एक और शुनः शेप चाहिए

April 1992

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आषाढ़, श्रावण और यहाँ तक कि भाद्रपद भी बीतने को चला, पर जल की एक बूँद भी न गिरी । जेठ कब का गुजर चुका था, किन्तु उसकी तपन अब भी शेष थी । अन्न के कोठार खाली हो रहे थे । सूखे कण्ठ को तर करने के लिए न जल था, न बेतरह गर्मी से राहत पाने के लिए किंचित ठंडा पानी। कुएँ-बावड़ी, नदी-नाले सब शुष्क पड़े थे तिस पर अन्न का अभाव मानों कोढ़ में खाज उत्पन्न कर रहा था। इतनी विकट स्थिति में सर्वत्र हाहाकार मच रहा था। इसका उपाय क्या हो ? इससे निपटा कैसे जाय? बुद्धि निरुपाय हो रही थी समाधान के उसके सारे अस्त्र चुक चुके थे । उस तरकश में कोई अजेय पाशुपात आयुष भी तो न था, कि इस विषम परिस्थिति का मुकाबला किया जा सके हाय! तो क्या यह धरती जनशून्य बन जायेगी ! मनुष्य के बीज किसी मनु के पास सुरक्षित न रह पायेंगे ? वर्षों की कठिन साधना से उपजी यह साधना देखते-देखते समाप्त हो जायेगी-मनीषा संत्रस्त हो रही थी ।

भूख से बिलखते शिशु, बिलखते किशोर, निराहार तप का कठोर व्रत लिए युवक और तड़पते, प्राण त्यागते वृद्ध वातावरण को और भी गाँभीर्य प्रदान कर रहे थे। सबों के चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई थी। मरघट कर नीरवता घररों को और अधिक विकराल बना रही थी। रह-रह कर होने वाले नौनिहालों के क्रन्दन श्मशान में हुआ-हुआ करते शृंगालों की अनुभूति कराते थे। सर्वत्र गम के ही घटाटोप थे।

मुनि विश्वामित्र भी इनसे सर्वथा अछूते न थे । अपनी एकान्त कुटिया में बैठे गहन चिन्तन में निमग्न इसी विषय पर सोच रहे थे । क्षण-क्षण में उनके चेहरे के भाव बदल जाते, जिससे ऐसा प्रतीत होता कि ऋषि भी प्रस्तुत संकट के प्रति उतने ही चिंतित हैं, जितना जनसामान्य। कभी-कभी विचार उठते-तू क्यों वृधा परेशानी मोल ले रहा है ? किन्तु दूसरे ही पल उसके विपरीत विचारधारा हुँकारती सुनाई पड़ती तो तू क्या मौन दर्शक बना रहेगा? हाथ-पर-हाथ धर कर यों ही बैठा रहेगा? तेरी अन्तरात्मा तुझे धिक्कारती क्यों नहीं? समाज के सामने इतनी गम्भीर समस्या आ उपस्थित हुई है और तू अपनी ध्यान साधना के पीछे-अपने स्वार्थ एवं अपनी उन्नति के पीछे भाग रहा है- अपने निज की उन्नति के पीछे। नहीं इस तुच्छ प्रयोजन के लिए तू समाज का अंग है। उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता । अपने दायित्वों को तिलाँजलि नहीं दे सकता । इस संकट की घड़ी में समस्या का हल ढूंढ़ना ही तुम्हारी सबसे बड़ी साधना व सर्वोपरि लक्ष्य है। इन विपरीत विचार तरंगों से ऋषि तिलमिला उठे। बेचैनी उनके चेहरे पर स्पष्ट झाँकने लगी। निर्णय करने की बुद्धि जाती रही । वे दुविधा में ही पड़े थे कि आवाज पुनः गूंजी। तुम्हारा असमंजस अभी तक गया नहीं । उठ और हल की बात सोच ।

इस बार ऋषि के चेहरे में दृढ़ता झलक रही थी, कदाचित कर्तव्य बोध हो गया हो। हाँ बात ऐसी ही थी। एक बार पुनः उनके मुखमंडल के भाव तीव्रता से परिवर्तित होने लगे, पर इस बार निराकरण के प्रति चिंतित होने के कारण, किसी अन्य ऊहापोह के कारण नहीं। सहसा उनकी आँखों में चमक पैदा हुई । मन विचार आया कि इस समस्या का समाधान हो सकता है-यदि वरुण देवता की पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया जा सके । बस फिर क्या था। वे जंगल छोड़ आबादी वाले क्षेत्र में आ पहुँचे सब उन्हें अपने बीच पा प्रसन्न हो उठे । सोचा, निश्चय ही कोई समाधान लेकर उपस्थित हुए है।

विश्वामित्र ने वहीं दूसरे दिन एक विशाल सभा-आयोजन की घोषणा की । अगले दिन प्रातः नियत समय पर लोग नियत स्थान में एकत्रित हो गये । उद्बोधन शुरू हुआ-

देवों वर्तमान विपदा निश्चय ही अत्यन्त गम्भीर है, पर ऐसा भी नहीं कि जिसका कोई हल न हो । एक हल अवश्य है। जिससे इस विषम परिस्थिति को टाला जा सकता है, किन्तु इसमें एक बड़ी अड़चन है। इतना कहकर मुनि विश्वामित्र कुछ रुक से गये । सभा मंडप से आवाजें आने लगी-महाभाग। वह कैसी बाधा है? हम उसे दूर करने में कोई कसर उठा न रखेंगे। आप आज्ञा करें ।

ऋषि-वाणी पुनः मुखरित हुई - समाधान कुछ जटिल है और उत्सर्ग की माँग करता है। बोलिए आप में से कौन है, जो यज्ञ की बलिवेदी पर चढ़ने के लिए तैयार है?

