जागे मनीषा, युग परिवर्तन हेतु

April 1992

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सुप्रसिद्ध विचारक फ्रसिस बेकन का कथन है कि जीवन तभी प्रवाहमान रहता है जब हम स्वयं तथा परिवेश के अंतर्संबंधों को समझकर व्यवहार करें। इसके न बन पड़ने के कारण ही विभिन्न तरह की समस्याएं-परेशानियाँ, उलझनें खड़ी होती हैं। हर युग में मानव जीवन की इन जटिल गुत्थियों को सुलझाने वाले मनीषी भी होते आये हैं। जिन्होंने अपने परिष्कृत चिन्तन चेतना के द्वारा मानवता को कठिनाइयों के दलदल से उबरने में मदद की। संसार की प्रत्येक प्राचीन सभ्यता के विकास में इन मनीषियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसी वर्ग के चिन्तन के अनुरूप ये सभ्यतायें पनपीं और तद्नुरूप ही उनने अपने स्वरूप को विकसित किया और फली-फूलीं। मनीषियों का यही वर्ग भारत में ऋषियों एवं पाश्चात्य जगत में दार्शनिकों के नाम से विख्यात हुआ।

मानव समाज में प्रायः आज इसी वर्ग का अभाव है। मात्र सोचने विचारने भर से कोई मनीषी नहीं हो जाता। मन की बेतरतीब भागदौड़ भी किसी को चिन्तक नहीं बना सकती । गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार को उच्चस्तरीय लेने पर ही संभव हो पाता है कि मनुष्य स्वयं के साथ समाज की भी समस्यायें सुलझा सकें। उनका मार्गदर्शन कर नूतन दिशा प्रदान कर सकें। जो इस समूची प्रक्रिया का भलीभाँति निर्वाह कर सके, वही वस्तुतः अपने को मनीषियों की कतार में खड़ा कर सकता है।

किन्तु इस प्रक्रिया में घुस पड़ने के पहले जो महत्वपूर्ण चीजें अपरिहार्य हैं, वे हैं-निर्भीक मन तथा व्यावहारिकता व आदर्श से समन्वित सुसम्बद्ध विचार।

कार्लमार्क्स ने इसी को स्पष्ट करते हुए कहा है कि दार्शनिक छान बीन की पहली जरूरत एक निर्भीक स्वतन्त्र मन है। सुकरात का कहना था कि मनीषी को सबसे पहले खुद को इस कसौटी पर खरा साबित करना चाहिए कि वह कथनी ही नहीं करनी में भी सौ टंच खरा है। वह केवल अपने नगर राज्य का सदस्य नहीं, अपितु मानव समुदाय रूपी विराट् ब्रह्माण्ड का नागरिक है। बात भी सही है, भला स्वयं के व्यक्तित्व विकास के बिना डरते-डरते नवनिर्माण की आधार भूमि कैसे तैयार करी जाती है? मनीषी विद्रोही नहीं, निर्माता है, पर उसे भी मानवता के लिए पुराने खण्डहरों पर चोट पहुँचानी पड़ती है। ऐसा करना उसका शौक नहीं, एक सामयिक मजबूरी है। अविवेकी लोग इसे उसका विद्रोहीपन समझ लेते हैं और उसको नष्ट करने के लिए उतारू हो जाते हैं। इससे डरने वाला व्यक्ति मनीषा के प्रवाह का संचालन नहीं कर सकता। सुकरात यदि जहर पीने से डरे होते तो सद्विचारों से यूनान के जनमानस को सराबोर न कर पाते। ईसा को यदि सूली पर चढ़ने से डर लगा होता, तो जीवन बोध की एक अनूठी शैली और भ्रातृत्व भावना न फैल पाती। जोन आफ आर्क यदि आग में जलने से डरी होतीं, तो फ्रांस उसके नूतन विचारों को ग्रहण करने लायक न बन पाता और न प्रख्यात फ्रांसीसी क्रान्ति का उदय ही होता।

विचारक के निर्भीक होने की अनिवार्य शर्त के साथ यह भी जरूरी है कि विचारों में व्यवहार और आदर्श दोनों का समन्वय हो साथ ही इनमें सुसम्बद्धता भी हो । अन्यथा एकाँगी और बिखरे हुए विचार सही मार्ग प्रदर्शित करने की जगह गुमराह ही करते हैं। ज्यादातर लोग जो स्वयं को मनीषी मानते हैं, अथवा जिन्हें ऐसा स्वीकारा जाता है, ऊपर बताई गयी अनेक योग्यताओं को पा लेने पर भी इस जगह असफल हो जाते हैं या व्यावहारिकता के नाम पर ये जड़वादी हो जाते हैं अथवा ठेठ आदर्शवादी जिसका व्यवहार से कोई लेना देना नहीं। सही कहा जाय तो दोनों ही धाराएँ अपूर्ण एवं अव्यावहारिक हैं। जड़ अथवा भौतिक साधन वह भूमि है, जिस पर हम खड़े हैं। जब कि आदर्श प्राप्तव्य है। आवश्यकता इन दोनों के समन्वय की है। ऐसा समन्वय, जिसमें अभी तक प्रायः सभी असफल होते चले आयें हैं।

