सफलता की कुँजी - आशावादी मनःस्थिति

April 1992

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सफलता सभी को अभीष्ट है उसे प्राप्त करने पर सभी को प्रसन्नता होती है। असफलता कोई नहीं चाहता । यदि वह किसी प्रकार पल्ले बँध जाये तो दुःख और पश्चाताप ही प्रदान करती है। इतना होते हुए भी लोगों में एक बुरी किस्म की भ्रान्ति यह पाई जाती है कि अपने को असहाय परावलम्बी मानते रहते हैं और असफलता का दोष और सफलता का श्रेय दूसरों को देते रहते हैं । अपनी ओर नहीं निहारते और यह नहीं सोचते कि अपने गुण दोषों की ओर देखें। यह नहीं विचारते कि अपनी त्रुटियाँ दुर्बलतायें भूलें ही असफलताओं के लिए प्रधानतया जिम्मेदार होती हैं और जो सफल होते हैं। उनमें उनके गुण, स्वभाव एवं मान्यताओं धारणाओं का भी बड़ा हाथ होता है।

मनुष्य की संरचना इस स्तर की है कि यदि वह श्रेष्ठ स्वावलम्बी एवं सद्गुणी बनकर रहे तो असफलताओं से कदाचित ही कभी पाला पड़े। यदि वैसी विपन्नता आकस्मिक रूप से आ भी जाय तो देर तक टिकने न पाये । उसका हल-समाधान किसी-न-किसी प्रकार निकल ही आये।

असफलतायें लगातार ही मिलने, प्रगति की दिशा में कदम न बढ़ पाने और अवगति के देर तक बने रहने का एक ही कारण है अपने गुण, कर्म, स्वभाव में त्रुटियों का बाहुल्य होना, व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कृत परिपक्व न होना। भगवान ने मनुष्य को इतनी विशेषताओं और विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि वह साधारण स्थिति में न पड़ा रहकर क्रमशः उन्नति की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ सकता है और इतना ऊँचा उठ सकता है जितना कि उसका सृजेता । क्रमबद्ध रूप से अनवरत चलने वाली चींटी भी इतने ऊँचे पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है कि यह विश्वास करना कठिन होता है कि इतना छोटा प्राणी इतने नन्हें पैरों के सहारे इतनी ऊँचाई तक किस प्रकार ऊँचा उठ सकता है। किन्तु यदि पवन की गति से चलने वाला गरुड़ भी आलस्य प्रमोद से अपने पुरुषार्थ को तिलाँजलि दे तो वह आजीवन जहाँ का तहाँ ही बैठा रहेगा । विश्व की संरचना में आरोह-अवरोध के तत्व न्यूनाधिक मात्रा में तो रहते ही हैं, पर वे ऐसे नहीं हैं कि वे किसी को आगे बढ़ने में या कठिनाइयों का समाधान निकाल सकने में देर तक बाधक बने रह सकें । मनुष्य की निज की ऊर्जा इतनी शक्तिशाली है कि उसे इच्छित दिशा में तेजी के साथ आगे बढ़ाती चल सकती है।

ऐसे प्रमाण उदाहरणों से इस संसार का पुरातन और अर्वाचीन समय का इतिहास इस बात का साक्षी है कि परिस्थितियों ने, साधनों ने ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में कदाचित ही किसी को कुछ सहायता की । व्यक्ति का अपना मनोबल ही उसे अग्रगामी बनाने में प्रधान रूप से शक्ति सामर्थ्य प्रदान करता रहा है। गुत्थियों के समाधान में उसी के द्वारा उत्पन्न सूझबूझ ने सहायता दी है और कठिनाइयों के भारी भँवर जाल से उतार कर उबारकर पार किया । इसमें किसी दैवी सहायता को अथवा किसी व्यक्ति विशेष को श्रेय देने में यही लाभ है कि अपना अहंकार नहीं बढ़ पाता, नम्रता बनी रहती है और आस्तिकता की भावना पनपती है कि दैवी सहायता के रूप में इतना अधिक मिल चुका है कि इससे अधिक की आशा करना अपने भिखमंगेपन या पुरुषार्थ की दृष्टि से अपंग होने के समान है।

वस्तुतः ईश्वर-विश्वास का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है, जिसमें जितना आत्मविश्वास सघन हो, समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा ईश्वर विश्वासी है। जो अपने को दीन-हीन, अपंग, असमर्थ, अनुभव करता है वह उतने ही ईश्वर का नास्तिक है । आत्मविश्वास की गरिमा को भूल जाने और उसका प्रयोग करने में गड़बड़ाने, लड़खड़ाने में ही व्यक्ति दीन-हीन बनकर रह जाता है। और पग पग पर असफलताएँ प्राप्त करता है।

आत्मबोध की महिमा शास्त्रकारों ने असाधारण बताई है । उसे अध्यात्म तत्वज्ञान का मुख्य चरण कहा गया है। आत्मा अनन्त शक्तियों का, विशिष्टताओं का और विभूतियों का पुँज है। इस महानता को हृदयंगम करने के साथ ही यह भी अनुभव होना चाहिए कि मनुष्य की वर्तमान सामर्थ्य भी इतनी अधिक है कि वह उसके सहारे प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ सकता है। और उस लक्ष्य तक पहुँच सकता है, जिस पर पहुंचने के बाद मनुष्य की गणना सहज ही महामानवों और देव पुरुषों में होने लगती है।

