सामयिक संदर्भ- - असामान्य है,प्रस्तुत नवरात्रि पर्व

April 1992

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कुछ समय ऐसे विशिष्ट होते हैं कि उन दिनों अदृश्य जगत औसत समय की अपेक्षा कुछ अधिक ही सक्रिय होता देखा जाता है। उन दिनों परोक्ष जगत के दिव्य प्रवाह अधिकाधिक संख्या में उभरते और व्यापक स्तर पर जीवचेतना को प्रभावित करते देखे जाते हैं। इन अवसरों पर सुसंस्कारी जागृतात्माएं अपने भीतर समुद्रमंथन जैसी हलचलें उभरती देखती एवं अंतराल का परिष्कार कर श्रेष्ठता के पथ पर चलने की प्रेरणा पाती हैं। श्रेष्ठ व्यक्तियों-सत्पात्रों पर दैवी अनुग्रह यों हमेशा ही बरसता है, किन्तु इन विशिष्ट अवसरों पर परमसत्ता कुछ अधिक देने को उतारू हो जाती है वह भी कम पुरुषार्थ की कीमत पर । ऐसे अवसर विशिष्ट पर्व कहलाते हैं एवं वर्ष में दो नवरात्रियों नवदुर्गाओं के रूप में हम सबके लिए विशिष्ट मुहूर्त बनकर आते हैं।

दो ऋतुओं के मिलन की वेला नवरात्रि कहलाती है। यों वर्षा शरद शिशिर, हेमंत, वसंत, ग्रीष्म यह छह ऋतुएं हैं किन्तु प्रधानतया तो दो ही ऋतुएं मानी जाती हैं सर्दी एवं गर्मी। वर्षा तो दोनों ही ऋतुओं में होती है। गर्मियों में सावन-भादो में बादल बरसते हैं तो सर्दियों में पौष व माघ में । गर्मी जब आने को होती है व सर्दी भाग रही होती है तो वह चैत्र की नवरात्रि कहलाती है। जब गर्मी पलायन कर रही होती है व सर्दी का आगमन होने वाला होता है तो वह आश्विन की नवरात्रि कहलाती है, दो प्रधान ऋतुओं का मिलनकाल इस तरह अतिमहत्वपूर्ण है व उसमें भी नौ दिनों की यह विशिष्ट अवधि और भी अधिक।

नवरात्रि एक प्रकार की संधि है। संधि जोड़ या जॉइन्ट को कहते हैं। दो हड्डियां जिन स्थानों पर मिलती हैं वह भाग शरीर में अतिमहत्वपूर्ण भी बन जाता है व नाजुक भी। दिन व रात जब मिलते हैं तो वह भी संधिकाल कहलाता है। सूर्यास्त होते समय दिन का अवसान होता है व रात्रि का आगमन । इस थोड़ी सी अवधि में सूक्ष्म जगत में बड़ी तेजी से हलचलें होती हैं। ऐसा ही कुछ सूर्योदय की ब्रह्म मुहूर्त वेला में होता है जब रात्रि का पलायन होता है व दिन का शुभारंभ प्रकाश की पहली किरण के अवतरण के साथ होता है। इस संध्याकाल को ईश्वराराधना में आत्मिक जगत के पुरुषार्थ में लगाया जाय तो अनायास ही बहुत कुछ मिलने की संभावना रहती है व यदि आलस्य-प्रमाद, शयन, नरपशु की तरह पेट-प्रजनन मात्र में लगा दिया गया तो अनपेक्षित हानि पहुँचने की संभावना रहती है। मनीषियों ने इसीलिए प्रातः-सायं की ब्रह्मसंध्या को तथा फिर दो ऋतुओं को मिलाने वाली नवरात्रि वेला को आध्यात्मिक पुरुषार्थ हेतु ही समर्पित की जाने योग्य बताते हुए इनका विशेष महत्व ग्रंथों में प्रतिपादित किया है। आर्षग्रंथों में कहा गया है कि नारी की तरह ऋतुएं नौ दिन के लिए ऋतुमती-रजस्वला होती हैं। जैसे रजस्वला को आहार-विहार का, विश्राम आदि का विशिष्ट ध्यान रखना होता है वैसे ही इस संध्याकाल का, संधिवेला का महत्व माना जाना चाहिए।

