जाग्रत विवेक द्वारा ही समाधान संभव

April 1992

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जलाशयों में अनेक छोटे बड़े जीव-जन्तु पैदा होते रहते हैं पर उनकी गरिमा मणि मुक्तकों की है। इसीलिए समुद्र का नाम रत्नाकर पड़ा है । वनों में अनेक प्राणी जन्मते और पलते हैं पर उनमें वरिष्ठता सिंह की है। क्योंकि वृक्षों की हरीतिमा की रक्षा उसी के कारण बन पड़ती है अन्यथा अन्यान्य प्राणी ही उस क्षेत्र को खाकर तोड़-मरोड़कर समाप्त कर दें। रक्षक होने के कारण ही उसे वनराज की उपाधि से अलंकृत किया जाता है।

मनःक्षेत्र में अनेकों लहरें-तरंगें उठती रहती हैं । इनकी प्रकृति भी चित्र-विचित्र स्तर की होती है। कल्पनाओं की संरचना अजीब और अनन्त है। वे क्षणभर में आकाश पाताल नाप लेतीं हैं और ऐसे जादुई महल खड़े करती हैं कि उनके आगे कोई तिलस्म नहीं ठहर सकते। तर्कों का कहना ही क्या? वे जिधर भी झुक पड़ती हैं, उधर ही समर्थन के प्रमाण पहाड़ खड़े कर सकती हैं। जो अप्रिय लगे उसे बुरा बताने और जो अच्छा लगे उसकी प्रशंसा करने, उपयोगिता सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं रहने देती। झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा साबित करने में उनकी वकालत देखते ही बनती है। बुद्धि का भी यही हाल है। वह स्वार्थ के पक्ष में निर्णय देती है। उसे घूसखोर न्यायाधीश की उपमा दी जा सकती है। मन रूपी यजमान यदि चोर प्रकृति का है तो उसे रोकने की अपेक्षा ऐसे उपाय सुझाएगी कि उसकी इच्छा सरलतापूर्वक पूरी हो सके। छल प्रपंच बुद्धिमत्ता की देन है। कारगर हो सकने वाले कुचक्र और षड़यन्त्र बुद्धिमानों द्वारा ही रचे जाते हैं। अपराध प्रकृति को सफल बनाने वाली योजनाएँ बुद्धि ही बनाती हैं। जेलखानों में दण्ड भुगतने वाले लोगों में अधिकाँश एक से एक बढ़ चढ़ कर बुद्धिमान होते हैं।

कल्पना की, तर्क की, बुद्धि की, समर्थता से कोई इन्कार नहीं करता । उनका कार्य क्षेत्र भी बढ़ा चढ़ा है। किन्तु इन्हें दुधारी तलवार समझा जाना चाहिए। न्याय और नीति के पथ में यदि वे चल पड़े तो बढ़ चढ़ कर आदर्शवादी और लोकोपयोगी कार्य भी वे कर सकती हैं । किन्तु यदि वे पतन के प्रवाह में बहने लगें तो समझना चाहिए असीम गहराई वाले खारी समुद्र में ही गिरा कर रहेंगी । मनोविकार इसी दिग्भ्रान्त होने और कुमार्ग पर चलने की गति भी तेज हो जाती है। यही है वह प्रक्रिया जो प्रथम मनोविकारों से ग्रसित करती हैं और पीछे से अनाचार कराती हैं जिनका प्रतिफल भर्त्सना, प्रताड़ना और विपत्ति बनकर सिर पर टूटती है।

जिस प्रकार असंयम स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान कारण है उसी प्रकार मनःक्षेत्र को गँदला बनाने में उसमें विषैले कृमि कीट उपजाने का निमित्त कारण अविवेक है। अविवेक का अर्थ है दूरदर्शिता का अभाव । बचकानी आदत अधिकाँश लोगों में यह होती है कि वे तत्काल का लाभ देखते हैं उसी के आकर्षण पर फिसल पड़ते हैं। यह नहीं समझ पाते कि इसका भावी परिणाम क्या होगा? तत्काल लाभ उठाने की आतुरता ही मनुष्य को अचिन्त्य चिन्तन कुकृत्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है । इसी कारण चिड़िया जाल में फँसती और मछलियाँ मछुओं का शिकार बनती हैं। दूरदर्शी को भावी परिणाम पर विचार करना होता है और वस्तु स्थिति का निरीक्षण परीक्षण भी । जो इतना कर पाते हैं उन्हें भावी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हैं हुए सतर्कता भरे कदम उठाने के लिए अवकाश मिल जाता है। फलतः वे उन विपत्तियों से बच जाते हैं जो मृगतृष्णा में भटकने वालो का पीछा करती रहती हैँ।

