कोई चमत्कार नहीं हुआ (Kahani)

April 1992

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ख्याति प्राप्त सन्त से दीक्षा प्राप्त कर शिष्य ने भी प्रशंसा अर्जित करने, सम्मान बटोरने की बात सोची, किन्तु सन्त बड़े तपस्वी, बहुत पहुँचे हुए थे । वे शिष्य के मन की बात ताड़ गये और बोले-कि तुम गलत कारण से सही जगह आ गये हो। शिष्य ने कहा क्या मतलब? सन्त ने कहा-तुम अपने सुधार अथवा आत्मिक प्रगति के लिए नहीं आये, वरन् अपने को सजाने, ख्याति और प्रशंसा की दृष्टि से आये लगते हो, किन्तु अब आ ही गये हो तो तुम्हारी उत्सुकता पर कुठाराघात भी नहीं करते बनता, निराश वापस भी नहीं करना चाहता। अब तुम कुछ सीख कर ही जाओ।

शिष्य ने सोचा-चलो अच्छा ही हुआ लौटाया तो नहीं। सन्त ने शिष्य की परख करनी आरम्भ की और अपनी जेब से चमकता हीरा निकाल कर चौकी पर रखा। थोड़ी देर बाद पुनः वह हीरा जेब में डालकर चल दिये। शिष्य ने सोचा जरूर कोई यह चमत्कारी हीरा है। इसी में सन्त की ख्याति और सफलता का रहस्य छिपा है। रात को जब सब विश्राम करने चले गये तो शिष्य गुरु के कुर्ते सहित हीरा उठाकर भाग खड़ा हुआ। सन्त यह सब करतूत देख रहे थे। घर पहुँचकर शिष्य भी गुरु की तरह हीरे को जेब से निकाल कर चौकी पर रखता । धूप दिखाता लेकिन कोई चमत्कार नहीं हुआ।

एक दिन सन्त अचानक शिष्य के घर जा पहुँचे बोले बस कर बहुत हो गया। लौटा मेरा हीरा। शिष्य गिड़गिड़ाया महाराज कई दिन बीत गये इसी तरह पूजा करते धूप दिखाते, किन्तु कोई चमत्कार नहीं दिखाया इस हीरे ने।

सन्त ने कहा-जब तक तू स्वयं हीरा न हो जायगा, तेरा व्यक्तिगत परिष्कृत न हो जाएगा, तब तक तेरे हाथ में आया हीरा भी पत्थर है और अगर तू हीरा हो गया अर्थात् परिष्कृत हो गया तो पत्थर भी हीरा हो जायगा। हीरे में कुछ नहीं रखा है। मैं पहले दिन ही समझ गया था कि तेरी दृष्टि स्थल है । पदार्थ तक सीमित है। अब तू अपने अन्तःकरण को टटोल, अपने को सुधार। तू ही हीरा है। बात शिष्य की समझ में आ गई। वह वैसे ही बनने में जुट पड़ा।


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