वसन्त के आते ही कोयलें कूकने लगती हैं। तितलियाँ फुदकती व भौंरे गुँजन करते देखे जाते हैं। ठण्डक का संताप, ठिठुरन एवं निष्क्रियता भरा वातावरण ही चारों ओर संव्याप्त होता देखा जाता है। यह ऋतु परिवर्तन का चमत्कार है। इसी तरह गर्मी की उमस व तपन देखते-देखते कम होने लगती है व वातावरण में हलकी हलकी गुलाबी सी मन को अच्छी लगने वाली ठण्डक छा जाती है। यह आश्विन ऋतु के आगमन की शरद की पूर्ववेला है जो यह इंगित करती है कि दो प्रधान ऋतुएं बदल रही हैं। इन दिनों सूक्ष्म जगत में ऐसे विलक्षण स्तर के दिव्य प्रवाह उभरते मानवीचेतना को प्रभावित करते देखे जाते हैं, जिनका यदि उपयोग कर लिया जाय तो आध्यात्मिक क्षेत्र की सफलताएँ मिलने का सुयोग अनायास ही बन जाता है। जीवधारियों में से अधिकाँश को इन्हीं दिनों प्रजनन की कामुकता की उत्तेजना सताती है। इन दिनों अपनी उत्तेजना पर नियंत्रण कर उभरने वाले शक्ति प्रवाह का यदि ऊर्ध्व गमन कर सुनियोजन कर लिया जाए तो आत्मिक प्रगति का पथ सहज ही प्रशस्त होता चला जाता है।

जिस प्रकार ज्वार-भाटे रोज नहीं अमावस्या पूर्णिमा को ही आते हैं तथा अदृश्यजगत से प्रभावित कहे जाते हैं, ठीक उसी प्रकार नवरात्रियों में अंतर्जगत में कुछ ऐसी विशिष्ट उमंगों का उभार जन्म लेता है जो अन्य दिनों में नहीं देखा जाता। तब कुछ ऐसा बन पड़ता है मानों अदृश्यजगत से अप्रत्याशित अनुदान सत्पात्र पर बरस रहा हो। चिकित्सकगण बताते हैं कि ऋतु परिवर्तन के दिनों में विशिष्टतः चैत्र व आश्विन की इन संधिबेलाओं में शरीर व मन अत्यधिक प्रभावित होते हैं। इनके प्रभाव से स्वास्थ्य के बुरी तरह प्रभावित हो व्यक्ति के शारीरिक दृष्टि से रोगी व मनोविकारों से ग्रसित होने की संभावनाएं अधिक रहती हैं । अनेक व्यक्ति वायरल बुखार, मलेरिया, दस्त,जुकाम, उत्तेजना-अवसाद से ग्रसित इन्हीं दिनों होते देखे जाते हैं। इसी कारण वैद्यगण वमन विरेचन, नस्य, स्वेदन, वस्ति रक्तशोधन जैसे कार्यों के लिए चैत्र व आश्विन के माहों को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हुए व्यक्ति को नीरोग बनाकर उसकी जीवनीशक्ति को उभारने के इन दिनों विशेष प्रयास करते हैं। कायाकल्प के प्रयोग इन्हीं दिनों किये जाते हैं। नीमगिलोय-सारिवाँ जैसे रक्त शोधक व अश्वगंधा-घृतकुमारी जैसे रसायन इन्हीं दिनों लिये जाने पर शरीर को अत्यधिक लाभ पहुँचते हैं। वस्तुतः शरीर में तीनों ही बात, पित्त, कफ के दोषों के कुपित होकर शरीर की जीवनी शक्ति को एक बारगी ही झिंझोड़ देने की प्रक्रिया उन्हीं दिनों ही सम्पन्न होती है। विगत छः माह में हमसे आहार-विहार की जो भी अनियमितताएँ हुई हैं, जो भी दूषित तत्व आहार श्वास द्वारा हमने ग्रहण किया उनके निराकरण का अर्थ पुरुषार्थ इन्हीं दिनों संपन्न होता है। यदि उपवास या स्वल्पाहार द्वारा शरीर को अपनी सफाई आप कर लेने का मौका दे दिया जाय तथा जप-उपासना द्वारा मनःक्षेत्र में छाये कषाए-कल्मषों का निवारण कर उसकी स्वच्छता का प्रयास नवरात्रि में कर लिया जाय तो न केवल नीरोग स्वस्थ जीवन बिता पाना शक्य है, वरन् आत्मशक्ति संवर्धन द्वारा समस्त प्रतिकूलताओं से लड़ते हुए अपना भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों से उत्कर्ष भी संभव है। इस दृष्टि से नवरात्रि एक असामान्य अवसर जनसाधारण के लिए लेकर आती है।

