आत्मासन्मुखी हूजिए

April 1992

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मनुष्य अनेकों बाहरी जानकारियाँ प्राप्त करता है। अनेकों वस्तुओं का संग्रह एवं उपयोग भी करता है । उसकी दिलचस्पी बाहर के दृश्यों में ही रहती है। अपने सम्बन्धियों एवं प्रियजनों के साथ मिलने-जुलने आदान-प्रदान के लिए उत्सुकता रहती है। व्यवसाय जैसी समृद्धि संवर्धन के कार्यों में भी कम रुचि नहीं रहती। ठाट-बाट दिखाने, रौब जमाने, वाहवाही लूटने के लिए अनेकों योजनाएं बनती एवं कार्यान्वित होती रहती हैं। विचारों पर भी संसार के ही क्रियाकलाप छाये रहते हैं। तात्पर्य यह कि समूची जीवनी शक्ति बहिरंग समस्याओं में ही उलझती सुलझती रहती हैं। समय उसी में चला जाता है। श्रम उसी में नियोजित रहता है। विचार प्रवाह भी उसी का ताना-बाना बुनता रहता है। समझदारी वाली सारी आयुष्य प्रायः इसी में व्यतीत हो जाती है। यही है संक्षिप्त विश्लेषण-मानव जीवन की सामान्य दिनचर्या का ।

इस व्यस्तता के बीच एक अति महत्वपूर्ण तथ्य छूट ही जाता है कि हम कौन हैं? क्यों हैं? और इस हम की भी कोई आवश्यकता, सत्ता है क्या? और उसे पूरा करने के लिए भी कुछ सोचा किया जाना चाहिए क्या?बहिरंग ही सबकुछ है या अंतरंग भी ऐसा है जिसके उत्थान पतन से अपना कुछ संबंध है?

यह प्रश्न वस्तुतः अत्यधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि जो कुछ भी, जिस रूप में भी बाहर दीख पड़ता है वह आत्मचेतना की ही प्रतिध्वनि है, प्रतिच्छाया है। वस्तुतः संसार वैसा है नहीं जैसा हमें दीखता या प्रतीत होता है। इसी संसार को अनेक व्यक्ति या जीवधारी अनेक दृष्टिकोणों से अपने-अपने चश्मों से देखते हैं और वह उनके लिए उसी रूप में वैसा ही बन जाता है। निद्रित होने या मर जाने पर इस समूचे संसार की समाप्ति हो गई प्रतीत होती है। तब सच क्या है? यह जानने के लिए नये दृष्टिकोण से सोचना होगा।

दृश्यमान संसार जड़ पदार्थों की चलती फिरती संरचना है। हर शरीर एवं पदार्थ जड़ परमाणुओं द्वारा विनिर्मित है। परमाणु द्रुतगति से भ्रमणरत रहते हैं। उनसे बने पदार्थ भी एक स्थिति में नहीं रहते। वे उपजते, बढ़ते, ढलते और नष्ट होते रहते हैं। हर क्षण, हर वस्तु के स्वरूप में, परिवर्तन होता रहता है। मनुष्यों के स्वभाव संबंधों में भी यही बात है तदनुसार वस्तुओं और व्यक्तियों की उपयोगिता में भी अन्तर आता रहता है। उनके प्रति अपनी मान्यता भी प्रिय अप्रिय एवं उदासीनता-उपेक्षा के रूप में परिवर्तित होती रहती है। इसीलिए शास्त्रकारों ने उसे अस्थिर कहा है और माया मरीचिका जैसे भ्रमजाल की उपमा दी है

मात्र संसार ही परिवर्तनशील नहीं है । अपना चिन्तन भी ज्वार भाटे की तरह उठता गिरता रहता है। विवाह के दिनों में नववधू अप्सरा जैसी लगती है। पर कुछ ही समय बाद साथ रहते-रहते वह सामान्य गृहिणी भर रह जाती है। परिवार में अन्य सदस्यों की तरह वह भी एक अंग बन जाती है। अनेक बच्चे जनकर दुर्बल या रुग्ण रहने पर उसका यौवन आकर्षण और भी अधिक चला जाता है। तब अरुचि उपेक्षा का नया दौर चल पड़ता है। पीछे गृहस्थी का जंजाल बढ़ता है। समस्यायें उपजती हैं और उनके हल करने में मतभेद रहने पर अनबन चल पड़ती है। जो कलह का रूप धारण कर लेती है। नववधू और जराजीर्ण वृद्ध की स्थिति में रहता तो प्राणी एक ही है पर उसकी स्थिति के अनुरूप अपने दृष्टिकोण में अन्तर पड़ता जाता है। कई बार ता वह परस्पर विरोधी जैसा हो जाता है। यह बात अन्य स्वजन संबंधियों, मित्रों, शत्रुओं के संबंध में भी है। उनकी स्पष्ट गतिविधियाँ जब तक अपने को प्रभावित करती हैं तभी तक घनिष्ठता रहती है। आमना-सामना न रहने पर रुख भी बदल जाता है।