भूल जाने की बीमारी को मनःक्षेत्र की भयंकर दुर्गति कहा जा सकता है। जो अपने को, अपनों को अपनी साधना को भुला बैठे उसे, पागल के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। हममें से भी अनेकों ऐसे अर्धविक्षिप्त पाये जाते हैं, जो रोटी, कपड़ा, घर आदि को तो याद रखते हैं पर यह भूल जाते हैं कि अपने भीतर इतनी अजस्र शक्तियाँ भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें विस्मरण न कर दिया जाय। योजना बद्ध रूप से चलने अपनी सामर्थ्यों का समुचित प्रयोग करते रहने की रीति-नीति अपनाई जाय, तो उन अड़चनों से कदाचित ही वास्ता पड़े, जो आये दिन हैरान करतीं और निराशा जैसी स्थिति उत्पन्न करती हैं। उत्साह, परिश्रम और समझदारी के त्रिविध उपयोग यदि सहकार से बन पड़ें तो कोई कारण नहीं कि अभीष्ट प्रगति से भरी-पूरी संभावनाओं का रास्ता रुके और आये दिन असफलता का रोना रोते रहना पड़े ।

अपनी सामर्थ्य को भूल जाना अथवा उसका प्रयोग सही रीति से सही समय पर न बन पड़ना ही वह दुर्भाग्य है, जिसे असफलताओं का जनक कहा जा सकता है, दूसरे लोग भी अड़चन उत्पन्न कर सकते हैं, परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल हो सकती हैं। इतने पर भी मनुष्य के पुरुषार्थ की धार इतनी कुण्ठित नहीं हो जाती, कि उन अगणित अवरोधों को निरस्त न कर सकें, अँधेरे में नये प्रकाश की नई किरण का उदय न कर सकें ।

भूलों से बड़ी भूल परावलम्बी होना है। अपनी सफलता के लिए दूसरों की सहायता की प्रतीक्षा में बैठे रहना गलत है । इसी प्रकार यह मान्यता भी अवास्तविक है कि यदि दूसरे सहायता न करें, तो अभीष्ट प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही बना रहेगा। यदि अपने ऊपर विश्वास रखा जा सके, उत्साह और साहस को कुण्ठित न होने दिया जाय, तो जो कुछ वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों में उपलब्ध है, वह भी शुभारम्भ की दृष्टि से कम नहीं। आगे जब आवश्यकतायें बढ़ानी पड़ें, तो साधन भी इतने जुटते चलते हैं कि उनकी पूर्ति अगले दिनों की परिस्थितियों के अनुरूप होती चलती हैं। बूढ़े लोग अपने बचपन या किशोरावस्थाओं के विवरण याद करते एवं सुनाते रहते हैं। इससे फालतू समय को कल्पना की उड़ान में गुजरते रहने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता । हानि यह होती है कि उस जमाने की बातों को नई पीढ़ी के लोगों द्वारा अपनाये जाने के लिए परामर्श देते हैं और दबाव डालते हैं। बात व्यवहारिक समझ से परे की होने के कारण व्यर्थ की झंझट खड़ी करती है। होना यह चाहिए कि आज की परिस्थितियों में जो संभव है, जो आवश्यक है उसी को चिन्तन का विषय माना जाय और सोचा इतना भर जाय कि अगले दिनों जिसकी आवश्यकता पड़ेगी उसके लिए आवश्यक तैयारी करने में अभी से जुट पड़ जाय । वैज्ञानिकों का, राजनीतिज्ञों का, सेनानायकों का चिन्तन ठीक इसी प्रकार का होता है। आविष्कार करने वाले, योजनाएँ बनाने वाले, समुन्नत भविष्य की रूपरेखा बनाने वाले अपने मानस को इसी प्रकार प्रशिक्षित करते हैं। और संभावनाओं पर पूरा ध्यान केन्द्रित करते हैं। ऐसे ही लोगों को व्यावहारिक व सफलचेता कहते हैं। व्यवसायी व भावी योजनाओं के निर्माण में प्रायः यही रीति-नीति अपनाते हैं।उन्हीं को सूझबूझ और निर्धारण-उपयोगी मानी जाती हैं और उसी से जनसमुदाय की समस्यायें सुलझती हैं । ऐसे आरोपणों के प्रतिफल ही समय आने पर फलदार वृक्ष की तरह प्राणियों और आरोपण कर्ताओं को अनेक दृष्टि से लाभान्वित करते हैं।

अच्छा हो, भूतकालीन कथा गाथाओं को दुहराते रहकर कल्पना-लोक में उड़ते रहने और संयम क्षेप करते रहने की अपेक्षा उन्हीं प्रसंगों को चर्चा का विषय बनाया जाय, जो वर्तमान अथवा निकट भविष्य में अपने समाधान माँगने वाली हैं उन्हीं समस्याओं को ही चिन्तन का, चर्चा का, कल्पना का, निर्धारण का विषय बनाया जाय और समय के साथ चला जाय।


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