जाग्रत जनशक्ति नव युग के सरंजाम खड़े करेगी

May 1994

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बहुमत की शक्ति चुनावों के समय वोट गणना के आधार पर देखी जा सकती है। किसी शासक समुदाय को पदच्युत करके दूसरे को सिंहासनारूढ़ कर दिखाना उसके बांये हाथ का खेल हैं। यही वह कामधेनु है जिसका चुल्लू भर दूध पीकर राजतंत्र धर्मतंत्र अर्थतन्त्र, कला तंत्र आदि को अपना निर्वाह क्रम चलाने का अवसर मिलता रहता है। इतना ही नहीं अनेकों विलास वैभव तथा कुरीतिपरका चित्र-विचित्र आडंबर अपना पोषण प्राप्त करते हैं। प्राप्त करने के तरीकों में दबाव, अनुरोध, आग्रह, छद्म फुसाना आदि कुछ भी क्यों न हो जो कुछ भव्यता इस संसार में दीख पड़ती है, वह आती इसी बहुमत से है। भले ही वह स्वयं गई गुजरी परिस्थितियों में पड़ा क्यों न दीख पड़ता हो।

जाग्रत इसी को करना है। तनकर खड़ा होने और उपयोगी दिशा अपनाने के लिए सहमत इसी को करना है। यदि उसे अपनी शक्ति का भान हो सके तो जामवंत के उद्बोधन पर हनुमान ने जो पौरुष कर दिखाया था, कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने जो चमत्कार दिखाया था, वह जन साधारण कहे जाने वाले लोगों में से प्रत्येक के लिए संभव हो सकता है। परमाणुओं की संरचना में विशेष अंतर नहीं होता। विभिन्न चटकों में अंतर एक ही देखा जाता है कि उनका नियोजन किस प्रकार बन पड़ा।

जनशक्ति के बिखराव को एक टोकरी में समेटना और उसके अवाँछनीय प्रयोजनों को निर्धारित लक्ष्य पर नियोजित करना, यदि यह दो कार्य बन पड़ें, तो समझना चाहिए कि समग्र-प्रगति की संभावना में कोई व्यवधान शेष नहीं रहा। जाग्रत और सुनियोजित सन्मार्ग पर गतिशील होने पर उसी के द्वारा वह सब कुछ संभव हो सकता है जिसके लिए संसार को बिलखते, तरसते देखा जाता है।

तिनके-तिनके मिलकर रस्सा और धागे मिलकर कपड़ा बना सकते हैं तो संगठित जनशक्ति के फलस्वरूप यदि अदम्य, अकूत और अजस्र शक्ति उभरे तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। आज तो हम जाति विरादरियों में, धर्म संप्रदायों में, प्राँतों में, भाषाओं में विभाजित है। नर−नारी के बीच दासी और मालिकी का रिश्ता उन्हें मिलकर संयुक्त शक्ति बन कर रहने नहीं दे रहा है। गरीबी-अमीरी का अंतर आये दिन ईर्ष्या , द्वेष, कलह, विग्रह और अपराध-टकराव बन कर उभरता रहता है। फलतः जनशक्ति जो उपलब्ध है, वह छितराकर अस्त−व्यस्त हो जाती है। जनशक्ति को उसके अंतराल में विद्यमान क्षमता से परिचित और उसे यह तथ्य हृदयंगम कराया जाना चाहिए कि अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल देने पर उसकी कैसी अद्भुत परिणति हो सकती है।

अवकाश नहीं कि कठिनाइयों से उबरने और समर्थता प्राप्त करने के लिए किन्हीं बाहरी अनुग्रहों, अनुदानों की अपेक्षा करते हुए निराश, निढाल होकर दीन-हीनों की तरह किंकर्तव्य विमूढ़ बैठे रहा जाय। फूटे घड़े का छेद रोक देने पर भार से उसमें भरा गया पानी शीतलता बनाये रह सकता है और उसमें कितनों की ही प्यास बुझ सकती है।

समय और श्रम मनुष्य का वास्तविक वैभव है। मनोयोग और उत्साह का समावेश हो जाने से उसमें और भी अधिक चार चाँद लग सकते हैं। यदि आलस्य और प्रमाद की रक्त चूसने वाली जोकों से बचा जा सके तो तत्परता और तन्मयता के आधार पर प्रगतिशीलता के अनोखे वरदान किसी को भी हस्तगत हो सकते है। यूरोप के थोड़े से लोगों ने अफ्रीका, अमेरिका , आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे महाद्वीपों की विशाल भूमि पर अधिकार जमा कर कुबेर जैसी संपदा और इंद्र जैसी शक्ति क्षमता अपने हाथों ही उपार्जित की। कोई भी व्यक्ति यदि आलस्य प्रमाद न बरते और उत्साह भरे पुरुषार्थ का दिशाबद्ध प्रयोग करे तो निश्चित रूप से वह प्रगतिशील साधन संपन्न बनने की स्थिति में पहुँच सकता है। इस तथ्य के अगणित उदाहरण हम अपने इर्द-गिर्द ही प्रचुर मात्रा में बिखरे देख सकते हैं।

इन दिनों उद्दंड आतंकवादी, अनाचारी अपने रौब से लोगों को दबाते ओर बाधित करते देखे जाते हैं। जाग्रत जनशक्ति में इस प्रकार की गुँजाइश कभी भी नहीं रहेगी। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के साथ मनुष्य की वरिष्ठता जुड़ेगी। सैनिक जैसा अनुशासन और संत जैसा समर्पण भाव हर किसी के व्यक्तित्व में उभरेगा और छलकेगा जाग्रत जन शक्ति के सही चिन्ह हैं। उसी के द्वारा नव सृजन की सभी आवश्यकताएँ पूरी होकर रहेंगी। परोक्ष सत्ता का यह सुनिश्चित आश्वासन है।


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