चेतना का भी अपना स्वभाव होता है- यह कहने में यों कुछ अटपटा अवश्य प्रतीत होता है, पर यह चिरन्तन सत्य है कि शरीर के साथ गुँथी चेतना उसी के अनुरूप आचरण और व्यवहार करने लगती है, जैसा स्वयं व्यक्ति का होता है। देह के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध होने के कारण उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति भी चेतना में उतर आती है, जिससे देहावसान के उपरान्त शरीर के न रहने पर भी वह स्वतंत्र रूप से वैसी ही प्रवृत्ति का परिचय देने लगती है, जैसी जीवित अवस्था में अभ्यासवश उसके आचरण में पलती और पकती है। फिर इसी दिशा में उसकी प्रगति यात्रा चल पड़ती है। आये दिन घटने वाली घटनाएँ इस तथ्य के प्रमाण हैं ।
बात सन् 1960 की है। पूर्व के सोवियत संघ के जार्जिया गणराज्य (अब स्वतंत्र देश) में राजधानी तिबलिसी के लगभग 20 मील दूर इफ्रोविच फर्क के निकट एक बहुत पुरानी भग्न इमारत में एक दिन अचानक जाने कहाँ से एक वृद्धा प्रकट हुई और रहने लगी । उस पोपले मुँह वाली फटेहाल बुढ़िया को यों तो देखा कितने ही लोगों ने था, पर असहाय-अशक्त व दूसरों की दया पर पलने वाली समझकर किसी ने उस ओर कोई विशेष ध्यान न दिया। वह पागलों की भाँति मन ही मन कुछ बुदबुदाती दिनभर वहीं अपने झोंपड़े में पड़ी रहती । यदा-कदा मन होने पर आस-पास चक्कर काट लिया करती । नाम पूछने पर प्रायः रोजेवा बताती।
रोजेवा जब से उस खण्डहर में आयी थी, सारे पक्षी उस क्षेत्र से पलायन कर गये। यहाँ तक कि समीपवर्ती पार्क में भी अब उनका कलरव बन्द हो गया था। पालतू गाय और बकरियाँ, जो उस क्षेत्र में निर्द्वन्द्व होकर चरा करती थीं, उधर जाना बन्द कर दिया। इससे वहाँ के वातावरण में अजीब पैशाचिकता-सी छायी रहती। प्रायः अकेले उस ओर आने-जाने में लोग भय महसूस करते । अभी इस घटना का एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि वातावरण में विचित्र परिवर्तन आरंभ हुआ। वहाँ वर्षा शुरू हो गई। रह-रह कर बिजली कौंधती और साँय-साँय करती तेज हवा चलती। यद्यपि अभी बरसात का मौसम नहीं था, फिर भी झड़ी ऐसी लगी कि थमने का नाम न लेती। इसी दशा में एक दिन कुछ लोग उसके झोंपड़े की ओर निकल पड़े। वहाँ जो कुछ देखा इससे वे सन्न रह गये। वह बुढ़िया एक हाथ में खप्पर और दूसरे में लोहे का एक शूल लिये खण्डहर की परिक्रमा अधर में कर रही थी। इस क्रम में उसका रूप क्षण-क्षण में बदल जाता। कभी वह सुँदर रूप लावण्य वाली नवयौवना प्रतीत होने लगती, तो दूसरे ही पल उसकी अवस्था बदल कर उसी म्लान मुख, श्वेत केशों वाली बुढ़िया सी हो जाती।सभी स्तब्ध थे। मौसम वैसा ही बना रहा और वृद्ध महिला की गतिविधियों में भी कोई परिवर्तन नहीं आया। लोग इसे भली -भाँति समझ गये थे कि यह परिवर्तन महिला की विचित्र गतिविधियों के कारण ही है और जब तक यह बनी रहेगी, तब तक इसमें सुधार की कोई आशा भी नहीं है फलतः एक दिन उस इलाके के कुछ लोगों ने इकट्ठा होकर इस पर विचार किया और बुढ़िया को भगाने की योजना बनायी। सभी का विश्वास था कि वह महिला उसी खण्डहर में रहती है, अतः निदान उसे डायनामाइट से उड़ा देना ही समझा गया। योजनानुसार