प्रत्यक्ष से परे परोक्ष

April 1992

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दृश्य जगत को ही सबकुछ मानने वाले लोगों की मान्यता है कि सृष्टि वहीं तक सीमित है, जहाँ तक हमारी आंखें देखती हैं । यदि इसी मान्यता को सर्वोपरि मान लिया जाय तो, तो ईश्वरीय अस्तित्व संबंधी अवधारणा ही नहीं अनेक वैज्ञानिक सिद्धान्त भी निराधार साबित होंगे अस्तु इस प्रत्यक्षवादी चिन्तन में संशोधन की आवश्यकता है।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यदि नेत्र की दृश्य सीमा को ही अस्तित्व समझा जाता तो अगणित सूक्ष्म जीवाणुओं की सत्ता को हमें अस्वीकारना पड़ता, पर विज्ञान ऐसा नहीं करता । उसने अनेक ऐसे यंत्र-उपकरण विकसित किए हैं, जिसके माध्यम से अपने इर्द-गिर्द उड़ते-विचरते असंख्य सूक्ष्म जीवियों को देखा जा सकता है। यह बात और है कि नंगी आँखें उन्हें नहीं देख पातीं। उतने पर भी विज्ञान उनके अस्तित्व से इनकार नहीं करता ।

मात्र स्थूल दृष्टि का ही आधार यदि महत्वपूर्ण रहा होता तो रक्त के संबंध में शरीर शास्त्र की विचारणा आज कुछ और होती । ज्ञातव्य है कि रुधिर देखने में एक तरल पदार्थ लगता है, पर जब उसकी एक बूँद माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर अवलोकन किया जाता है, तब ज्ञात होता है कि चक्षु कितने भ्रमपूर्ण थे । जो पदार्थ मोटी दृष्टि को केवल प्रवाहमान तरल प्रतीत होता था वह अपरिमित कणों से मिलकर बना है- इस तथ्य की जानकारी तो सूक्ष्मदर्शी से ही हो पाती है।

यों जानकारी के संबंध में पैमाने का निर्धारण भी एक महत्वपूर्ण बात है। प्रत्यक्ष जगत में लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, दबाव, तापमान आदि नापने के लिए कई प्रकार की इकाइयों की व्यवस्था हैं उनकी माप प्रायः इन्हीं में की जाती है। लम्बी दूरियों के लिए सौर वर्ष जैसी बड़ी इकाइयों का इस्तेमाल किया जाता है। इसका प्रयोग अक्सर खगोलीय पिण्ड की असाधारण दूरियों को मापने में होता है। इस क्रम में दूरी जैसे- जैसे घटती जाती है, इकाई को भी तद्नुरूप छोटा करने का सामान्य प्रचलन है। फिर क्रमशः वह घटते- घटते मील, किलोमीटर, गज, फुट, इंच, से. मीटर तक पहुँच जाती है। उससे छोटी माप के लिए मिली मीटर पैमाने का इस्तेमाल होता है, किन्तु जब केश बराबर मुटाई का मापना हो, माइक्रोन, मिली माइक्रोन एवं एंग्स्ट्राम जैसी अतिशय छोटी इकाइयों का ही प्रयोग करना पड़ता है। इंच फुट के बड़े पैमाने में इसे नापना कठिन है।

यही बात पक्ष यज्ञ के संबंध में भी लागू होती है। दृष्टि एक निर्धारित सीमा को ही देख पाती है। विज्ञान ने इसका निर्धारण वैनिआहपीनाला जैसे प्रकाश तरंगों के रूप में किया है। इसी तरंग दैर्ध्य के प्रकाश को देखने में हमारी आंखें सक्षम होती हैं। इससे उच्च और निम्न तरंग लम्बाई वाली किरणों के हमारे नेत्र देख नहीं पाते। इस आधार पर यह कहना कि प्रकाश रश्मियाँ मात्र इतनी ही हैं, ठीक नहीं। इस सीमा क्षेत्र से परे भी इतनी सूक्ष्म रश्मियाँ हैं, जिनका पता अभी भी विज्ञान नहीं लगा पाया है। उसकी जानकारी मात्र नौ प्रकार की किरणों तक ही सीमित है, जिसमें सात दृश्य हैं और दो अदृश्य स्तर के, जिन्हें यंत्रों के सहारे अपनी दृश्य क्षमता को और अधिक सूक्ष्म बनाकर ही देख पाना संभव है यह है बैंगनी से नीचे पराबैंगनी एवं लाल से ऊपर अवरक्त ।