संकीर्ण स्वार्थपरता एक प्रकार से मूर्खता की ही परिणति है। स्वार्थ और परमार्थ का आदान-प्रदान ही व्यावहारिक है। उसी नीति को अपनाकर कोई प्रगति पथ की दूरी को पूरा कर सकता है। सफलता पा सकता है और समझदार लोगों की पद्धति में बैठ सकता है। उतावले लोग वस्तुस्थिति तक का अनुमान लगा ही किस प्रकार पाएँगे। दिग्भ्रान्त होने के जंजाल से यदि आरंभ में ही फँस जाया जाय तो किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि को हस्तगत करना संभव ही नहीं रहता। खीजते और खिजाते डरते और डराते रहने की स्थिति ही पल्ले बँधती है।

मनोविकारों की संख्या अत्यधिक है। उनके अगणित स्वरूप हैं । कुछ उत्तेजनापरक कुछ अवसादपरक। उत्तेजित स्थिति में उत्पन्न होने वाले क्रोध, आक्रमण, अपहरण, दर्प, अपमान, कटुवचन, ईर्ष्या द्वेष, कामुकता, तनाव जैसे मनोविकार उभारते हैं। अवसाद की स्थिति में भय, चिन्ता, आशंका, कायरता, आत्महीनता, आलस्य प्रमाद जैसे दोषों का उद्भव होता है। इन दोनों प्रकारों की प्रकृति तो एक वर्ग से दूसरे वर्ग की भिन्न है पर दुष्टपरिणामों की दृष्टि से कोई पीछे नहीं। मनःक्षेत्र को उद्विग्न विपन्न करते हैं।

ज्वार की लहरें पानी को ऊपर उछालती हैं और भाटे पानी को नीचे गहराई तक ले जाते हैं। यह प्रत्यक्ष अन्तर भिन्न-भिन्न प्रकार का होते हुए भी सतह को अस्थिर बनाने में दोनों की ही समान भूमिका होती है। मानसिक उद्विग्नता ही मनोविकारों की जननी है । उन्हीं के कारण मनुष्य दब्बू, कायर, निराश, खिन्न रहता और मन मसोस कर रोता कलपता है। इसके विपरीत आवेश में आकर मनुष्य आक्रामक बनता है। विद्वेष और प्रतिशोध के लिए उत्तेजित रहता है। डरपोक आत्महत्या की बात सोचता है और आततायी दूसरों की हत्या की । परिणति दोनों की एक जैसी है। अपने को या दूसरे को मारने में प्राण हरण की बात तो एक जैसी ही बनती है। क्रोधी का खून जलता है। भयभीत भी पीला पड़ जाता है । आवेश के दोनों सिरे लगभग एक जैसी स्थिति के हैं। उत्तरीध्रुव ठंडा है पर पश्चिमीध्रुव में भी शीत कम नहीं है। आग का गुण जलाना है चाहे चन्दन के काष्ठ में प्रकट हो अथवा बबूल की लकड़ी में । दुर्घटनाएं जितना अनर्थ करतीं हैं, कुकल्पनायें भी उससे कम उत्पात खड़े नहीं करतीं। भयभीत भी बेमौत मरते हैं और आवेशग्रस्त भी अपनी क्रोधाग्नि में आप जल मरता है।

अधीरता की तरह की दूसरी सहचरी है लोक लिप्सा। यह कई रूपों में अपना अभिनय प्रदर्शित करती है। जल्दी से जल्दी धनी बनने और अधिकाधिक मात्रा में वैभव बटोरने की ललक लिप्सा का एक रूप है जो सामान्य रीति से उपार्जन करने के लिए आवश्यक श्रम करने और समय पर फल आने देने की प्रतीक्षा नहीं करने देता। हथेली पर सरसों जमाने की उत्कंठा झकझोर कर रख देती है।ऐसा व्यक्ति धन संबंधी अपराध किए बिना नहीं रह सकता अनुचित रीति से किया गया अर्जन निश्चित रूप में दुष्प्रवृत्तियों,दुर्व्यसनों, प्रदर्शनों में खर्च होता है। इसमें दोहरी हानि होती है। बटोरने के समय जितना पाप सिर पर चढ़ता है अपव्यय में भी दुष्प्रवृत्तियों का विस्तार कम नहीं होता । इसलिए अनुचित अर्जन और निषिद्ध अपव्यय दोनों ही एक से एक बढ़कर दुष्परिणाम उत्पन्न करते हैं। कर्ता चक्की के दो पाटों के बीच पिसता है।