पढ़ाई के दिनों में स्कूली छात्र आपस में घनिष्ठ मित्र रहते हैं पर बड़े होने पर जब वे अन्यत्र चले जाते हैं, अपने-अपने धंधे में लग जाते हैं तो फिर वह पहले वाली घनिष्ठता विस्मृत होती चली जाती है। यहाँ तक कि पहचानने तक में कठिनाई होती है।

दुधारू गाय और हल में चलता बैल अच्छे सहायक लगते हैं और उनकी अच्छी देखभाल भी होती है पर जब वे वृद्ध होकर अपनी क्षमता खो बैठते हैं तो कसाई के हवाले कर दिए जाते हैं। पदार्थों के संबंध में भी यही होता है। पेट खाली होने पर मिष्ठान्न-पकवान बड़े रुचिकर लगते हैं पर जब पेट भरा हो तो उनकी ओर आँख उठाकर देखने का मन नहीं करता। छोटे बच्चे गोदी में खेलते समय कितने अच्छे लगते हैं पर जब वे बड़े होकर अवज्ञा करने और टकराने लगते हैं तो शत्रु जैसे प्रतीत होने लगते हैं।

यह उतार चढ़ाव ऐसे हैं जिनके वास्तविक कारण ढूंढ़ने पर जहाँ वस्तुओं की बदली हुई स्थिति भी एक कारण होती है। वहाँ यह भी मानना पड़ता है कि अपना बदला हुआ दृष्टिकोण भी कम महत्वपूर्ण कारण नहीं हुआ होता भले ही वह किसी भी कारण क्यों न हुआ हो ।

मनुष्यों को यह दुनिया जिस रूप में दिखाई देती है वैसी अन्य प्राणियों को प्रतीत नहीं होती । पशु-पक्षी इस संसार को इस रूप में नहीं देखते जिस प्रकार कि हम। कीट-पतंगों की दुनिया अपने आप में बिल्कुल भिन्न होती है। हम कीड़े मकोड़ों को एक दृष्टि से देखते हैं, इसके विपरीत कीड़े मकोड़े हमें दूसरी दृष्टि से। संभव है वे हमें चलते-फिरते पर्वत के रूप में देखते हों। पदार्थ हमारे लिए एक प्रकार के होते हैं जो अन्य व्यक्ति व अन्य प्राणी उन्हें दूसरी दृष्टि से देखते हैं। हीरा जौहरी की दृष्टि में बहुमूल्य हो सकता है पर एक अनजान वनवासी तो उसे काँच के टुकड़े से कुछ भी अधिक महत्व न देगा। यही बात प्राणियों के संबंध में भी है। अपना बालक हमें प्राणप्रिय और भविष्य का आधार लग सकता है पर वह किसी सिंह, व्याघ्र की दृष्टि में कोमल माँस व सुस्वादु लोथड़ा भर प्रतीत होगा। नीम के पत्ते हमें कड़ुए लगते हैं पर वे ही ऊँट के लिए अत्यन्त प्रिय व्यंजन हैं।

पदार्थों का बदलाव और दृष्टिकोण में होते रहने वाला परिस्थितिवश परिवर्तन यह दोनों ही मिलकर पदार्थों व शरीरों के बारे में मान्यताओं का भारी उलट पुलट करते रहते हैं। मरण के उपरान्त शरीर तो यथावत बना रहता है किन्तु प्राणी के लिए समूची दुनिया ही कुछ से कुछ हो जाती है। यही है वह छलावा जिसमें उलझकर मनुष्य अपनी समूची जीवन सम्पदा को ऐसी उलझनों में उलझा लेता है, जिसका महत्व बालविनोद में काम आने वाले खेल खिलौने से अधिक कुछ है नहीं ।

तब सच्चाई क्या है? और आनंद उल्लास का उद्गम क्या है? यह प्रश्न यदि उभर सके तो उसके ऐसे उत्तर मिलेंगे जो आश्चर्यचकित करके रख देंगे। साथ ही इस बात के लिए भी विवश करेंगे कि बाल क्रीड़ाओं से ऊँचे उठकर किसी महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए और अपने चिन्तन तथा क्रियाकलापों की दिशा में असाधारण परिवर्तन करना चाहिए ।

पदार्थों के, प्राणियों के, परिस्थितियों के बारे में सही-गलत मूल्याँकन अपना अपना दृष्टिकोण ही करता है और वही यह करता है कि हमें क्षमताओं को किस निमित्त, किस में, किस प्रकार करना चाहिए। यह निष्कर्ष निर्णय यदि सही स्तर का बन पड़े तो फिर जीवन सम्पदा का अपव्यय रोककर उसका सदुपयोग कर सकने वाली नई विधा सामने आ सकेगी ।