सुनने की भी ऐसी ही सुनिश्चित सीमा-रेखा है। हम उन्हीं ध्वनियों को सुन समझ पाते हैं, जिनका कम्पन 20-20000 हर्ट्ज के बीच होता है । इससे कम और उच्च कम्पन सूक्ष्म जगत की चीज है। उन्हें स्वयं को सूक्ष्म रूप में विकसित करके ही समझा जा सकता है। लट्टू की गति अब तीव्र होती है, तब वह स्थिर जान पड़ता है और जब अत्यन्त धीमी होती है, तब भी ऐसा ही प्रतीत होता है क्योंकि उस गति को दृष्टि पकड़ नहीं पाती । वह उसकी दृश्य क्षमता से परे की है। पृथ्वी दिन रात घूमती रहती है पर उसके परिभ्रमण को हम कहाँ देख पाते हैं? कारण कि अपेक्षाकृत वह गति धीमी है। इसलिए इन्द्रियों को उसका आभास नहीं मिल पाता ।

तात्पर्य एक ही है कि स्थल स्थिति में रहकर सूक्ष्म को जान समझा पाना संभव नहीं । इसके लिए तरीका एक ही है माप की इकाई की तरह सूक्ष्म की ओर अग्रसर होने के साथ- साथ स्वयं को सूक्ष्म रूप में विकसित करते चलना। इसी प्रक्रिया द्वारा स्थल जगत में रहकर सूक्ष्म जगत की जानकारी प्राप्त कर पाना शक्य है। इस सिद्धान्त को भली-भाँति न समझ पाने के कारण ही प्रत्यक्षवादी लोग ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में नास्तिकतावादी मान्यता का प्रतिपादन करते रहे हैं। यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि जब स्थूल सत्ता वाले सूक्ष्म स्तर के जीवाणुओं को ही आंखें नहीं परख पातीं तो सर्वथा चेतनात्मक रूप में विद्यमान ईश्वरीय अस्तित्व को किस भाँति जान सकेंगी इस संबंध में नियम ही यही है कि किसी वस्तु को ठीक प्रकार समझने के लिए स्वयं को भी उसी स्तर तक पहुँचाना पड़ता है, तभी जानकारी सही और सत्य मिल पाती है। इससे कम में नहीं।

प्राचीन चीन में जब किसी चित्रकार को किसी झाड़ी का चित्र बनाना होता था। तो वह झाड़ी के समीप लम्बे काल तक तब तक बैठा रहता, जब तक स्वयं उसकी अनुभूति न प्राप्त कर लेता। जब वह यह अनुभव करने लगता कि स्वयं ही झाड़ी हो गया है, तभी उसका चित्र बनाना आरंभ करता और इस स्थिति में जो तस्वीर बनती उसे देखने से ऐसा प्रतीत होता, मानो झुरमुट को ही कैनवस पर उखाड़ कर रख दिया गया हो । इससे पूर्व का प्रयास ऐसा जान पड़ता है जैसे कागज को किसी प्रकार काला कर दिया गया हो । यही बात ईश्वर के संबंध में भी कही जा सकती है। उसके अस्तित्व को समझाने के लिए बुद्धि और दृष्टि की सूक्ष्मता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।

वैसे ईश्वरीय सत्य के संबंध में एक तथ्य यह भी है कि बहुत कुछ अनुमान के आधार पर भी जाना समझा जा सकता है। प्रत्यक्ष प्रमाणों में इसकी भी गणना होती है। जैसे धुँआ को देखकर आग का सहज ही अनुमान हो जाता है, वैसे ही इस सुव्यवस्थित व सुविकसित सृष्टि को देखकर भगवद् सत्ता को स्वीकारा जा सकता है। खगोल शास्त्रियों का पृथ्वी के गोल होने के संबंध में एक तर्क यह भी है कि सभी ग्रह गोल हैं। पृथ्वी भी एक ग्रह है। अतः वह भी गोल होगी । यहाँ अनुमान प्रमाण का सहारा लेते हुए ही ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, पर यह प्रयास काफी पुराना हो चुका। प्रस्तुत दलील तब की है जब इसे प्रमाणित करने के लिए विज्ञान के पास उपयुक्त यंत्र उपकरण नहीं थे। तब तर्क शास्त्र का उक्त तरीका ही सर्वोपरि माना गया अब तो पृथ्वी संबंधी यह तथ्य असंदिग्ध सिद्ध हो चुका है।

परम सत्ता के संदर्भ में भी हमें ऐसी ही आशा करनी चाहिए कि आने वाले समय में इस संबंध में किसी प्रकार की साक्ष्य की आवश्यकता न रहेगी। प्रायः सभी अपनी विकसित सूक्ष्म बुद्धि द्वारा इस सत्य को समझ ही नहीं, वरन् स्वीकार भी कर सकेंगे की भगवान का सुनिश्चित अस्तित्व है और उसे स्थूल चेतना द्वारा समझ पाना संभव नहीं।


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