इस असफलता के बाद भी विभिन्न मनीषियों ने अपने समय की समस्याओं को बहुत अच्छी तरह सुलझाया है। प्रख्यात मनीषी जान जाक रूसो ने सामाजिक प्रणाली में एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया था। उन्होंने असमानता को मनुष्यता के लिए हेय बताकर प्रजातंत्र की प्रणाली को जन्म दिया। इसी तरह कार्लमार्क्स ने श्रम की गरिमा को पहली बार दार्शनिक आधार प्रदान किया। निःसन्देह श्रम को गौरवपूर्ण बनाने का श्रेय इसी चिन्तक को है। इनकी साम्यता को वैज्ञानिकता का पुट प्रदान करने वाले फ्रेड्रिक एगेल्स ने समूची चिंतन धारा को एक नया मोड़ प्रदान किया । जीवन जीने की एक नयी शैली विकसित हुई। अमेरिका में दास प्रथा को समाप्त करने का श्रेय हैरियट स्टो के चिन्तन तथा अब्राहम लिंकन के प्रयासों को है।

भारत में भी गुलामी की बेड़ियों में जकड़े जनमानस में साहस संचार करने का श्रेय स्वामी विवेकानन्द एवं महर्षि अरविन्द के चिन्तन की प्रखरता को मिलता है। इन्हीं मनीषियों की प्रवाहमान प्रखर मनीषा ने अनेकानेक मनीषियों को क्राँतिकारियों को, पैदा किया। “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का मन्त्र फूँकने वाले तिलक दरिद्रनारायण के सेवा व्रत में अनेकानेक को दीक्षित करने वाले गान्धी धरती पर अतिमानस को उतारने वाले श्री अरविन्द आदि अनेकों ने विवेकानन्द के चिन्तन प्रवाह को अपनी प्रेरणा का स्रोत स्वीकारा है इन मनीषियों ने अपने-अपने ढंग से राष्ट्र की, मानव समुदाय की समस्याओं को सुलझाने में मदद की।

आज के बदलते परिवेश में समस्याओं ने नया मोड़ लिया है। मनुष्य ने भावनात्मक क्षेत्र से बौद्धिक परिक्षेत्र में छलाँग लगाई है। उसकी सूझ-बूझ का आधार भी प्रायोगिकता है। ऐसी स्थिति में समस्याएँ व्यक्तिगत हों अथवा समूहगत, हैं बड़ी व्यापक और गहरी। मनुष्य प्रकृति और समाज के सारे पारस्परिक सम्बन्ध अस्त-व्यस्त होते दीख रहे हैं। इस विषमता की घड़ी में मनीषियों का लोप हो गया दीखता है। विचारों की वह प्रखरता दिखाई नहीं देती, जो मनुष्य के वर्तमान को सँवारे और भविष्य के लिए दिशा निर्देश दे।

यद्यपि यह वैचारिक प्रखरता सहज नहीं है। मार्क्स के शब्दों में दार्शनिक अथवा मनीषी कुकुरमुत्तों की तरह जमीन से नहीं निकल आते। वे अपने समय के, अपनी जाति के, उत्पादन होते हैं, जिसके सर्वाधिक गूढ़, मूल्यवान और अदृश्य रस, दर्शन के विचारों में प्रवाहित होते हैं । उनके अनुसार जो भावना मजदूरों के हाथों से रेलमार्गों के निमार्ण करती है, वही मनीषियों के दिमाग में नवयुग की संरचना गढ़ती है । हम में से प्रत्येक को अपने अन्दर झाँक कर देखना होगा। यदि मनीषा के अंकुर मौजूद हों तो इसे फलने- फलने का मौका दिया जाना चाहिए यदि हमारे पास निर्भयता, निस्पृहता और समझ की गहराई मौजूद है, तो इसे खाद पानी दिये जाने से मनीषा का अंकुर विशाल वृक्ष के रूप में पनप सकेगा।

भले ही अपनी छोटी सामर्थ्य के बल बूते हम व्यापक समस्याओं का समाधान न खोज सकें, किन्तु निश्चित ही अपने गाँव मोहल्ले, पड़ोस शहर की उलझनों को अवश्य ही सुलझा सकते हैं। तब बढ़ते विकास के अनुरूप स्तर भी बढ़ेगा। साधारण से व्यक्ति विष्णु गुप्त ने चाणक्य बनकर इसी विकास की सहायता से बिखरे भारत को एक सूत्र में बाँधा था। इस महान कार्य के पीछे उनके चिन्तन की गहराइयां थीं जो कौटिल्य के नाम से लिखे गये अर्थशास्त्र में, विष्णु शर्मा के नाम से रचे गए पंचतन्त्र में और चाणक्य द्वारा रचित नीतिशास्त्र में प्रकट हुई। यदि मनीषियों का वर्ग जाग्रत हो सका, हममें से हर विचारशील इसके लिए आगे आ सके, तो सारी समस्याओं, उलझनों, परेशानियों के समाप्त होते देर न लगेगी। साथ ही एक स्वस्थ परम्परा चल निकलेगी जिसे वैदिक युगीन ऋषि परम्परा का नूतन संस्करण कहा जाना अनुचित न होगा।


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