तत्वदर्शन इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि अपना अन्तराल ही जिस भले बुरे स्तर का होता है। उसी के अनुसार ये सारी दुनिया दीखने लगती है। अपनी अभिरुचि ही किसी के प्रति आकर्षित करती और उपेक्षित या विरोधी बनाती है। क्रियाकलाप भी वैसे ही चल पड़ते हैं जैसा कि अपना रुझान होता है।

यदि दृश्य जगत को ही सबकुछ माना जाए तो भी बात यहीं आकर रुकती है कि यदि अपना रुझान, निर्धारण और विवेक सही प्रकार काम करे तो ऐसा कुछ भी शेष न रहेगा जो अनावश्यक रूप से अपने साथ बाँधें या विरोधी बनाये यह संसार अपने ढंग से चल रहा है। हम ही उसके साथ असामान्य संबंध जोड़कर प्रिय अप्रिय का जंजाल मोल ले लेते हैं और कार्य-विशेष में इतने अधिक निमग्न हो जाते हैं कि उस महत्वपूर्ण चिंतन के लिए समय ही नहीं निकल पाता जिसे आत्मज्ञान कहते हैं।

आत्मसत्ता ही वह इकाई है जिसे शरीर में विद्यमान ईश्वर की प्रतिनिधि कह सकते हैं। यह जिस भी स्तर की ढल-बन जाती है, उसी के अनुरूप प्राणियों से संबंध बनने और व्यवहार चलने लगते हैं। मस्तिष्क बहुत कुछ सोचता व शरीर बहुत कुछ करता है यह ठीक है पर इससे भी अधिक सही यह है कि आन्तरिक स्तर के अनुरूप बना दृष्टिकोण ही अपना एक अलग संसार बना लेता है जो दूसरों के संसार से सर्वथा न सही अधिकाँश में दूसरों से भिन्न होता है।

एक संत के लिए यह विश्व विराट ब्रह्म की ही प्रतिमा है। सभी प्राणियों में अपनी आत्मा ही आत्मा के दर्शन करती है। प्रकृति का सौंदर्य उसे विश्वात्मा की शानदार संरचना और आकर्षक शोभा सज्जा प्रतीत होती है पर वह हर किसी के लिए वैसी नहीं है। नीरस निष्ठुर मनुष्य यहाँ सब कुछ कुरूप और अरुचिकर ही देखता है और उस पर अधिक विचार करने से अपनी खीज ही बढ़ाता है।

चोर के लिए यह सारी दुनिया चोरों से भरी है। व्यभिचारी सर्वत्र कामुकता का व्यापार ही चलता देखता है। नृशंस आततायी सर्वत्र खीज भर कर ही देखते हैं और जिस पर आवेश उतरता है उसी पर टूट पड़ते हैं। एक ही संसार जब इतने विभिन्न प्रकार का दिखता है तो उसका कारण एक ही समझा जा सकता है कि अपने-अपने रंग का चश्मा आँखों पर पहनकर वस्तुओं पर देखा जा रहा है। द्रष्ट की सत्ता और महत्ता ही सर्वोपरि है, वही अपने रुचि रूप इस संसार को चित्र विचित्र ढंग का गढ़ती तथा उस पर प्रसन्न अप्रसन्न होती रहती हैं।

संसार को अपने मनोनुकूल ढालने के लिए इतने भर से काम चल सकता है कि अपने स्तर रुझान और चिन्तन में आवश्यक परिवर्तन किया जाय। तभी हम आज कुरूप लगने वाले संसार को कल सुषमा और सौंदर्य से भरा पूरा देख सकते हैं। टार्च का प्रकाश जितनी परिधि में रोशनी डालता है उतना ही क्षेत्र चमकने लगता है। अपना दृष्टिकोण यदि टार्च जैसा परिष्कृत और प्रकाशवान हो तो वह जितने ही क्षेत्र पर पड़ेगा, वह सभी सुन्दर सुहावना और अनुकूल दीखने लगेगा।

अन्तराल में सन्निहित शक्तियाँ इतनी महान है कि उसकी खदान खोदकर बहुमूल्य मणि-माणिक पाये जा सकते हैं। अपने ही भीतर देव दानव छिपे बैठे हैं। उनमें से जिन्हें समझा और जगाया जा सके वे ही अपना काम प्रचंड शक्ति के साथ करने लगते हैं। प्रश्न केवल एक ही है कि उस आत्मसत्ता को कैसे जाना और जगाया जाय? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम अपने स्वरूप को, स्तर को, दृष्टिकोण को समझने के लिए अंतर्मुखी हुआ जाय और विश्व निरीक्षण पर भी ध्यान दिया जाए।


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