भगवद् भक्ति का मर्म

April 1992

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भक्ति की महिमा-महत्ता तथा उसके कारण मिलने वाले आत्मिक स्तर के दिव्य प्रतिफलों की उपलब्धियाँ असाधारण हैं। इसकी समग्रता त्रिपदा गायत्री के सदृश्य हैं जिसमें ज्ञान, कर्म, उपासना का त्रिविध समन्वय अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार जीवन की स्थिरता के लिए अन्न, जल और हवा आवश्यक हैं। मात्र इनमें से एक ही मिल सके तो शेष दो का अभाव किसी को जीवित रहने की स्थिति में नहीं रहने दे सकता पूजापरक उपासना की आवश्यकता-उपयोगिता कितनी ही कुछ क्यों न हो, पर जीवन साधना और परमार्थपरक आराधना को साथ लिए बिना वह सर्वथा अपूर्ण रहेगी और कोई उत्साहवर्धक परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगी। गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम से त्रिवेणी बनती है जिसका महात्म्य वर्णन करते-करते शास्त्रकार थकते नहीं । इनमें से किसी अकेली को तीर्थराज त्रिवेणी संगम नहीं कहा जा सकता। यही तथ्य भक्ति की समग्रता पर भी लागू होता है। अपूर्ण उपक्रम में असफलता के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

इन दिनों तथाकथित भक्ति और भजन पूजन की लकीर कुछ इस प्रकार पिटने लगी है कि उसे प्रवंचना और विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ कैसे कहा जा सकता है। भगवान की अनुकम्पा स्वाति वर्षा की तरह है जो मात्र सत्पात्रों को ही निहाल करती है। जिन सीपियों में मोती बनते हैं, वे असाधारण स्थिति की होती है। जिन बाँसों में वंशलोचन और जिन केलों में कपूर बनता है, वे भी सामान्य न होकर असामान्य विशेषताएं लिये हुए ही होते हैं बादल की वर्षा कितनी ही व्यापक और कितनी ही उदात्त क्यों न हो, पानी मात्र वहीं ठहरता है जहाँ गहराई विद्यमान हो । ऊँचे टीलों और कठोर चट्टानों पर तो पूरा मौसम निकल जाने पर भी तनिक भी पानी नहीं ठहरता। इसमें दोष वर्षा ऋतु का नहीं, उस कुपात्रता को ही दिया जा सकता है जिसमें ग्रहण और धारण करने की क्षमता का अभाव है। व्यक्ति की गहराई यदि सत्पात्रता के रूप में विकसित न हो सके तो फिर न तो पूजा का कोई प्रयोजन रह जाता है और न दिव्य वरदान मिलने जैसी कोई अपेक्षा ही की जा सकती है। यही एक मात्र कारण है जिसके कारण तथाकथित भक्ति का लाभ न तो परिष्कृत व्यक्ति के रूप में मिलता है और न धन, वैभव जैसी वस्तु ही हाथ लगती है। सिद्धान्तहीन मृगतृष्णा में भटकने वालों की खीज,थकान, निराश के अतिरिक्त और कुछ क्या हाथ लग सकता है? भक्ति माँगने को नहीं समर्पण को, त्याग को अपना सर्वस्व दे देने को कहते हैं। ईश्वर के विश्वउद्यान में माली की तरह अपना पुरुषार्थ नियोजित करना ही सच्ची भक्ति है। ऋद्धि-सिद्धियाँ इसी आधार पर हस्तगत होती हैं। पर उन्हें क्या कहा जाए जो अपने पुरुषार्थ पर विश्वास न करके मात्र नाक रगड़ने मात्र से बहुत कुछ पाने के लिए लालायित रहते हैं। संकटों से जूझकर अपनी धार तेज करने की बजाय अपने मुँह पर बैठी मक्खियों को उड़ाते रहने के लिए स्तवन, पूजा प्रार्थना का आश्रय लेते रहते हैं। ऐसे लोगों को जेबकट भी कहा जा सकता है और साथ ही जेब कटाते रहने वाले भी । देवताओं की जेब काटने की फिराक में रहने वाले पाते कुछ नहीं, अपने को उनका एजेंट बताने वालों द्वारा बुरी तरह जेब कटाते रहते हैं। मानव समुदाय में यही जेबकतरापन आज भक्ति नाम से प्रख्यात हो गया है। फलतः परावलम्बन की प्रवृत्ति और अनुदारता की प्रवृत्तियाँ सिर बैंघने के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता । यह तथ्य एक प्रकार से भुला ही दिया गया है कि उच्च उद्देश्यों के लिए बढ़-चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करने से कम में आत्मसंतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह जैसा कोई भी महान प्रयोजन पूरा नहीं होता।

हर किसी को यह समझना और समझाना चाहिए कि भगवान के पास जो बहुमूल्य सम्पदा थी, वह मनुष्य जीवन के रूप में आरंभ में ही दी जा चुकी है। यदि अपने समय, श्रम, चिन्तन और पुरुषार्थ को औचित्य की दिशा में नियोजित किया जा सके तो सफलताओं सिद्धियों विभूतियों का इतना बड़ा प्रतिफल पाया जा सकता है जिसके आधार पर कोई अपने को अभावग्रस्त अनुभव न करें। मनुष्य के पास न केवल अपना काम चलाने के लिए, वरन् दूसरों को बाँटने के लिए अपार सम्पदा विद्यमान है। एक बीज बोने पर मक्का और बाजरा जैसी फसलें जब हजार गुनी फलती हैं तो कोई कारण नहीं कि आत्म परिष्कार और लोकमंगल के लिए कुछ कहने योग्य कर सकने पर इतना वैभव हस्तगत किया जा सके जिसकी कि भगवद् भक्ति की प्रशंसा करने वाले उसका महात्म्य वर्णन करते रहे हैं। लोक-परलोक की असंख्य सम्पदायें मिलने की बात ऊँचे स्वर से कहते और जनसाधारण को उस पर विश्वास करने के लिए जोर लगाते रहते हैं।

सच्ची भक्ति में वस्तुतः उपासना तो प्रारम्भिक और छोटा चरण है इसमें खाद पानी देकर बड़ा पौधा बनाने और उस वृक्ष पर शाखा, टहनी, पत्तियों और फूल-फलों से लदने की आशा तभी की जा सकती है जब उसके साथ साधना और परमार्थ आराधना के अपेक्षित पुरुषार्थ किये जायँ। जो इन दोनों से वंचित है, उस भक्ति को ऐसा ही समझाना चाहिए जैसे ऊसर भूमि में बीज तो उग गया, पर उसमें खाद, पानी देने की आवश्यकता न समझी गयी।


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