संसार के सभी महान धर्मग्रन्थ देश काल की सीमा में अवरुद्ध नहीं, वे इनसे परे है। भगवद् गीता ऐसा ही एक महान ग्रन्थ है। इसके उपदेश किसी जाति विशेष या देश विशेष के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज के लिए हैं। इसकी शिक्षाएँ सर्वकालिक, सार्वदेशिक हैं।
ऐसे महान ग्रन्थ के अध्ययन में हमारा उद्देश्य मात्र पाँडित्य-पूर्ण या शास्त्रीय आलोचना नहीं होना चाहिए। नहीं नैयायिकों की तरह इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर कसना। वस्तुतः हमारा उद्देश्य इस हान ग्रन्थ के पास साहाय्य और प्रकाश पाना हो। हमारा हेतु इससे, इसमें से सच्चा अभिप्राय और जीता-जागता संदेश पाना हो। हम इससे वह चीज पाएँ जिससे हम अपनी पूर्णता और उच्चतम आध्यात्मिक अभितव्यता का आधार बना सकें।
इस सार्वभौमिक ग्रन्थ की शिक्षा एकाँगी नहीं है, जैसा कि कुछ विचारकों ने अपने मत के प्रतिपादन हेतु सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसके किसी खास-पहलू या श्लोक को लेकर उसी से आगे बढ़कर बाकी अठारह अध्याय को किनारे रखकर उन्हें गौण या सहायक करार दे दिया है तथा गीता को मात्र अपने ही मत का बोधक या समर्थक मान लिया है।
कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्मयोग का प्रतिपादन है ही नहीं। वे इसकी शिक्षा को कर्म संन्यास के पूर्व की साधना मानते हैं। जहाँ-जहाँ से गीता के ही श्लोक चुनकर अपने मत को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। पर यदि निष्पक्ष होकर विचार करने का प्रयास किया जाय तो इस मत का आग्रह नहीं ठहरता। कारण कि ग्रन्थ में बार-बार कहा जा रहा है, कि अकर्म से कर्म उत्तम है। कर्म की श्रेष्ठता इस बात में है कि कामना का आंतरिक त्याग करके कर्म परम-पुरुष को अर्पण करना होता हैं।
अन्य लोगों में से कुछ का मानना है कि भक्ति मात्र उपदेश है। ये लोग गीता के अद्वैत तत्व की इस सब के साथ आत्मा के ब्रह्म में शाँत भाव से निवास करने की स्थिति को जो उच्च स्थान प्रदान किया गया है, उसकी अवहेलना करते हैं। निस्संदेह गीता में भक्ति तत्व पर जोर है, बार-बार इसे दुहराया गया है। इसमें पुरुषोत्तम सिद्धाँत को प्रतिष्ठापित करके यह सुस्पष्ट किया गया हैं कि भगवान पुरुषोत्तम है और वहीं है जिन्हें जगत के संबंध से ईश्वर कहते हैं। ये सब बड़े मार्कें की बातें है - मानों उसकी जान हैं। तथापि यह ईश्वर वह आत्मा है जिनमें संपूर्ण ज्ञान की परितृप्ति होती है, ये ही यज्ञ के प्रभु हैं, सब कर्म इन्हीं के पास तो जाते हैं और ये ही प्रेममय स्वामी हैं जिनमें भक्त हृदय प्रविष्ट होता है। वस्तुतः गीता इन तीनों ज्ञान, भक्ति, कर्म में समन्वय, संतुलन स्थापित करती है। कहीं ज्ञान पर जोर देती है, तो कहीं कर्म पर तो कहीं भक्ति पर इसका जोर तात्कालिक विचार प्रसंग से संबंध रखता है। इस अभिप्राय से नहीं कि इनमें से कोई श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। वस्तुतः जिन भगवान में ये तीनों मिलकर एक हो जाते हैं, वे ही परम पुरुष पुरुषोत्तम हैं।
पर आजकल पाश्चात्य विचारों से रँगे आधुनिक लोगों ने जब से गीता पर नजर उठाई, विचार करने का प्रयत्न किया है तब से लोगों का झुकाव ज्ञान तत्व, भक्ति तत्व को गौण मानकर, उसके कर्म विषयक आग्रह का लाभ उठाकर उसे कर्मयोग शास्त्र, कर्म विषयक सिद्धाँत मानने की ओर दिखाई देता है। निस्संदेह गीता कर्म योग शास्त्र है अवश्य पर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में परिसमाप्त होते हैं ; उन कर्मों का जो भक्ति प्रेरित हैं। यह उन कर्मों का शास्त्र कदापि नहीं जिन्हें आधुनिक मन, कर्म मान बैठा है, उन कर्मों का तो हरगिज नहीं जो अहंकार वश किए जाते हैं। फिर भी गीता के आधुनिक व्याख्याकार यह दिखाना चाहते है ; कि गीता में कर्म का आधुनिक आदर्श की ग्रहण किया गया है। कितने की विद्वान यह कहने लगे हैं कि निवृत्ति मार्ग तथा साधना में तत्पर शाँति कामियों का गीता विरोध करती है। और सामाजिक कर्तव्यों के निस्वार्थ भाव से करने के आदर्श का प्रतिपादन करती है। वस्तुतः इसमें स्पष्ट ही और उपरोक्त अर्थ ग्रहण करते हुए भी ऐसी कोई बात नहीं है। यह एक प्राचीन ग्रन्थ को अर्वाचीन बुद्धि से समझने का परिणाम है।
गीता मूलतः विशुद्ध अध्यात्मिक ग्रन्थ है। नीतिशास्त्र या आचार शास्त्र का नहीं। पर आधुनिकों की बुद्धि यूरोपीय संस्कृति से ग्रसित है। उन्होंने दार्शनिक आदर्शवाद और भक्ति के स्थान पर तथाकथित आदर्श समाज सेवा का भाव ला बिठाया है और ईश्वर को छुटकारा पा लिया। अथवा यों कहा जाय कि ईश्वर को केवल रवार की छुट्टी के लिए रख छोड़ा है। यद्यपि कर्म निष्ठ-परोपकार की मनुष्य जाति को सुखी करने की अभिलाषा संबंधी बातें बहुत उत्तम हैं। ये भागवत संकल्प का एक अंश ही है। और आज इनकी जरूरत भी है।
