मनुष्य का अहंकार (Kahani)

April 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भक्त को अपनी साधना पर बड़ा गर्व था । एक दिन देव ऋषि नारद उधर से निकले । उसने कहा भगवान् यदि आपकी भगवान से भेंट हो तो, इतना पूछने का कष्ट अवश्य करें कि मेरी मुक्ति कब तक होगी और साधकों में मेरा स्थान कौन-सा है?

नारद जी की भेंट जब भगवान से हुई तो अन्य विषयों के साथ उन्होंने साधक की जिज्ञासा को भी कह सुनाया ।

भगवान बोले उस साधक का तो यहाँ नाम तक नहीं । उसे अपने करे धरे पर कहीं घमण्ड तो नहीं रहता । ऐसे लोग स्वर्ग, मुक्ति से तो वंचित रहते ही हैं, लोक सम्मान भी गवाँ बैठते हैं।

नारद ने आकर साधक को सारी वस्तु स्थिति से अवगत कराया । उस दिन से साधक ने अपने जीवन में हेर फेर कर पूर्णतया परिवर्तित कर लिया ।फलतः आध्यात्मिक और भौतिक लाभ भी उसके जीवन में जल्द ही दिखाई देने लगे।

मनुष्य का अहंकार उसे अट्टालिका के कंगूरे पर बैठे कौवे की भाँति बना देता है।

व्याख्यान से पहले पादरी ने चर्च में बैठे श्रोताओं से पूछा कि सत्य पर बोलने से पहले वह जानना चाहता है कि आप लोगों में से मैथ्यू का छत्तीसवाँ अध्याय किन-किन लोगों ने पढ़ा है। एक श्रोता को छोड़कर सभी ने हाथ उठाया कि हमने पढ़ा है। पादरी ने कहा-बस तब ठीक है। फिर आप लोगों के लिए सत्य पर बोलना, सत्य का महत्व बतलाना परम आवश्यक है, किन्तु पादरी बहुत हैरान हुआ कि इतने लोग सत्य को क्यों नकारते हैं। मैथ्यू का छत्तीसवाँ अध्याय तो होता ही नहीं। जैसे गीता का बीसवाँ व उन्नीसवाँ अध्याय नहीं है । इसी तरह मैथ्यू का छत्तीसवाँ अध्याय भी नहीं है। पादरी को फिर भी संतोष था कि पूरी सभा में एक श्रोता फिर भी सत्य के प्रति सावधान है। प्रवचन के उपरान्त वह उस श्रोता के पास गया और पूछा -महाशय आपने हाथ क्यों नहीं उठाया । क्या आपने मैथ्यू का छत्तीसवाँ अध्याय नहीं पढ़ा है। वह बोला मैं कम सुनता हूँ । पहले मैंने आपका प्रश्न ठीक से सुना नहीं था। वह तो मैं नित्य ही पढ़ता हूँ पादरी ने सिर पीट लिया। सत्य का आखिरी स्तम्भ भी गिर गया


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles