पूर्णता की ओर अग्रसर हम सब!

April 1992

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पूर्णता को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। न केवल चेतन समुदाय, अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण इसके लिए लालायित और गतिशील है। भौतिक जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, पर जो धनाढ्य हैं उन्हें भी संतोष नहीं । उसी के परिणाम में वह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है, बड़े-बड़े सम्राट तक अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिए आपाधापी मचाते और दूसरे साम्राज्यों की लूटपाट करते पाये जाते हैं, तो लगता है सृष्टि का हर प्राणी साधनों की दृष्टि से अपूर्ण है। इस दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की हुड़क हर किसी में चढ़ी बैठी दिखाई देती है।

इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित या विज्ञान में शून्य पाता है तो वह अपने आपको अपूर्ण अनुभव करता है। भूगोल का चप्पा-चप्पा छान डालने वाले को संगीत के स्वर बेचैन कर देते हैं, उसे अपना ज्ञान थोथा दिखाई देने लगता है। बड़े-बड़े चतुर वकील और बैरिस्टरों को जब रुग्णता के कारण डाक्टरों के शरण में जाना पड़ता है तो उनका अपने ज्ञान का अभिमान चकनाचूर हो जाता है। बौद्धिक दृष्टि से हर प्राणी हर प्राणी सीमित है, और हर कोई अगाध ज्ञान का पण्डित बनने को तत्पर दिखाई देता है।

नदियाँ अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिए सागर की ओर भागती हैं । वृक्ष आकाश छूने दौड़ते हैं। धरती स्वयं भी अपने आपको नचाती हुई न जाने किस गन्तव्य की ओर अधर आकाश में भागी जा रही है। अपूर्णता की इस दौड़ में समूचा सौर मण्डल और उससे परे का अदृश्य संसार भी सम्मिलित है । पूर्णता प्राप्ति की बेचैनी न होती तो संभवतः विश्व ब्रह्मांड में रत्ती भर की सक्रियता न होती, सर्वत्र नीरव, सुनसान पड़ा होता, न समुद्र उबलता, न मेध बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न ही वे विराट की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते।

जीवन की सार्थकता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण हैं, असत्य हैं, अन्धकार में हैं। हमारे सामने मृत्यु मुँह बाये खड़ी है। अन्धकार, असत्य और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए हम प्रकाश, सत्य और अमरता की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। पर ऐसा हो नहीं पाता । हर कोई अपने आपको अशक्त और असहाय पाता है, अज्ञान के अन्धकार में हाथ-पैर पटकता रहता है।

इस अपूर्णता पर जब कभी विचार जाता है तब एक ही तथ्य सामने आता है और वह है ‘परमात्मा’ अर्थात् एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिए कुछ भी अपूर्ण नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी, सर्वदृष्टा नियामक और एक मात्र अपनी इच्छा से ओतप्रोत है।

विकासवाद के जनक चार्ल्स डार्विन ने यह सिद्धान्त तो प्रतिपादित कर दिया कि प्रारंभ में एक कोशीय जीव-अमीबा की उत्पत्ति हुई। यही अमीबा फिर हाइड्रा में विकसित हुआ। हाइड्रा से क्रमशः कीट-कृमि, केंचुआ, कीट-पतंगे, तारामछली आदि से यह मछली, मेढक, सर्प, पक्षी स्तनधारी जीवों आदि की श्रेणियों में विकसित होता हुआ वह बन्दर की शक्ल तक पहुँचा । आज का विकसित मनुष्य शरीर इसी बन्दर की सन्तान है। इसके लिए शरीर रचना के कुछ खाँचे भी मिलाये गये । जीवाश्म खोज निकाले गये । जहाँ नहीं मिले वहाँ यह मान लिया गया कि वह कड़ियाँ लुप्त हैं और कभी समय पर उसकी भी जानकारी हो सकती है।

