आदर्शवादी धारणा ही मानवी उत्कर्ष में सहायक

May 1994

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धारण का अर्थ होता है - अंतः करण की गहराई में धर्म धारणाओं की चिंतन धारा को गहराई तक स्थापित करना। देखा जाता है कि मनुष्य कटी पतंग की तरह हवा के झोंकों के साथ दिशा बदलता रहता है। शरीरगत वासनाएं और मनोगत तृष्णाएँ ही हर घड़ी सवार रहती हैं। उन्हीं की पूर्ति के लिए निरंतर ताना बाना बुनने में लगा रहता है। उन्हीं के लिए खटता पिसता रहता है कुछ सफलताएं विशेषताएँ उपलब्ध हुई तो अहमन्यता का भूत सवार होता है। दूसरों पर दर्प जमाने के लिए ठाट बाट रोपता और अपव्यय तथा आतंक की नीति अपना कर अपने को बड़ा सिद्ध करने के प्रयासों में लगा रहता है। इन्हीं विडंबनाओं में उलझते सुलझते जीवन का अंत हो जाता है।

जिनकी अपनी निजी धारणाओं में विवेक शीलता जुड़ी हुई है ऐसे कम ही लोग दीख पड़ते हैं। अधिकाँश तो लकीर के फकीर होते हैं। प्रचलनों की अनुकरण करते रहते हैं। कुरीतियाँ चाहे कितनी ही अहितकर और अनुपयुक्त क्यों न हो, सभी साथियों के द्वारा अपनाए जाने पर अपने लिए भी अनुकरण का विषय बन जाते है अनुकरण प्रियता बन जाते हैं। अनुकरण प्रियता मनुष्य का स्वभाव है पर इस क्षेत्र में भी यह सोचा जाना चाहिए कि किन्हें दृढ़ता - पूर्वक अपनाया जाय ? और किन्हें उथली दृष्टि से देखा और उपेक्षापूर्वक अपनाया जाय। जिन्हें महत्वपूर्ण माना जाय उन्हीं मान्यताओं के अनुरूप दृढ़ता - पूर्वक अपनाया जाय यह भी पूर्व निर्धारण के अभाव में ठीक तरह नहीं बन पड़ता। परिस्थितियों के अनुरूप सद्विचार ही नहीं आचरण भी बदलते रहते हैं। अवसरवादिता ही नीति बनकर रह जाती हैं। बेपेंदी के लोटे की तरह जहाँ भी जिस प्रकार भी स्वार्थ सिद्ध होता दीखता है उधर मुड़ लेते हैं। कुछ ही अच्छे आदमी अपने को बदल पाते हैं। वातावरण को अपने ढाँचे में ढाल सकने की मनस्विता तो किन्हीं विरलों में ही होती है। अधिकाँश परिस्थितियों के अनुरूप अपना मन बदलते रहते हैं तितली की तरह आकर्षण के प्रलोभन में इस फूल से से उस फूल पर उड़ते फिरते हैं। उनका अपना कोई लक्ष्य, निर्धारण या मंतव्य नहीं होता। इस प्रकार के व्यक्तियों की न कोई दिशा धारा होती है और न सुनिश्चित क्रिया पद्धति।

परिस्थितियाँ कही उन्हें हवा के झोंके की तरह जहाँ - तहाँ लिए फिरती हैं ऐसी दशा में न कोई महत्वपूर्ण कार्य नियमित रूप से करते बन पड़ता है और न किसी सराहनीय सफलता का श्रेय उन्हें मिल पता है।

प्रेरणाएँ अंतःकरण में उभरती हैं उन्हीं के आधार पर विचारणा काम करती है। योजना बन पड़ती है और इच्छा की पूर्ति करने के उद्देश्य से क्रिया चल पड़ती है। इसलिए इच्छाओं की पूर्ति की जीवन का स्वरूप बन कर रह जाती है। परिस्थितियों के साथ ताल मेल बिठा कर व्यक्ति स्वार्थ साधना के प्रयत्नों में लगे रहकर अपनी आयुष्य बिता देता है। उसके कोई जिन के उद्देश्य नहीं होते फलतः कुछ क्रम बढ़ रूप में करते धरते भी नहीं बन पड़ता है। इस स्थिति को एक प्रकार से निष्फल जीवन ही कह सकते हैं। जितनी महत्वपूर्ण क्षमताएँ उसे उपलब्ध हुई है। उसकी तुलना में शताँश भी वैसा कुछ नहीं होता जिस पर कि संतोष किया जा सके। उत्साह - पूर्वक जिसका उल्लेख हो सके।

इस उथले स्तर के जीवन यापन के पीछे एक ही कमी काम करती रही है वह है अंतःकरण में आदर्शवादी आस्थाओं का अभाव। यदि उपलब्धि सुरदुर्लभ अवसर का महत्व समझा जा सके और उसे महत्वपूर्ण कामों में लगाने का निर्धारण किया जा सके तो फिर आदर्शों की उत्कृष्टता से अंतराल को सराबोर करने की बात ही प्रमुखता से मन में आती है। इसके लिए उसी स्तर का स्वाध्याय, सत्संग, वातावरण एवं सहयोग तलाशना पड़ता है। इस घेरा बंदी से ही किसी उच्चस्तरीय दिशा धारा को दृढ़ता पूर्वक अपनाने का मन बनाता है। संकल्प उभरता है। मार्ग बनता है और उस पर दृढ़ता पूर्वक चल पड़ना संभव होता है। अन्यथा मन की चंचलता ही प्रधान बन कर रह जाती है। उस बंदर वृति से कौतुक कुतूहल ही होते रहते है। कुछ ऐसा नहीं बन पड़ता जिसे अनुकरणीय कहा जा सके, सराहा जा सके और उसका अनुकरण करके किसी के मन में उमंग उठ सके।

