औघड़दानी उसे कहते हैं जो अनायास ही भक्तों पर प्रसन्न हो अपनी विभूतियाँ लुटाता रहता है । बाबा भोलेनाथ इसी नाम से प्रसिद्ध भी हैं। कालजयी, महाकाल समुद्रमंथन से निकले हलाहल को, वारुणी को अपने कण्ठ में धारणकर देवसत्ताओं को अमृतपान का लाभ देते हैं। हमारी गुरुसत्ता परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जिनने मानवता के निमित्त दुष्प्रवृत्तियों का हलाहल स्वयं धारण कर विश्वहितार्थाय जीवन जिया, उनका वही साक्षात शिवरूप हममें से अनेकों ने प्रत्यक्ष अपने जीवन में देखा है। अगणित परिजन उनके द्वारा प्रदत्त संजीवनी शक्ति से लेकर दैवी संरक्षण तथा भौतिक विभूतियों से लेकर आध्यात्मिक सिद्धि के पात्र विगत साठ वर्षों में बने इन प्रसंगों को पढ़कर सहज ही मन में पुलकन व स्फुरणा होती है कि ऐसी सत्ता के अंशधर यदि हम हैं तो कोई हमारा क्या बिगाड़ सकता है। वे नहीं हैं स्थूलतः तो क्या, उनकी दैवी रक्षाकवच तो हमारे चारों ओर यथावत विद्यमान है। वह सूक्ष्म सत्ता भी हर परिजन के समक्ष ही है जो जब कातर भाव से माँगा जाय तो सब कुछ देने को आतुर है।
अनुभूतियों के पिटारे को खोलकर विगत आधे शतक के घटनाक्रमों पर दृष्टि डालते हैं तो अगणित ऐसे प्रसंग देखने को मिलते हैं, जिनसे परमपूज्य गुरुदेव की सत्ता के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं । वैद्य श्रीमदनलाल श्रोत्रिय राजस्थान के एक प्रखर कार्यकर्ता रहे हैं। उन दिनों वे राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय पहुना जि. चित्तौड़गढ़ में सेवारत थे। एक दिन मथुरा में गायत्री तपोभूमि में पूज्य गुरुदेव के साथ बैठे थे । चर्चा चलती रही, फिर पूज्य गुरुदेव घीयामण्डी चल पड़े । साथ में उन्हें भी लेते गए। विभिन्न प्रसंगों पर चर्चा होती रही। घीया मण्डी में घर की छत पर बैठे वार्ता प्रसंग को उनने सहज ही विराम देते हुए कहा कि “मदन तुम्हें कुछ जरूरत हो तो माँग लो।” इनने कहा तो नहीं कि यह चाहिए पर सहज विनम्रतावश कहा कि “सब कुछ पूज्यवर आपका ही दिया हुआ है। कुछ भी तो नहीं चाहिए।” तो गुरुदेव बोले-”अच्छा! कल से किसी को मिट्टी की पुड़िया भी दोगे तो रोगी ठीक होते जाएँगे। विश्वासपूर्वक देना व जीवन भर हमारा काम करना। ”वैद्य जी श्रोत्रिय जी बताते हैं कि इसके बाद अनगिनत असाध्य रोगियों को उनने गायत्री मंत्र बोलकर एक ही दवा दी यज्ञ की भस्म के साथ रोग के लिए दी जाने वाली वनौषधि का चूर्ण, क्वाथ या असाव । देखा कि कई बार दवाएँ बदल जाने पर रोगी ठीक हो गया। एक श्वास रोगी प्रवाहिका की दवा चली गयी तो वह भी ठीक हो गया तथा प्रवाहिका के रोगी को कनकासब की बोतल में मात्र पानी दिया गया व वह भी ठीक हो गया। बाद में वे मात्र भस्म देकर ही रोगियों को स्वास्थ्य लाभ दिया करते थे । यह गुरुकृपा ही थी कि उनके पास आए सभी रोगी स्वस्थ-सानंद होते चले गये। यह औघड़दानी का वरदान ही तो है।