मंडप में सन्नाटा छा गया । ऋषि को उत्तर न मिला। थोड़ी देर इन्तजार करने के उपरान्त आवाज फिर गूँजी ।

ठीक है तो संकट का हल मैं अपनी आहुति देकर करूंगा । आप में से कोई आगे आकर मुझे यज्ञ मंडप की वेदी में यूप से बाँध और बलि चढ़ाकर क्रिया को सम्पन्न करें।

रुकिए देव ! सभा मंडप के मध्य से एक किशोर की वाणी उभरी । यह धरती अभी देवपुत्रों से सर्वथा सूनी नहीं हुई है। इस नरमेध यज्ञ के लिए मैं अपना बलिदान करने को तैयार हूँ ।

विश्वामित्र चौंके । दृष्टि आवाज की ओर अनायास उठ गई । देखा तो एक चौदह वर्ष का बालक बड़े गर्व से उनकी ओर चला आ रहा था।

ऋषि के सम्मुख उसने हाथ जोड़ लिए और यूप से कसने का आग्रह करने लगा।

मुनि ने एक प्रेम भरा दृष्टि-निक्षेप किया और मुस्कराकर बोले नहीं वत्स इस कार्य के लिए हम ही उपयुक्त हैं। तुम अभी बालक हो । यदि ऐसा हुआ तो बाद की पीढ़ियाँ यह कहते हुए हमें कोसेंगी कि ऋषि ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए एक बालक का वध कर दिया।

इतना सुनना था कि किशोर खिलखिलाकर हँस पड़ा कहा आप मुझे बालक समझ रहे हैं आर्य ठीक है यह ता आपके अधिकार क्षेत्र में है । वय से कद काठी से आप ऐसा मान सकते हैं, किन्तु केवल स्वल्प आयु के कारण ही दया का पात्र घोषित होना और गौरव से वंचित रह जाना-यह मुझे स्वीकार नहीं है। मुझे उम्मीद है आप अष्टावक्र और अभिमन्यु के प्रसंग भूले न होंगे । क्या उनने जो कुछ किया, एक किशोर का कार्य था। निश्चय ही नहीं । कद उनके अवश्य ही किशोरों जैसे थे, पर चेतना शूरवीरों साहसियों की थी और शूरवीरों की आयु नहीं देखी जाती । मैं उन्हीं अष्टावक्र और अभिमन्यु का अंशधर हूँ, उत्तराधिकारी हूँ महाभाग! मेरी धमनियों में उन्हीं का रुधिर प्रवाहित हो रहा है। सीने में आर्यों का सा साहस और दिल में देवपुत्रों जैसी उमंग है। मुझे स्वयं में गर्व अनुभव होगा यदि समाज के किसी काम आ सकूँ। रही कलंक की बात सो उसकी चिन्ता आप न करें । यह दोष न आप पर और न किसी के सिर पर किसी भी प्रकार मढ़ा जायेगा। आप जीवित रहेंगे तो ऐसी विपत्तियों में समाज को मार्गदर्शन मिलता रहेगा । मेरा क्या है। एक शूनःशेप न रहा तो दूसरे पैदा हो जायेंगे, किन्तु आपकी अपूर्णीय क्षति समाज कैसे बरदाश्त कर सकेगा, उसकी भरपाई किस प्रकार हो सकेगी ? तनिक विचारिये तो सही । अस्तु आप सहर्ष मुझे स्वीकार करें । मुहूर्त निकाला जा रहा है। अब विलम्ब न करें देव!

विवश होकर विश्वमित्र शूनःशेप को लेकर आगे बढ़ गये और यज्ञमंडप में यूप से बाँध दिया । एक अधेड़ व्यक्ति ने खड़ग उठाया ही था कि आकाश में तीव्र गड़गड़ाहट हुई चकाचौंध करने वाली बिजली कौंधी। उपस्थित लोगों ने सिर उठाया तो खुशी से नाच उठे।

काले-काले मेघ बरस पड़ने के लिए मचल रहे थे। देखते-देखते घनघोर वर्षा होने लगी । शूनःशेप की परीक्षा पूर्ण हुई । वरुण देव ने उसके आत्मत्याग से प्रसन्न होकर इतनी वर्षा की,जितनी पिछले कई वर्षों में नहीं हुई थी । सर्वत्र किशोर की जय-जयकार होने लगी। जेठ की आतप जब बरसात की रिमझिम फुहार बनकर बरसती है, तो मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी झूम उठते हैं। सम्प्रति वातावरण कुछ ऐसा ही हो रहा था। इसका सम्पूर्ण श्रेय शूनःशेप को मिला । वह इतिहास पुरुष बन गया।

इन दिनों अन्न-जल संकट का वह दौर-दौरा भले ही न हो, पर आस्था संकट का दुर्भिक्ष वैसा ही भीषण है। महाकाल चीख चीख कर गुहार लगा रहा है और शूनःशेपों को आगे आने का निमंत्रण दे रहा है। कहीं ऐसा न हो हम ऐसे सुनहरे अवसर को चूक जायँ।


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