सच्चा विरक्त

April 1992

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‘महाराज किसी सच्चे विरक्त के हाथ लगें तो श्री विग्रह स्थान ग्रहण करें ।’ परम प्रतापी महाराज कृष्ण देवराय चिन्ता में पड़ गए राज ज्योतिषी की यह बात सुनकर। कोई सच्चा विरक्त क्यों राजसदन आएगा? उसे विजय नगर और उसके वैभव से क्या प्रयोजन । लेकिन मंत्री को आदेश दे दिया गया कि वे ऐसे विरक्त के अन्वेषण का पूरा प्रयत्न करें।

बड़े उत्साह से मन्दिर का निर्माण किया गया था । कला मूर्तिमती हो उठी थी । कृष्णदेवराय की श्रद्धा और राज ज्योतिषी का शास्त्रज्ञान साकार हुआ। कहीं कोई बाधा नहीं पड़ी। जितना समय लगने का अनुमान था, कार्य उसके पहले पूर्ण हो गया था।

भगवान महेश्वर का श्री विग्रह स्थापित होना था लिंग विग्रह के पीछे । मन्दिर के अंतर्ग्रह के बीच लिंगमूर्ति और दीवाल में बने सिंहासन पर श्री आशुतोष । लिंग विग्रह स्थापित हो गया और श्री मूर्ति सिंहासन पर पहुँचाई गई, किन्तु वह सीधी बैठती ही नहीं । बहुत कोशिशें हो चुकीं कभी एक ओर कभी दूसरी ओर मूर्ति का मुख तिरछा हो जाता है। जब मानव प्रयत्न विफल हो गए महाराज ने अपने राज ज्योतिषी के चरणों में मस्तक झुकाया ‘क्या कारण है कि प्रभु आसन स्वीकार नहीं कर रहे हैं?’

ज्योतिषी जी केवल ज्योतिषी नहीं थे। कहा जाता है कि विजयनगर की अधिष्ठात्री महाशक्ति ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए थे । वे उन वेदमाता के नैष्ठिक आराधक थे। महाराज के प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन्होंने न पंचाँग खोला और न अपनी पट्टी पर कोई गणित किया। वे चुपचाप वहाँ से गए और भगवती के मन्दिर में श्रीमूर्ति के सम्मुख आसन लगाकर बैठ गए ।

“महाराज आपने श्री विश्वनाथ को यहाँ आराध्य रूप में प्रतिष्ठित करने की इच्छा नहीं की।” पूरे पाँच घण्टे बाद राज ज्योतिषी मन्दिर से निकले और सीधे राजसदन पहुँचे। तत्काल महाराज ने स्वयं आकर उनसे भेंट की। जो कुछ आभास उन्हें मिला था वही वे बता रहे थे -’ज्ञान और विद्या के आदि गुरु यहाँ श्री दक्षिणामूर्ति के रूप में आपको प्रतिष्ठित करने हैं। इस रूप में वे किसी नरेश का दिया आसन कैसे ग्रहण करें? कोई अधिकारी सच्चा विरक्त उन्हें आसन ग्रहण करावे, वे ठीक आसन ग्रहण कर लेंगे।’

भगवान शिव का यह दक्षिणामूर्ति विग्रह जब आया था उसे देखकर महाराज भावविभोर हो गए थे। जिसने देखा यही लगा कि प्रभु साक्षात् उपदेश करने आ बैठे हैं।

‘विजयनगर को महाशक्ति की अनुकम्पा पहले से प्राप्त है।’ श्रद्धाभरित स्वर में श्री विग्रह पर दृष्टि पड़ते ही राज ज्योतिषी ने कहा था-अब ज्ञान के अधिष्ठाता आपकी श्रद्धा स्वीकार करके स्वयं आचार्य रूप में आ गए हैं।