रामपुर के एक सज्जन श्री कौशल कुमार चौधरी व उनकी पत्नी अनिता चौधरी ने अपनी प्रथम संतान को जन्म के संबंध में एक विस्तृत विवरण मय प्रमाणों के हमारे समक्ष लिखकर भेजा है। वन्दनीया माताजी व परमपूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद के साथ उन्हें निर्देश मिला कि सविता देवता की उपासना करो। निश्चित ही सुसंतति की प्राप्ति होगी। गर्भधारण करते ही खून में लौहतत्व की अत्यधिक कमी पाने से चिकित्सकों ने औषधियाँ आरम्भ कर दीं। किन्तु शीघ्र ही डेढ़ माह के अन्दर ही एबॉर्शन हो गया। ऐसा दो बार हो जाने पर पुनः यहाँ आकर पूज्यवर से प्रत्यक्ष आशीर्वाद माँगा बताया कि डॉक्टर्स ने जीन्स में डिफेक्ट बताया है। रिपोर्ट में लिखा था कि रक्त के कोषों का कल्चर करने के बाद पाया गया कि इस प्रकार की क्रोमोसोमल काम्पलीमेण्ट की बनावट बार-बार एबाँर्शन के लिए जिम्मेदार है। क्रोमोसोम नं-12 की लोकेशन पर मानोसोमी, ट्राइसोमी की विकृति पायी गयी। तय था कि लुकोसाइट कल्चर की रिपोर्ट के बाद उनके गर्भधारण के प्रयास के बाद हर चिकित्सक का जवाब एक ही होता कि वे एबॉर्शन करवालें व आगे संतान सुख की बात सोंचे ही नहीं। परमपूज्य गुरुदेव ने वंदनीया माताजी के पास से एक रक्षाकवच मँगाकर श्रीमती चौधरी को पहनने को दिया। इसके पहनने के बाद ही उनने नियमित सूर्य का ध्यान व गायत्री उपासना का क्रम आरंभ कर दिया। गर्भधारण हुआ। सोनोग्राफी व बच्चे की माँ के जीन्स के विश्लेषण से जानकारी मिली कि बच्चा बिल्कुल ठीक है व प्रायः बीस सप्ताह का बालक गर्भ में स्वस्थ है। पुँसवन संस्कार कराने संबंधी निर्देश परम वंदनीया माताजी को मिला। वह भी कराया गया। सब कुछ ठीक चल रहा था कि होमोग्लोबिन पुनः गिरने लगा। उनने पत्र लिखा व दवाएँ चालू रखीं। पत्र लिखने के अगले दिन ही होमोग्लोबिन सामान्य आ गया था जिसका कोई बुद्धि सम्मत समाधान चिकित्सकों के पास नहीं था। अंततः 18 नवम्बर सोमवार कार्तिक शुक्ल एकादशी 1991 के दिन उन्हें एक स्वस्थ, सुन्दर तेजस्वी संतति की प्राप्ति हुई। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि चिकित्सा उपचार उनकी ओर से सितम्बर 1988 से ही चल रहे थे पर प्रत्यक्ष आशीर्वाद पूज्यवर का व बाद में परम वंदनीया माताजी का उन्हें मिलता रहा जिसकी परिणति तब हुई जब स्वयं गुरुदेव सूक्ष्म व कारणसत्ता की अंशधारी सत्ता बन चुके थे। कितना अलौकिक दैवी स्तर का संरक्षण यह है ? इस घटनाक्रम के माध्यम से हम सभी परिजनों को आश्वस्त करना चाहते हैं कि परम पूज्य गुरुदेव की सत्ता का स्थूल रूप अब नहीं है, इस पर कदापि विक्षुब्ध न हों। उनकी सूक्ष्मसत्ता और भी सक्रिय व अतिव्यापी बन पूरे कार्यक्षेत्र में गतिशील है।
ईश्वरीय अनुकम्पा हर व्यक्ति पर बरस सकती है व बरसती है, यदि उसने अपना पुरुषार्थ करने में कोई कसर न छोड़ी हो उतना सब होने के बाद ईश्वर को कातरभाव से पुकारा हो। यह एक अनिवार्यता है कि व्यक्ति अपना प्रयास पूरा कर ले। फिर द्रौपदी की याचना से लेकर मगर के जबड़े में फँसे गजराज तक की पुकार वे सुनते हैं। हर परिजन यही सोचकर परमपूज्य गुरुदेव व परम वंदनीया माताजी को अपनी समस्या संबंधी पत्र लिखता रहा कि उसने अपनी ओर से पूरी कोशिश कर ली, अब उनकी कृपा से ही आगे गाड़ी बढ़ेगी। जबलपुर के श्री सूर्यभानु लिखते हैं कि सन् 1977 में उनकी पत्नी