इस प्रतिपादन में डार्विन और इस सिद्धान्त के अध्येता वैज्ञानिक यह भूल गये कि अमीबा से ही नर मादा दो श्रेणियाँ कैसे विकसित हुई? अमीबा एक कोशीय था, उससे बहुकोशीय हाइड्रा पैदा हुआ। क्या अन्य सभी जीव इसी गुणोत्तर श्रेणी में आ सकते हैं? यदि सर्पणशीली जीवों में परधारी जीव विकसित हुए तो वह कृमि जैसे-चींटे, पतंगे, मच्छर आदि कृमि-कीटक जो उड़ लेते हैं, वे किस विकास प्रक्रिया में रखे जायेंगे? पक्षी, जल-जन्तु और कीड़े सभी माँस खाते हैं। स्तनधारी उन्हीं से विकसित हुए तो फिर गाय, भैंस, बकरी, हाथी आदि पशु माँस क्यों नहीं खाते? नर हाथी के दाँत होते हैं, पर मादा हाथी के नहीं, मुर्गे में कलगी होती है मुर्गी में नहीं। मोर के रंग-बिरंगे पंख और मोरनियाँ बिना पंख वाली -विकास प्रक्रिया में एक ही जीव श्रेणी में यह अन्तर क्यों? प्राणियों में दांतों की संख्या, आकृति, प्रकृति में अंतर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते हैं। पक्षियों की अपेक्षा सर्प और कछुए हजारों वर्श की आयु वाले होते हैं। यह सभी असमानतायें इस बात का प्रमाण हैं कि सृष्टि रचना किसी विकास का परिणाम नहीं, वरन् किसी स्वयंभू चेतन सत्ता द्वारा विधिवत् रची गई कलाकृति है। विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि अपने सुविधापूर्ण जीवन के लिए प्रबल इच्छा ने उन प्राणियों के शरीर संस्थानों में अन्तर किया और यह अन्तर स्पष्ट होते-होते एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता हुआ जीव विकसित हो गया। थोड़ी देर के लिए ये बात मान लें और मनुष्य शरीर को इस कसौटी पर कसें तो भी बात विकासवाद पर ही बैठेगी । मनुष्य कब से पक्षियों को स्वच्छन्द आकाश में उड़ता देखकर स्वयं भी स्वतंत्र उड़ने को लालायित है, किन्तु उसके शरीर में आज तक कहीं कोई पंख उगा क्या? समुद्र में तैरती मछलियों एवं जहाज को देखकर हर किसी का मन करने लगता है कि हम भी गोता लगायें और मछलियों की तरह कहीं से कहीं जाकर घूम आयें, पर वह डूबने से बच पायेगा क्या?

ये प्रश्न अब उन लोगों को भी विपरीत दिशा में सोचने और परमात्म सत्ता के अस्तित्व में होने की बात मानने को विवश करते है जो कभी डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त के समर्थक रहे हैं । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी राबर्ट ए. मिल्लरीकान ने इस संदर्भ में गहन अध्ययन किया है। उनका कहना है कि विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में ही वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण करता है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा ही पैदा करती है। आम के बीज से इमली पैदा होते किसी ने नहीं देखी । इस तरह के बीज और ऊपर वर्णित विलक्षण रचनायें पैदा करने वाली सत्ता एक मात्र परमात्मा ही हो सकता है। वही अपने आप में एक परिपूर्ण समर्थ सत्ता है और वही विभिन्न इच्छाओं, अनुभूतियों, गुण तथा धर्म वाली परिपूर्ण रचनायें सृजन करता है।

क्रमिक विकास को ही नहीं, वरन् भारतीय दर्शन पूर्णता से पूर्णता की उत्पत्ति मानता है। श्रुति कहती है-

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

अर्थात् पूर्ण परब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत-पूर्ण मानव की उत्पत्ति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है। नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर होता है। दूर होते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ, इसलिए अपने में स्वयं पूर्ण है। यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुखों से त्राण नहीं हो पाता तो इसका मात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रूप से हर किसी में विद्यमान रहती है।

शूद्रता की परिधि को तोड़कर पूर्णता प्राप्त कर लेना हर किसी के लिए संभव है । मनुष्य की चेतन सत्ता में वह क्षमता मौजूद है जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को विकसित कर उनका उपयोग करते हुए देवोपम जीवन जी सकता है, षट्चक्रों एवं पंचकोशों में समाहित विलक्षण क्षमताओं-सिद्धियों का स्वामी बन सकता है। यह क्षमता उसने खो दी है। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर लाभ उस क्षमता से उठा सकना संभव होता है। यह उस प्रचंड क्षमता का एक स्वल्प अंश मात्र है, जब कि क्षमता की दृष्टि से वह उतना ही परिपूर्ण है जितना कि उसका सृजेता। इस चरम लक्ष्य की ओर ज्ञात-अज्ञात रूप से हर कोई अग्रसर है।


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