जबरदस्ती यह सिद्ध करने का प्रयत्न करना कि निःस्वार्थ अपने सामाजिक, पारिवारिक दायित्वों का पालन ही इसकी सर्वांगपूर्ण शिक्षा है ठीक नहीं है। क्या गीता, गौतम बुद्ध को समाधान दे सकती है कि उन्हें फिर से पत्नी और पति के पास भेज दें और शाक्य राज्य की बागडोर संभालने को कहें, ऐसा संभव नहीं। न यह परमहंस रामकृष्ण से कह सकती है कि तुम किसी पाठशाला में पंडित होकर रहो और निःस्वार्थ भाव से बच्चे पढ़ाया करो। न विवेकानंद को मजबूर कर सकती है कि तुम जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करो और इसके लिए वकालत, डाक्टरी या अखबार नवीसी का धंधा अपनाओ। इसकी शिक्षा तो दिव्य जीवन बिताने की है। यह एक मात्र परमात्मा का आश्रय ग्रहण करने को कहती है। बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत् प्राप्ति के साधनों में से एक है-साध्य नहीं।
आधुनिक टीकाकारों ने गीता के पहले तीन-चार अध्यायों पर ही जोर दिया है और इसे कर्मयोग के प्रतिपादन करने वाला शास्त्र बताकर इति कर दी है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन इसी वचन को ये लोग गीता का महावाक्य कहकर आमतौर से उद्धत करते हैं और बाकी के अध्याय और उनमें भरा उच्च तत्व-ज्ञान इनकी दृष्टि में गौण है। आधुनिक मन बुद्धि के लिए यह स्वाभाविक भी है। इसका कारण एक ही लगता है कि तात्विक गूढ़ बातों एवं अति दूरवर्ती आध्यात्मिक अनुसंधान की चेष्टाओं से यह बुद्धि घबराई है।
गीता का महावाक्य परम वचन क्या है इसे ढूँढ़ कर निकालना नहीं पड़ता। गीता स्वयं ही अपने अंतिम श्लोकों में उस दिव्य संगीत को झंकृत करती है।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। त्तप्रसादत्परा शान्ति स्थानं प्राप्स्यासि शारतम्॥ तथा अंत में सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज अर्थात् अपने हत्प्रदेश में स्थित भगवान की, सर्वभाव से शरण ले उन्हीं के प्रसाद से तू परा शान्ति और शाश्वत पद को प्राप्त करेगा। मैंने तुझे गुह्य से गुह्यतर ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूँ। मेरे मन वाला हो मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञ कर, और मेरा नमन पूजन कर तू निश्चित ही मेरे पास आयेगा क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सर्व धर्मों का परित्याग कर मुझ एक की शरण ले। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा। शोक मत कर।
गीता का समग्र प्रतिपादन अपने आप को तीन सोपानों में बाँट लेता है। जिन पर चढ़कर कर्म-मानव स्तर से दिव्य मानव स्तर तक पहुँच जाता है। प्रथम सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ रूप से कर्म करेगा, यह यज्ञ वह उन भगवान के लिए करेगा जो परम हैं, एक मात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अनुभव नहीं किया है। यह पहला सोपान है। दूसरा सोपान है मात्र फलेच्छा का ही त्याग नहीं अपितु कर्तापन का भी त्याग और यह अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्व है और सब कर्म विश्व शक्ति प्रकृति के हैं जो विषम, कर्ती और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को इस परम पुरुष को जान लेना जो प्रकृति के नियामक है प्रकृतिगत जीव उन्हीं को आँशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्परस्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं।
पहली सीढ़ी है कर्म योग, भगवत्प्राप्ति के लिए निष्काम कर्मों का यज्ञ, यहाँ गीता का जोर कर्म पर है। द्वितीय सोपान है ज्ञानयोग आत्मोपलब्धि आत्मा एवं जगत् के सत्यस्वरूप का ज्ञान यहाँ सारा जोर ज्ञान पर है। पर साथ ही साथ निष्काम कर्म भी चलता रहता हैं तृतीय सीढ़ी है भक्तियोग - परमात्मा की भगवान के रूप में उपासना और खोज यहाँ भक्ति पर जोर है पर ज्ञान भी गौण नहीं है। उसमें एक नई जान आ जाती है, कृतार्थ हो जाता है। फिर भी कर्मों का यज्ञ जारी रहता है। द्विविध धाराएँ यहाँ ज्ञान, कर्म, भक्ति की त्रिवेणी में परिवर्तित हो जाती है और यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है अर्थात् परम् सत्ता के साथ योग और परा भागवती प्रकृति के साथ एकत्व प्राप्त हो जाता है।
यही है गीता के उपदेश का सार मर्म जिसे अपनाकर धारण कर व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित कर मनुष्य आध्यात्म की चरम उपलब्धि अर्जित कर धन्य हो सकता है।