मनुष्य जीवन महान सृजेता की महान कलाकृति है। उसे पेट प्रजनन जैसे पशु प्रयोजनों में ज्यों-त्यों करके पूरा कर लेना ही वह कार्य नहीं है जिसे कर्म योग कहा गया है और जिसके द्वारा कर्म रत होते हुए भी चरम लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव हो सकना बताया गया है।

शारीरिक कृत्यों का स्वरूप दृष्टिगोचर तो होता है। प्रस्तुत की गयी घटनाओं का वर्णन होता है। पर पर्दा उठाकर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि घड़ी के अनेक पुर्जे जो एक दूसरे के सहयोग से कार्य रत हो रहे हैं; उसके पीछे फिनर वाली चाबी ही काम करती है। चाबी भरी होती है तो घड़ी के पुर्जे चलते रहते हैं। अन्यथा वे भावनाएं व्यापक प्रेरणा के अभाव में शिथिल पड़ते बंद हो जाते हैं। आगे धकेलने का जो काम फिनर वाली चाबी काम करती है उसी प्रयोजन की पूर्ति मानव जीवन में धार वालों, संकल्प वालों के द्वारा बन पड़ती है।

आदर्शवादी उन मान्यताओं को धर्मधारणा कहते हैं जो निश्चय से पूर्व तो उसकी गहराई पर गंभीरता- पूर्वक विचार करें। सभी शंका कुशंकाओं पर विचार कर लें। आगा पीछा सोच लें, किंतु जब निष्कर्ष निकाल ही लिया जाय तो उसे सुदृढ़ विश्वास के रूप में हृदयंगम का जाना चाहिए और उसकी पूर्ति के लिए जितना भी बन पड़े नित्य कुछ न कुछ करना चाहिए। विश्वासों को क्रिया से बल मिलता है। अन्यथा प्रयोजन में न आने वाले विचार कल्पना मात्र बन कर पक जाते हैं और प्रवाह के साथ जिधर से तिधर चले जाते हैं। स्थायित्व लाना हो, मंतव्य सुनिश्चित और सुदृढ़ करना हो तो आवश्यक है कि संकल्प को सदा ध्यान में रखा जाय और उन्हें कार्य रूप में परिणित करने का जो भी अवसर सामने आए उसे हाथ से न जाने दिया जाय। कर्तृत्व ही स्वभाव का अंग बन जाता है तो आदतें उस प्रकार के क्रिया कलाप के लिए अवकाश भी प्राप्त कर लेती है और अवसर भी निकाल लेती हैं।

व्यक्तित्व को विश्वास बनाते हैं। यों अधिकाँश लोग अनास्थावान होते हैं वे तार्किक दृष्टि से किसी भी विषय का धुंआ धार प्रतिपादन कर सकते हैं। पर जब उन्हीं सिद्धान्तों को निजी जीवन में कार्यान्वित करने का अवसर आता है तो अपने ही प्रतिपादनों को भूल जाते हैं, और वह करने लगते हैं, जिन्हें वकालत के उभार में स्वयं ही खंडन करते रहे हैं। मान्यताएं भावना क्षेत्र की गहराई में उगती हैं। पर वे चिरस्थायी रहती हैं। वस्तुतः जीवन में जो कुछ महत्वपूर्ण है वह सब आस्थाओं के ऊपर निर्भर है। अपने को उत्कृष्ट , निकृष्ट , दुर्बल, सबल मान बैठना अपने विश्वास के ऊपर ही अवलंबित है। मायावी जीवन जीने वाले घुमंत गाड़ी वाले अपने उस ढर्रे को अपनाए रहकर दूसरों की तुलना में कहीं अधिक कठिनाइयाँ भोगा करते हैं। पर वे सुविधा, साधन मिलने पर भी उस रीति-नीति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं उनका कहना है कि वे मेवाड़ के राणा की संतानें हैं और जब तक दिल्ली पर राणाओं का झंडा न फहराएगा तब तक इसी स्थिति में भ्रमण करते रहेंगे। यद्यपि अब उनके उस स्थान का कोई तात्पर्य नहीं रहा फिर भी विश्वास तो विश्वास जो रहा। कुमारियाँ अपना कौमार्य व्रत विधवाएं अपना वैधव्य इसी आधार पर भली प्रकार से निबाह लेती हैं। न्याय निष्ठ, परोपकारी, ईमानदारी स्तर के व्यक्ति अनेकों प्रतिकूलताओं और दबावों के आगे न झुक कर अपनी प्रतिभा पर आरुढ़ बने रहते हैं। प्रतिकूलताएं उन्हें उस व्रत से डिगा नहीं पाती।

धारणाएँ एवं आस्थाएँ तभी सराहनीय बनती हैं जब वे आदर्श-वाद के साथ जुड़ी हुई हों। अन्यथा दुर्व्यसनी भी हेय स्तर की मान्यताएँ बनाएँ रहते हैं। दुराग्रही भी यही करते रहते हैं। दीन-हीनों में से अनेक लोग उसे अपना भाग्य मान लेते हैं और उसमें सुधार लाने के प्रयत्न छोड़ बैठते हैं। धारणाएँ अंध विश्वास भरी भी हो सकती हैं पर जिन्हें अध्यात्म मार्ग में सहचर माना गया है वे आस्तिकतावादी अध्यात्मवादी और धर्मावलंबी मान्यताएँ ही हैं। इन्हीं के सहारे ऊँचा उठा और आगे बढ़ा जा सकता है।


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