भ्रान्तियों ने बढ़ाया है नास्तिकता को

April 1992

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लोगों के उस भटकाव को क्या संज्ञा दी जाय, जिसके सिर चढ़े रहने पर मात्र देवसत्ता को फुसलाने भर का प्रयत्न उनके द्वारा किया जाता रहता है। उसमें भौतिक मनोरथों को पूरा करा लेने का स्वप्न देखा जाता रहता है । यदि ऐसा हो सकना होता तो ईश्वर को न्यायशील और निष्पक्ष न कहा जाता। तब वह अपने चमचों की हिफाजत करने वाला और उनके ओछे स्तर को दरगुजर करते रहने वाला कहा जाता। तब सत्ता स्थिति भाई भतीजेवाद में संलिप्त पक्षपाती कही जाती और विवेकशीलों के क्षेत्र में उसकी भर्त्सना ही होती । पर ऐसा है नहीं। भटके लोग कुछ भी सोचते या मानते रहें इस यथार्थता को नहीं उल्टा जा सकता पुरातन तत्वज्ञानी भ्रमग्रस्त नहीं थे। विचारशीलता के उदय होने पर भी यह स्थिति पन रहेगी जो इन दिनों मध्यकाल की भ्रान्तियों के कारण आसमान तक चढ़ गई है। तथाकथित पूजा उपचार को इतना महत्व मिल रहा है जिससे किसी को आत्मनिर्माण के लिए कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती । यहाँ तक कि पाप कर्मों से बचने की भी इच्छा नहीं होती क्योंकि पूजापरक कर्मकांडों के कारण कुकर्मों का दण्ड मिलने की अनिवार्यता भी समाप्त हो जाती है । नाम रट से पाप कटने का यही अर्थ तो समझा जाता है। इस आधार पर तो कुकर्म करने से कोई डर न रहने जैसी निश्चिन्तता भी मिलती है। इससे तो आस्तिकता का सारा आधार ही उलट जाता है।

आस्तिकता के, उपासना के क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व भटकाव से निवृत्ति प्राप्त कर लेना आवश्यक है अन्यथा कस्तूरी के हिरन जैसी मृगतृष्णा में भटकने वाली निराशा ही हाथ लगेगी और प्रयास के निरर्थक जाने की संभावना सामने ही खड़ी रहेगी।

नास्तिकता के व्यापक अभिवृद्धि के दो प्रधान कारण हैं । एक-तुरन्त कर्मफल न मिलने पर अदूरदर्शी लोगों का यह मान बैठना कि विश्व-व्यवस्था में अराजकता संव्याप्त है यहाँ किसी नियामक सत्ता का अस्तित्व नहीं है । प्रत्यक्षवादी विज्ञानवादी यही कहते हैं न ईश्वर है न उसकी व्यवस्था । इन्द्रियों और उपकरणों की पकड़ में जो आये उसे वे अमान्य ही ठहराते हैं।

नास्तिकता का दूसरा कारण है आस्तिकता के रूप और प्रयोग के संबंध में संव्याप्त भ्रांतियां। स्वल्प प्रयास में बड़ी-बड़ी पर्वत जैसी भारी उपलब्धियों की आशा की जाती है । उन्हें भी हथेली पर सरसों जमाने की तरह तुर्त-फुर्त माँगा जाता है। प्रयास सफल होने में देर लगती है, इस तथ्य को भी भुला दिया जाता है। पूजा पाठ को जादूगरी स्तर का माना जाता है और पहले दिन से चमत्कार देखने के लिए लालायित रहा जाता है। यह बालक्रीड़ा किस प्रकार सफल हो ? जब मनोवाँछित प्रतिफल स्वल्प काल में सामने नहीं आता तो उत्साह पानी के बबूले की तरह ठंडा हो जाता है । जो किया जा रहा था वह समाप्त हो जाता है। निराशा की मनःस्थिति में खीज भी उपजती है। अविश्वास और संदेह उठता है श्रद्धा अश्रद्धा में बदल जाती है। यों तो उस क्रम को छोड़ बैठा जाता है या फिर कोई प्रयत्न आडम्बर गले बाँधकर इष्ट सिद्धि का प्रचार किया जाता है ताकि लोगों को ठगा जा सके। यह प्रकारान्तर से प्रच्छन्न नास्तिकता है। इसे अपनाने के बाद मनुष्य एक प्रकार से अनास्थावान ही हो जाता है। भ्रांतियां उसे पाप मुक्ति वाली बात को सही मानते रहने के लिए उकसाती रहती हैं। फलतः वह प्रपंच रचने में नास्तिकों को कही पीछे छोड़ देता है। व्यक्तित्व विकास की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती । दैवी अनुकम्पा से भाग्योदय होने की कल्पनायें भर मानस पर छाई रहती हैं। स्वर्ग पहुँचने, मुक्ति लोक में विचरण करने जैसी कल्पनायें ही सुहाती और मन बहलाने लगती हैं । ऐसे व्यक्ति कर्तव्य पालन और पुरुषार्थ दोनों ही छोड़ बैठते हैं। नशेबाजों की तरह चित्र विचित्र दिवास्वप्न देखते रहते हैं। संपर्क में आने वालों को भी ऐसा ही कुछ सिखाते बताते हैं। जिसमें आत्म विकास के लिए प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता ही अनुभव न हो।

आस्तिकता के क्षेत्र में भटकाव वाली स्थिति में फँसे हुए लोग आत्म विश्वास खो बैठते हैं । भाग्यवाद के परावलम्बन में अपने आपको स्वेच्छापूर्वक बदल लेते हैं यही कारण है कि तथाकथित भक्तिवाद में लीन व्यक्ति न तो व्यक्तित्व को प्रतिभासम्पन्न बना पाते हैं और न भौतिक क्षेत्र के प्रगति में कोई कारगर सफलता प्राप्त करते हैं । इन असफलताओं को ही वे त्याग वैराग्य का नाम देकर अपना मन बहलाते ओर दूसरों को बहकाते रहते हैं । अध्यात्म क्षेत्र की इन असफलताओं को समझा और सुधारा जाय तभी इस महान दर्शन का गौरव और इसके अनुयायियों का कल्याण हो सकेगा। आस्था संकट का निवारण तभी संभव है।


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