की तबियत अचानक काफी खराब हो गयी। चार माह तक बुखार ही नहीं उतरा। डॉक्टर बीमारी का इलाज तो कर नहीं पाए, कई एण्टी बायोटिक्स देकर जीवनी शक्ति को बुरी तरह झिंझोड़ जरूर डाला। तब उनने मजबूर होकर पूज्यवर को पत्र में अपनी व्यथा लिखकर पोस्ट कर दी। आश्चर्य यह कि इधर लेटर डाला व उधर बुखार कम होने वच तबियत क्रमशः अच्छी होने की प्रक्रिया आरंभ हो गयी जवाब भी आ गया। आशीर्वाद रामबाण सिद्ध हुआ व दो माह में वे बिल्कुल स्वस्थ हो नियमित दिनचर्या में भाग लेने लगीं । तब से आज तक नीरोग हैं। मानते हैं कि उनकी समर्पणभाव से की गयी याचना भरी करुण पुकार ही उनकी पत्नी के स्वास्थ्य के ठीक होने के मूल में पूज्यवर की अनुकम्पा बरसाने का निमित्त कारण बनी।
कई बार ऐसे प्रसंग भी आते थे, जब परमपूज्य गुरुदेव दूसरों के कष्ट अपने पर लेकर उन्हें हल्के कर देते थे। संयमित दिनचर्या नियत आहार व तप-साधना के चलते कभी किसी प्रकार की कोई व्याधि पूज्यवर को नहीं हुई। ऐसे में कभी किसी प्रकार की तकलीफ उन्हें हुई भी तो वह किसी का कष्ट निज पर ओढ़ना ही उसके मूल में था। श्रीमती मायावर्मा से सभी अखण्ड-ज्योति परिजन उनकी काव्य प्रतिभा के कारण परिचित हैं । 6/12/67 को अपने हस्तलिखित पत्र में पूज्यवर उन्हें लिखते हैं कि
“हमारा स्वास्थ्य अब ठीक है। किसी स्वजन की दुर्घटना का भार अपने ऊपर लेने के कारण ही इस बार हमें इस प्रकार का कष्ट सहन करना पड़ा। दूसरा कोई मार्ग न था। सब रास्ते बन्द हो जाने के कारण यह अन्तिम उपाय काम में लाना पड़ा । किस के लिए यह किया गया, इसकी चर्चा ठीक नहीं, क्योंकि व्यर्थ ही इसमें अहसान मानने या उपकारी होने का अहंकार बढ़ता है।”
यह पत्र उनके एक पत्र के उत्तर के रूप में लिखा गया था जिसमें उनने परमपूज्य गुरुदेव के अचानक अस्वस्थ हो जाने पर चिन्ता व्यक्त की थी लश्करा ग्वालियर वासी श्रीमती मायावर्मा ऊपर आये संकट कई बार स्वयं पूज्य गुरुदेव द्वारा अपने ऊपर लेकर हलके किए गए इसकी साक्षी वे स्वयं समीपस्थ परिजन व उनको लिखे गए पूज्यवर के पत्र हैं, जो अभी भी उनके पास सुरक्षित हैं।
1968-69 का प्रसंग है । परमपूज्य गुरुदेव को गुजरात के आणन्द नामक स्थान पर 108 कुण्डी गायत्री महायज्ञ में जाना था । साथ जाने वाले परिजन ट्रेन छूटने के ठीक दो घण्टे पहले उनके पास घीयामण्डी आ गए। ठीक उसी समय जब जाने का समय था, पूज्यवर को एकाएक बुखार चढ़ना आरंभ हुआ, जो क्रमशः 104 डिग्री तक पहुँच गया । आधे घण्टे में उत्पन्न हुई इस स्थिति को देखकर सब परेशान थे । तुरंत पारिवारिक चिकित्सक डॉक्टर अरोड़ा को खबर दी गयी। इस बीच बढ़ते तापमान के बावजूद परमपूज्य गुरुदेव निश्चिन्त लेटे हुए थे। बार-बार घड़ी पर निगाह डाल देते थे। इसी बीच उनने वन्दनीया माताजी से पूछा कि जयपुर से कोई पत्र या तार तो नहीं आया? इस प्रश्न का उस समय कोई प्रसंग था नहीं, नहीं ऐसा कोई तार उस समय आया था। पेट में पथरी के दर्द की वेदना, एवं चढ़ता बुखार एकाएक कम होना शुरू हुआ। डा. अरोड़ा की दवा तो निमित्त बन गयी पर तबियत लगभग सवा घण्टे में सामान्य हो गयी । ट्रेन का समय हो गया था। वंदनीया