वस्तुतः नवरात्रि देवपर्व है। इसमें देवत्व की प्रेरणा व अनुकम्पा बरसती है। विशेष रूप से इन नवरात्रियों का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब सामूहिक रूप से करोड़ों साधक इसे शक्ति साधना वर्ष में संपन्न कर रहे हैं। सर्वविदित है कि युगसंधि काल के अंतिम बारह वर्षों के चौथे वर्ष में हम प्रवेश कर चुके हैं। आने वाले नौ वर्ष नवयुग के देवत्व प्रधान युग के अवतरण के पूर्ववेला के वर्ष हैं व इनका एक एक दिन नवरात्रि की नौ दिवसीय वेला के एक -एक पल की तरह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस अवधि में बड़े व्यापक स्तर पर परिवर्तन हम सभी पूरे विश्व पटल पर संपन्न होते देखेंगे। सूक्ष्म जगत में छायी विषाक्तता के शमन हेतु सामूहिक आध्यात्मिक पुरुषार्थ की महत्ता सभी जानते हैं । युगसंधि में पड़ रही प्रत्येक नवरात्रि में विशेष संभावनाएँ उस बात कर हैं कि उनमें अदृश्य लोकों से देवत्व की अतिरिक्त वर्षा होगी व इस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता संपन्न होता दृष्टिगोचर होने लगेगा। विगत एक वर्ष से चल रही शक्ति साधना से करोड़ों नहीं, अरबों की संख्या में गायत्री जप स्थान-स्थान पर भारत व पूरे विश्व में संपन्न हुआ। अब विगत वसंत से शक्ति संचार की प्रक्रिया का शुभारंभ हुआ है जिसमें विशिष्ट पुरुषार्थ द्वारा साधक अतिरिक्त देवत्व व आत्मशक्ति पाने के लिए परमपूज्य गुरुदेव की सूक्ष्म व कारणसत्ता से अपना संबंध जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं । जून में इस वर्ष की साधना की पूर्णाहुति एक विराट शपथ समारोह में होगी व फिर देव संस्कृति विस्तार वर्ष का शुभारंभ हो जाएगा। इस प्रकार यह अवसर हर दृष्टि से अति विलक्षण व लाखों वर्षों में कभी-कभी आने वाले क्षणों में से एक है।

इस वर्ष की चैत्र नवरात्रि चैत्रशुक्ल प्रतिपदा 14 अप्रैल से नवमी(12 अप्रैल)की अवधि में पड़ रही है। सब प्रज्ञासंस्थानों, शाखाओं, प्रज्ञामंडलों द्वारा इसे सामूहिक स्तर पर तथा साधकों द्वारा अपने स्तर पर इसे मनाया जाय। इन दिनों उपवास रखकर चौबीस हजार मंत्रों के जप का एक छोटा सा अनुष्ठान संपन्न कर लिया जाय। उपवास में निताँत जल पर न रहकर कड़ी तितिक्षा के बजाय एक समय अन्नाहार- जिसमें रोटी सब्जी या दाल चावल या अमृताशन लिया जाय व एक समय फलाहार दूध ले लिया जाय। अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही व्रत करना चाहिए। लक्ष्य स्पष्ट रहना चाहिए शरीर मन की बुद्धि व सतोगुण वृद्धि का अभ्यास । यह ध्यान रहेगा तो फलाहार के नाम पर तली चीजों व फलों का अतिभक्षण करने से बचा जा सकेगा। सामान्यतया अतिवाद ही देखा जाता है। या तो कुछ नहीं खाकर अति दुर्बल होने की दशा में लोग बढ़ते देखे जाते हैं अथवा अत्यधिक खाकर (भले ही खाद्य फलाहारी हो) पेट को बिगाड़ते देखे जाते हैं। यदि दोनों समय रोटी- शाक जैसी दो वस्तुओं का जोड़ा सीमित सम रूप में लेते रहा जाय तो उसे भी हलके उपवास में गिना जा सकता है। बालकों, बीमारों, वृद्धों व गर्भवती स्त्रियों के लिए ऐसे सरल उपवास का ही परामर्श दिया जाता है। क्षुधा से पैदा हुई विक्षुब्धता तो साधक के लिए अनुष्ठान प्रक्रिया में शाँत मनःस्थिति के स्थान पर व्यतिरेक व तनाव और पैदा करती है।

