दयानंद शाहपुरा में निवास कर रहे थे। जहाँ वे ठहरे थे, उस मकान के निकट ही एक नयी कोठी बन रही थी। एक दिन अकस्मात् निर्माणाधीन भवन की छत टूट पड़ी। कई पुरुष उस खंडहर में बुरी तरह फँस गए। निकलने कोई रास्ता नजर आता नहीं था। केवल चिल्लाकर अपने जीवित होने की सूचना भर बाहर वालों को दे रहे थे। मलबे की स्थिति ऐसी बेतरतीब और खतरनाक थी कि दर्शकों में से किसी की हिम्मत निकट जाने की हो जाय तो बचाने वालों का साथ ही भीतर घिरे लोग भी भारी-भरकम दीवारों में पिस जा सकते हैं। तभी स्वामी जी भीड़ देखकर कुतूहलवश उस स्थान पर आ पहुँचे, वस्तुस्थिति की जानकारी होते ही वे आगे बढ़े और अपने एकाकी भुजा बल से उस विशाल शिला को हटा दिया, जिसके नीचे लोग दब गये थे।
आसपास एकत्रित लोग शारीरिक शक्ति का परिचय पाकर उनकी जयकार करने लगे। उनने सबको शाँत करके समझाया कि यह शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए आप लोगों को नहीं दिखायी है। संयम की साधना करने वाला हर मनुष्य अपने में इससे भी विलक्षण शक्तियों का विकास कर सकता है।