माताजी के रोकने के बावजूद वे चलने के लिए उद्यत हो गए। घीयामण्डी कार्यालय में ही रहने वाले एक कार्यकर्ता से यह कहकर कि जयपुर से तार आते ही उसे आणन्द भेज दिया जाय, वे स्टेशन व वहाँ से आणन्द रवाना हो गए। ट्रेन चूँकि एक घण्टा लेट थी अतः यात्रा समय से आरम्भ हो गयी। उनका उधर रवाना होना था कि इधर पूज्यवर के नाम तार आया कि माँ को तेज बुखार है, पथरी की डाइग्नोसिस है, हम सब चिन्तित हैं, कृपया आशीर्वाद भेजें । “तार भेजने वाली पूज्यवर की परम भक्त बालिका थी । तार तुरंत आणंद भेज दिया गया । आश्चर्य यह कि जो कष्ट पूज्यवर को हुआ था, ठीक वैसा ही उस महिला को हुआ जिसका कष्ट पूज्यवर ने अपने ऊपर ले लिया था । पूज्यवर के ट्रेन में बैठकर रवाना होते ही ठीक हो गया । पत्र द्वारा यह सब विस्तार से ज्ञात हुआ। आणदं का कार्यक्रम प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
दूसरों के कष्टों को अपने ऊपर लेकर उनकी रक्षा करना ठीक उसी प्रकार भगवत् सत्ता का संकल्प है, जो योगीराज श्रीकृष्ण ने “योगक्षेम वहाम्यहम”के रूप में अपने भक्त के समक्ष किया है। कैसे कोई सत्ता इतनी दूर से अपने भक्त के कष्ट को पढ़ लेती है व अपने पर लेकर उसे हलका कर लेती है, इसके अनेकानेक दृष्टांत परमपूज्य गुरुदेव जैसे महापुरुषों के जीवन में देखने को मिलते हैं । वस्तुतः परोक्ष जगत का यह लीलासन्दोह विज्ञान के स्तर पर प्रतिपाद्य है भी नहीं। श्रद्धा पर आधारित ये घटनाक्रम यही बताते हैं कि अतीन्द्रिय क्षमता संपन्न साधक स्तर के महामानवों के लिए अपने भक्त की दूरी कोई मायने नहीं रखती। वे जहाँ भी जाते हैं, उन्हें अपने हर भक्त, हर श्रद्धालु परिजन के सुख-दुख में भागीदार बनने की व्यग्रता हमेशा बनी रहती है। कुछ घटनाक्रम प्रकाश में आते हैं। अगणित ऐसे होते हैं, जिनका कोई विवरण न उपलब्ध है, न कभी मिल ही पाएगा। पर एक तथ्य अपनी जगह अटल रहेगा कि ऐसी गुरुसत्ता से जिसने ऐसे दैवी स्तर के अनुदान पाए, उसके मूल में उसकी प्रसुप्त सुसंस्कारिता ही, वह अविच्छिन्न संबंध भी था जो दोनों के बीच सतत् बना रहा । प्रत्यक्ष व दिखाई न पड़ा हो, पर परोक्ष रूप से यह संबंध बने रहे व दोनों सत्ताएं एक दूसरे के लिए अपना अपना काम करती रहीं ।
अभी अभी संपन्न हुए भारत वर्ष व विश्व भर के शक्ति साधना कार्यक्रमों से कई ऐसे घटनाक्रम प्रकाश में आए हैं, जिनमें ऐसे व्यक्ति जिनने कभी स्थूल नेत्रों से
परमपूज्य गुरुदेव व उनसे अविभाज्य शक्ति स्वरूपा माता भगवती देवी के दर्शन नहीं किए, विगत दो वर्षों में भिन्न भिन्न रूपों में लाभान्वित हुए
किन्हीं के कभी समाप्त न होने वाले कष्ट मिटे हैं तो किन्हीं के अप्रत्याशित सहायता ऐसे समय मिली है, जब सभी द्वार मदद के बन्द हो चुके थे। किन्हीं को सूक्ष्म सत्ता के दर्शन के साथ पर्याप्त मनोबल के रूप में अनुदान मिला है तो किन्हीं को सद्बुद्धि के रूप में अँधेरे भरे जीवन में नया प्रकाश मिला है। यह सारे घटनाक्रम अद्भुत अलौकिक हैं व इनसे परोक्ष जगत की दैवी सत्ता पर हम सबका विश्वास और दृढ़ होता है। इन सबकी चर्चा अगले कुछ अंकों में हम करेंगे।
(क्रमशः)