लिप्सा का दूसरा नाम है संग्रह। व्यापक क्षेत्र पर अधिकार जमाना है। परिवार से लेकर सम्पदा के अनेक क्षेत्र पर अहंकारी आधिपत्य जमाना। इस प्रवृत्ति से ग्रस्त व्यक्ति उदारता, न्यायनिष्ठ, औचित्य की सभी मर्यादाओं को लाँघने लगते हैं। निरन्तर अधिकाधिक समृद्ध बनने की बात सोचते हैं। इसकी पूर्ति का कोई सीधा तरीका नहीं है। दूसरों के अधिकारों का अपहरण ही मात्र एक तरीका है। समृद्ध कहलाने वालों में से अधिकाँश को यही करना पड़ता है। निष्ठुरता ही इसकी परिणति है दूसरों की स्थिति और आवश्यकता का निष्ठुर को ध्यान ही नहीं रहता। ऐसी दशा में दया, करुणा मैत्री के अंकुर उपजते ही सूख जाते हैं। लोकहित में अपनी सम्पन्नता को विसर्जित करने की बात मन में उठती ही नहीं। विज्ञापन छपवाकर वस्तुओं की बिक्री बढ़ाई जाती है। इसी प्रकार संकीर्ण स्वार्थ परता के दलदल में फँसे हुए लोग मात्र सस्ती वाहवाही लूटने के लिए दान-धर्म का पुण्य परमार्थ का ढकोसला जब तब रच देते हैं। इस प्रयोजन के लिए पैसा तब खर्चते हैं समय तब निकालते हैं जब उन्हें इसके बदले मान मिलने का, विज्ञापन छपने में मुनादी पिटने में, इच्छित मनोरथ पूरी तरह पूरा होता हो। इसमें कमी दिखती है तो वे सोचते हैं कि धंधे में घाटा पड़ गया । ऐसे लोग मन ही मन ऐसे अवाँछनीय ताने बाने बुनते रहते हैं जिनसे आत्मिक शक्ति कम विद्वेष के बीज अधिक पनपते हैं।

लिप्सा का तीसरा स्वरूप है दर्प। दर्प अथवा अपनी धाक जमाना और दूसरों को छोटा सिद्ध करके उनका उपहास उड़ाना, असम्मान करना । इसी निमित्त दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने वाले आडम्बर खड़े किए जाते हैं। अपने मुँह शेखी बघारने में आत्मश्लाघा की प्रशस्ति की कोई कमी नहीं रहने दी जाती है। चाटुकार चारणों के मुँह अपनी यशगाथा सुनते रहने के लिए उन्हें खरीदा और साथ रखे रहा जाता है। अपनी बलिष्ठता सिद्ध करने के लिए दीन दुर्बलों को त्रास देने में कमी नहीं रहने दी जाती। यही है असुर वृत्ति जो दर्प के कारण उभरती है। दुहरा व्यक्तित्व इसी कारण विनिर्मित होता है। कथनी कुछ करनी कुछ । इस प्रकार की विसंगति अंतःक्षेत्र में मल्लयुद्ध जैसा खड़ा कर देती है। उस गृहयुद्ध में समूची मानसिक पृष्ठभूमि का कचूमर निकल जाता है। ऐसा टूटा-फूटा मनः संस्थान अपनी दुर्गति का परिचय क्षण क्षण में देता रहता है खण्डित और अस्त-व्यस्त मन का परिचय चित्र-विचित्र सनकों के रूप में मिलता रहता है। पूर्ण विक्षिप्त पागलखानों की शरण लेते हैं अर्ध विक्षिप्त सनकी स्तर के व्यक्ति गिने तो साधारण लोगों में ही जाते हैं पर अपनी कल्पनाओं के कारण स्वयं हैरान रहते हैं तथा दूसरों को हैरान करते हैं।

मनोविकार एक प्रकार से सनकीपन की स्थिति है। इसका प्रतिफल अनेकानेक भ्रान्तियों, कुविचारों, कुटेवों के रूप में प्रकट होता रहता है। कहना होगा कि प्रत्यक्ष शरीर रोग जितनी हानि पहुँचाते हैं जितने कष्ट देते हैं उससे कम मनोरोगों की परिणति भी कम भयावह नहीं है। अन्तर इतना ही है कि शरीर रोग काय कष्ट देते हैं, परिवार वालों की परिचर्या के लिए विवश करते हैं और धन खर्च कराते हैं। ऐसा ही कुछ मनोरोग भी करते हैं । उनकी परिणति अनेकानेक व्यथाओं, बाधाओं,आपत्तियों के रूप में सामने आती हैं।

अच्छा हो हम विवेक को जाग्रत करें और आए दिन समस्याओं को इस प्रकार हलके फुलके ढंग से सुलझाएँ ताकि वे मनोविकार की स्थिति तक तो न पहुँचने पाएँ।


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