आपके श्री चरणों का अनुग्रह। महाराज ने सादर मस्तक झुकाया था।

विजयनगर विद्वानों का आश्रयस्थल, स्वामी विद्यारण्य की उपस्थिति, विद्वानों, साधकों, मनीषियों को बरबस आकर्षित करने के लिए काफी थे । फिर भी काशी पैंठा से विद्वान आमंत्रित किए गए। प्राणप्रतिष्ठा की समस्त विधियाँ सावधानीपूर्वक सम्पन्न की गई। विधि के ज्ञान में न त्रुटि थी न उसके पालन में प्रमाद हुआ। यजमान की श्रद्धा कहीं शिथिल नहीं हुई। शुद्ध सामग्री, सम्यक् विधि, श्रद्धा संयुक्त शास्त्रपूत यजमान और विधिज्ञ संयमी अप्रमत ऋत्विक् प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठित हो गए यह लक्षित कर लेना कठिन क्यों होने लगा?

सब सानन्द हुआ, लेकिन जब विग्रह को आसन पर पहुँचाया गया पूरे प्रयत्न के बाद एक स्वर से विप्रवर्ग ने कह दिया राजन ! कोई ऐसा कारण जरूर है जिससे प्रभु आसन ग्रहण नहीं कर रहे।

कितना अद्भुत निकला वह कारण-विजय नगर सम्राट की ओर से कुछ अच्छे विद्वान नियुक्त कर दिए गए हैं-विरक्त ढूंढ़ने की कोशिशें चल रही हैं। राज ज्योतिषी ने अपने कुछ शिष्य नियुक्त कर दिए हैं-भगवती की सविधि अर्चना चल रही है।

सब चल रहा है, लेकिन दक्षिणामूर्ति भगवान आशुतोष का विग्रह आसन नहीं ग्रहण करता। साधु आते हैं-संन्यासी, वैष्णव, संतमतानुयायी, जटाधारी, मुण्डितकेश, भस्मधारी, गैरिकवसन, श्वेतवस्त्र, पीतवस्त्र या केवल केले की छाल की कौपीन लगाने वाले दिगम्बर, अवधूत भी आए। जिनकी त्याग-तपस्या की ख्याति थी, उन्हें महामंत्री स्वयं आदरपूर्वक ले आए। निष्परिग्रह, अनिकेत, उग्रतप तपस्वी सभी तो आ गए। काष्ठमौनी, उर्ध्ववाहु सदा खड़े रहने वाले, पता नहीं कितने और कैसे-कैसे साधु आए। जिनसे बड़ी आशा थी, कुछ नहीं हुआ उनसे भी। पूरे तीन वर्ष होने को आए, श्रीविग्रह सम्मुख आसन पर नहीं आया ।

किसी ने कुछ अनुष्ठान बताया, किसी ने विशेष जप, यज्ञ अथवा अर्चन की आवश्यकता सूचित की । सब सम्पन्न हुए। किसी असफल साधु का तिरस्कार नहीं हुआ। कोई उपेक्षित-तिरस्कृत न हो जाय, महाराज ने इसके सम्बन्ध में अधिकारियों को सावधान कर दिया था। जो असफल होते थे-उनका चित्त खिन्न हो, स्वाभाविक था, किन्तु राज्य के कर्मचारी उन्हें आदरपूर्वक ही विदा करते थे।

‘मेरे राज्य में न सही पवित्र भारतभूमि में तो वीतराग पुरुष हैं ही।’ महाराज ने अंत में एक दिन राजपुरोहित से निवेदन किया। आप प्रयत्न करें और ऐसे पुरुष का पता न लगे मैं विश्वास नहीं कर सकता।

‘मैंने प्रयत्न में कोई प्रमाद नहीं किया है।’ राजपुरोहित ने तनिक गम्भीर होकर कहा-’किन्तु लगता है, हमारी परख का मापदण्ड ठीक नहीं है। ऐसी अवस्था में बात मानव प्रयत्न की नहीं रह जाती। मेरा तो एक ही आश्रय है। आप चिन्ता पन करें, पुत्र जब आग्रह करता है, माँ को उसका बाल हठ पूर्ण करना ही पड़ता है।’

महाराज को आश्वासन प्राप्त हुआ। राजपुरोहित ने भगवती के मन्दिर में जो आसन त्वयि अर्चा के लिए लगाया, उससे उठे ही नहीं। मध्याह्न हुआ और बीत गया। शिष्यों में घर के सदस्यों में व्यग्रता आयी। तृतीय प्रहर भी बीत गया और रात्रि का अंधकार भी अंत में फैलने लगा।