नवरात्रि में कुछ और तितिक्षाएँ जीवन को ब्रह्मनिष्ठ बनाने का अभ्यास करने की दृष्टि से निभाई जाती है। इनमें ब्रह्मचर्य का पालन-शारीरिक व मानसिक दोनों दृष्टियों से, भूमिशयन, चमड़े की वस्तुओं का परित्याग व स्वयं सेवक के वृत्ति के विकास हेतु अपना काम स्वयं करना आता है। जहाँ तक जिनके लिए जितने अनुबंधों का पालन कर सकना संभव हो, वे उसमें कड़ाई-सतर्कता व ईमानदारी बरत कर निभाएं भूमिशयन से अर्थ है कोमलता के स्थान पर कठोरता को अपनाना । हर परिस्थिति से स्वयं का तालमेल बिठाने के लिए अपना आपा तैयार करना । यह प्रयोजन पलंग छोड़कर लकड़ी के तख्त पर सोकर भी पूरा हो सकता है। चिन्हपूजा न हो बल्कि तपश्चर्या में सन्निहित आदर्शों के लिए कष्ट सहन करने में प्रसन्नता अनुभव करने की मनःस्थिति विनिर्मित की जाय। जमीन पर फोम का गद्दा डालकर सोने से यह प्रयोजन पूरा नहीं होता, यह ध्यान रखा जाय।

आज भी चमड़े पशुवध से प्राप्त होते हैं। चमड़े के बने बैठने के आसन, पहनने के जूते, व कमर के बेल्ट आदि से परहेज रखने से मतलब है कि इन नौ दिनों में स्वयं को सतोगुणी बनाने का अभ्यास करके आगे भी इसी क्रम को चलाते रहने का व्रत लेना । इससे “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की अध्यात्म मान्यता और बलवती होती चली जाती है। प्रकारान्तर से नवरात्रि में चर्मत्याग के पीछे अहिंसावृत्ति के विकास का तत्वज्ञान जुड़ा हुआ है। स्वयं सेवा से तात्पर्य है अपना काम स्वयं करना। अपने कपड़े धोने से लेकर अन्यान्य कामों के लिए हम दूसरों पर निर्भर रहते हैं । एक व्रत नौ दिन तक यह भी निभाया जाय कि हम यथा संभव शरीर को कष्ट देकर उससे उसके सारे क्रियाकलाप चला लेंगे। ऐसा स्वावलम्बन न हो जो अव्यावहारिक हो । माता, पिता, पत्नी, संतान की गणना उस समुदाय में होती है, जिनकी शरीर सेवा हम करते हैं। उनका श्रम बदले में एक समय का भोजन आदि रूपों में स्वीकार किया जा सकता है।

नवरात्रि अनुष्ठानों में उपवास द्वारा जो कुछ बचाया जाता है, उसे पूर्णाहुति के अंतिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च करते हैं । ब्रह्मभोज से तात्पर्य है सत्कर्मों से परिपोषण हेतु किया गया पुण्य। सामूहिक रूप से किया गया यज्ञ तथा सम्पन्न ब्रह्मभोज द्वारा या इस प्रयोजन के लिए दी गयी सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त दानराशि द्वारा भी यह उपक्रम पूरा हो जाता है। कुमारिका पूजन भी नवरात्रि उपक्रम के साथ जुड़ा हुआ है। इसके पीछे मूल तत्वदर्शन यह है यौवन का उभार खिलते फूल की तरह मात्र देखा जाय। उसे देखकर मन में वासना-कुत्सा न उठे वरन् देवी के प्रति सम्मान का भाव जगे। यह आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य है। व्रतशीलता की दिशा में बढ़ाते चलन का यह एक ऋषि प्रणीत उपक्रम है।

उपासनाक्रम जो नवरात्रि में चलता है, उसमें माला की गिनती पर अधिक ध्यान न देकर जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया समय विशेष में पूरी की जाय । होता यह है कि ध्यान गिनती में या सुमेरु की गति पर ज्यादा चला जाता है। सारा उद्देश्य इससे समाप्त हो जाता है । ढाई घण्टे न्यूनतम रोज जप किया जाय व भावनापूर्वक ध्यान सविता के महातेज का गायत्री की सद्बुद्धि प्रेरणा दायिनी शक्ति का किया जाय तो निश्चित ही यह अनुष्ठान साधना भौतिक एवं अध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से अनेकों उपलब्धियाँ हस्तगत कराती है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है प्रस्तुत नवरात्रि पर्व हर वर्ष मनाये जाने वाले पर्वों की तरह सामान्य नहीं, वरन् असाधारण स्तर का है। एक ऐसा अवसर है जो हर कभी बार-बार नहीं आने वाला युगसंधि वेला की उल्टी गिनती चालू हो चुकी है व अब शीघ्र ही नवयुग का अरुणोदय होने वाला है। उसके पूर्ण संकेत दिखाई पड़ रहे हैं। यदि समय रहते आध्यात्मिक पुरुषार्थ कर स्वयं को महाचेतना के आदि स्रोत से जोड़ लिया जाय तो इससे बड़ी समझदारी और क्या हो सकती है?


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