एक रात्रि को वहाँ डायनामाइट फिट कर दिया गया और उसके लम्बे तार दूर ले जाये गये। तार में विद्युत प्रवाहित किया गया, पर कोई विस्फोट न हुआ। सब अचरज में थे, तभी एक जोर का अट्टहास हुआ। सभी का ध्यान उस ओर खिंच गया। देखा, तो कुछ दूरी पर वही बुढ़िया हवा में तैरती दिखाई पड़ी । लोगों को उस ठंडी रात में भी पसीना आने लगा, किन्तु कुछ क्षण में वह बुढ़िया और अट्टहास दोनों गायब हो गए और प्रकट हुआ एक तीव्र चक्रवात, जो देर तक लोगों को उठा-उठा कर पटकता रहा। कइयों की टाँगे टूटी, अनेक अपनी आँख गँवा बैठे, कितनों को ही अपनी भग्न भुजा व दुस्साहस का दुःख था, जब कि कुछ एक सिर तुड़वाकर रक्तरंजित हो रहे थे । लगभग 20 मिनट तक यह नाटक चलने के बाद सब कुछ शान्त हो गया। फिर वर्षा भी धीरे-धीरे रुक गई। आसमान साफ हो गया। रह-रह कर होने वाली बिजली की गड़गड़ाहट भी पुनः न सुनी गई। सूर्य निकलने पर दूसरे दिन कुछ लोग साहस कर उस ओर निकल पड़े। उन्होंने दूर से ही इमारत और आस-पास के क्षेत्र का अवलोकन किया । आज न वह वृद्धा थी और न उसके अद्भुत कारनामे । थोड़े साहसी युवकों ने कुछ और मनोबल जुटाकर खंडहर में प्रवेश किया । वहाँ सिवाय चमगादड़ों के, कुछ न दिखाई पड़ा, न तो कुछ अवाँछनीय ही घटा। सब प्रसन्न थे कि तीन महीनों तक भय का वातावरण बनाने वाली घटना का आज पटाक्षेप हो गया।
जार्जिया के पुलिस-रिकार्ड के अनुसार यह घटना मात्र तिबलिसी में ही नहीं घटी, वरन् उक्त राष्ट्र (जार्जिया)के अनेक हिस्सों में भी रिकार्ड की गई। आश्चर्य तो यह है कि हर जगह उसका अस्तित्व -काल लगभग एक जितना रहा। सभी स्थानों के रिकार्ड अपने विवरणों में एक ही शक्ल-सूरत की बुढ़िया का वर्णन करते पाये गये। यह भी एक विचित्र साम्य है कि जहाँ- जहाँ उक्त घटना घटी उन-उन स्थानों में हल्की बारिश अवश्य हुई और यह तब तक होती रही, जब तक उस बुढ़िया का वहाँ से पलायन न हो गया।
जानकार लोगों का कहना था कि वह वृद्ध जीवितों की तरह दीखती भर थी । वस्तुतः वह थी एक प्रेतात्मा। वर्षों पूर्व इसी शक्ल सूरत की एक महिला की मृत्यु तिबलिसी के पास के एक गाँव में हुई थी। वह एक ताँत्रिक महिला थी और किसी-न-किसी प्रकार की दुरभिसंधि रचने एवं लोगों को हैरान करने में सदा संलग्न रहती। यद्यपि आज उसका स्थूल शरीर न रहा पर जीवन भर किये गए कुचक्रों की नकल अब भी उसकी चेतना करती और लोगों को डराती धमकाती रहती है। आत्मविद्या विशारदों का कहना है कि जो आजीवन कुकृत्य करते रह कर दूसरे को सताने में रस लेते रहे वे अन्तिम दिनों में दान-दक्षिणा के टंट-घंट द्वारा मरणोपराँत शान्ति प्राप्त कर लेंगे-ऐसी आशा नहीं ही करनी चाहिए । सृष्टि नियम में शान्ति के हकदार वही हैं जो दूसरों को शान्ति प्रदान करते हैं, अन्यथा चेतना इस नियम का उल्लंघन नहीं कर सकती और मृत्युपरांत वह उन्हीं गतिविधियों में निरंतर रहती है, जिन्हें शरीर आजीवन छाती से चिपकाये रहा। हम अपना चिन्तन बदलें और आदत सुधारें । प्रवृत्तियाँ तभी बदल सकती हैं। जीवन जीते समय और मरने के बाद शान्ति ऐसे ही लोगों को मिलती है, क्योंकि चेतना की शान्ति सत्प्रवृत्तियों की चिर सहचरी है।