सायंकालीन भोजन न राज सदन में किसी ने किया और न राज्य के उच्च कर्मचारियों के गृहों में । राजपुरोहितों के घर तो पूरे दिन ही सब उपवास रहे। लेकिन मन्दिर में भीड़-भाड़ महाराज ने नहीं होने दी।

पूजा हुई, आरती हुई, रात्रि का नैवेद्य अर्पित हुआ। आराधक स्थिर बैठा रहे तो आराध्य शयन कर लेगी? भगवती की शयन आरती नहीं की मन्दिर के मुख्य पुजारी ने । वे बाह्य द्वार बन्द करके स्वयं मन्दिर में एक ओर आसन पर स्थिर बैठ गए।

‘माँ।’ प्रातः की अरुणिमा मन्दिर में प्रवेश करने लगी थी, जब राजपुरोहित के स्वर ने महाराज तथा पुजारी दोनों को चौंका दिया। पता नहीं कब कैसे दोनों को बैठे-बैठे ही तन्द्रा आ गई थी। दोनों ने देखा-राजपुरोहित प्रतिमा के सम्मुख साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं।

तभी एक राज कर्मचारी ने लगभग दौड़ते हुए मन्दिर में प्रवेश किया । उसके मुख पर प्रसन्नता छलकी पड़ती थी । उसके प्रवेश करते ही राजपुरोहित पुजारी और महाराज तीनों के चेहरों पर एक प्रश्नवाचक भाव गहरा उठे। आशय भाँप कर कर्मचारी ने समाधान के स्वर में कहा- दक्षिणामूर्ति श्री विग्रह सीधा हो गया।

कैसे? लगभग एक साथ तीनों के मुख से निकला । बाड़ा बाँकपुर के दण्डनायक कनकदास नगर में आये हुए हैं। स्नान करके वे सपत्नीक मन्दिर गए। जल चढ़ाकर घूमे तो दक्षिणामूर्ति विग्रह पर दृष्टि पड़ी। तिरछा विग्रह-कनकदास ने मूर्ति के घुटनों पर हाथ रखा । मूर्ति जैसे स्वयं घूमकर सीधे आसन पर आ गई।

दण्डनायक कनकदास -उन्हीं का अधीनस्थ सामन्त महाराज कृष्णदेव स्वयं आश्चर्यचकित थे इस वृत्तांत को सुनकर-पत्नी-बच्चे भरापूरा परिवार -एक बहुत बड़े इलाके का प्रशासन सम्भालने वाला आदमी सर्वश्रेष्ठ विरक्त। यदि यह व्यक्ति विरक्त है तो फिर आसक्त कौन होगा?

मन में अनेक अनबूझ पहेलियों को लिये ये सभी शिव मन्दिर चल पड़े । मन्दिर के पास पहुँचने पर कनकदास ने सपरिवार आगन्तुकों को प्रणाम किया। राज पुरोहित कृष्णदेव को समझाते हुए कह रहे थे-”राजन ! वैराग्य का अर्थ गृहस्थ का त्याग नहीं, मोह का त्याग है, पत्नी का त्यागी नहीं, वासनाओं का त्यागी ही सच्चा विरक्त है। विरक्ति कर्तव्य से पलायन नहीं कर्तव्य का दृढ़तापूर्वक पालन है। जो अनासक्तिपूर्वक गृहस्थ के दायित्वों का निर्वाह करते हुए लोक सेवा में निरत है वही त्यागियों में मुकुटमणि है”

सभी इस नवीन परिभाषा को आश्चर्यचकित हो सुन रहे थे। इसी विरक्ति ने कनकदास को कर्नाटक ही नहीं वरन् समूचे भारत के महान सन्तों की पंक्ति में जा बिठाया “मोहन तरंगिणी” नामक कृति उनके व्यक्तित्व की आभा विकसित करती हुई अनेकों को इस सच्चे वैराग्य की ओर आकर्षित करती है।


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