अपनों से अपनी बात - देवसंस्कृति को विश्वव्यापी बनाने घर-घर पहुँचने की पावन प्रतिज्ञा

April 1992

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शाँतिकुँज में भव्य शपथ समारोह परमपूज्य गुरुदेव की द्वितीय पुण्यतिथि पर

“युग बदल रहा है। यह कहा और माना जाय, तो वरिष्ठों की अपनी निजी दिशाधारा बदलने के साथ आरम्भ होगा। प्रतिभाएँ आगे बढ़ती हैं, तो ही अनुयायियों की कतार पीछे चलती है। पतन और उत्थान का इतिहास इस एक पटरी पर आगे बढ़ता रहा है। प्रतिभाओं को दूसरे शब्दों में अंधड़ कहते हैं । उनका वेग जिस दिशा में तेजी से बढ़ता है, उसी अनुपात से तिनकों, पत्तों से लेकर छप्परों और वृक्षों तक को उड़ते और लुढ़कते देखा जाता है। आज की पतनोन्मुख परिस्थितियों और विभीषिकाओं का श्रेय या दोष समय के मूर्धन्यों को ही दिया जाएगा। भूतकाल में भी यही होता रहा है और भविष्य में भी यही शाश्वत चलेगा। गिरता उठता तो जमाना है, पर उसके लिए वास्तविक पाप-पुण्य का बोझ समय की अग्रगमन असंख्य में प्राण फूँकता है। वे गिरते हैं तो ओलों की तरह समूची फसल को चट करके रख देते हैं। जो चुप बैठे रहते हैं वे न तो शान्तिप्रिय कहलाते हैं, न निरपेक्ष न अनासक्त। आड़े वक्त में मुँह छिपाने के लिए शांति का भजन का -ब्रह्मज्ञान का लबादा ओढ़ने वाले अपना मन भले ही समझा लें आपत्तिकाल की यातनाएँ उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सकती । दुर्घटना, महामारी, अग्निकाँड, आक्रमण, उत्पीड़न से संत्रस्त हाहाकारी वातावरण में जो एकान्त साधना की बात सोचे, उसे ब्रह्मज्ञानी कौन कहेगा? निष्ठुर पाषाण से कम उन्हें दूसरी उपमा क्या दी जाए? यह सोचने के बाद ही कदाचित कोई दूसरा शब्द मिल सके।”

“यह आपत्ति काल है । इसमें आपत्ति धर्म का ही पालन करना चाहिए । ओछे बचकाने लोगों की तरह बालक्रीड़ा का नहीं। वरिष्ठों पर भी यदि हेय स्तर का अवसाद चढ़ दौड़े तो इसे उनकी विशिष्टता पर लगा हुआ कलंक ग्रहण ही कहा जाएगा।”

उपरोक्त पंक्तियाँ परमपूज्य गुरुदेव द्वारा अप्रैल 1982 की “अखण्ड-ज्योति” के विशिष्ट सम्पादकीय के रूप में तब लिखी गयी थीं, जब वे पूरे भारत के दौरे से लौटकर आए थे व आस्था संकट की विभीषिका का दृश्य रूप चर्मचक्षुओं से देखकर उनने एक मार्मिक लेख लिखा था-”क्या काफिला बिछुड़ ही जायेगा ?” आज दस वर्षों के बाद यदि हम स्थिति का सर्वेक्षण करना चाहें तो पायेंगे कि उनकी अपेक्षा समय के अनुरूप कितनी विकट थीं व अब और भी कुछ बढ़ी-चढ़ी मात्रा में हमारे समक्ष है। प्रतिभाओं से, जागृतात्माओं से उनने अपनी मर्मस्पर्शी शैली में एक ही बात कही थी कि “समय की चुनौती प्रतिभाओं को कान पकड़कर झकझोर रही है इसके उत्तर में निर्णय उन्हीं को लेना है कि वे दाँत निपोरें या सीना तानें।”

वस्तुतः परमपूज्य गुरुदेव को संस्कृति पुरुष की मान्यता दी जाय तो अत्युक्ति न होगी । भारतीय संस्कृति को देवसंस्कृति-विश्वसंस्कृति की उपमा देते हुए अपने समग्र साहित्य में उनने उसी के तत्वदर्शन के आधार पर विश्व की आज की समस्त समस्याओं के हल की बात कही- उनका सारा जीवन, सारी सामर्थ्य व सारी सिद्धियां मात्र एक ही उद्देश्य के लिए होम हुए और वह था भारतीय संस्कृति को पुनः उसका पूर्ववत् स्थान दिलवाना, उसे विश्व संस्कृति की मान्यता दिलवाना। इसके लिए भारतीय संस्कृति के तत्वदर्शन को घर घर पहुँचाने वाले देवमानवों से जागृतात्माओं से आगे बढ़-चढ़ कर अपना पराक्रम दिखाने, अधिक सक अधिक समय समाज के लिए देने की उनकी अपेक्षा थी । भारतीय संस्कृति के प्रति यही कसक, मर्मान्तक पीड़ा मन में लिए उनके जीवन का एक एक क्षण जिया गया तथा अंतिम साँस तक वह ब्रह्मबीज के गलने, का ब्रह्मकमल के खिलने एवं देवसंस्कृति के निर्धारणों के ही आधार पर अगले दिनों सतयुग की वापसी की बात कहते रहे । सूक्ष्म व कारण सत्ता से अतिविराट व्यापक रूप में उनकी उपस्थिति हम सब अनुभव करते हैं व विगत दो वर्षों में हुई उपलब्धियाँ बताती हैं कि उनका संदेश विश्व के कोने-कोने तक पहुँचा हैं व अनेकों के मनों से उसने मथा है। अतः उसी प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने हेतु यदि हम परमपूज्य गुरुदेव की पुण्यतिथि पर 8,9,10, जून 1992 की तिथियों में एक विराट शपथ समारोह के माध्यम से देवसंस्कृति के विस्तार का संकल्प लेते हैं तो उनकी प्रतिभाओं से की गयी अपेक्षाओं को पूरा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाते हैं।

शपथ समारोह किसी उद्देश्य विशेष के लिए एकत्र हुए सदाशयता सम्पन्न लोकसेवियों का एक विशिष्ट समागम है। ये सभी समय की विषमता को दृष्टिगत रख, युग की समस्याओं का हल सुझाने वाली देव संस्कृति जो पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है, के निर्धारणों के विश्वव्यापी विस्तार के निमित्त तीन दिवसीय ज्ञान यज्ञ में भाग लेंगे तथा अंतिम दिन गायत्री जयंती 10 जून को एक साथ गंगाजल व परमपूज्य गुरुदेव की जन्मस्थली आँवलखेड़ा की रज हाथ में लेकर शपथ लेंगे कि आगामी नौ वर्षों में हम इस प्रतिपादन के विस्तार हेतु बढ़ चढ़ कर समय व सम्पदा का एक बड़ा अंश नियोजित करेंगे। यह अपनी तरह का एक ऐसा संकल्पित अनुष्ठान होगा जो संघशक्ति की सामर्थ्य के साथ जुड़कर हजारों-लाखों गुना प्रतिध्वनित हो पूरे ब्रह्माण्ड में अपना शक्ति-प्रभाव फैलाएगा तथा देखते-देखते सतयुग की वापसी का सरंजाम जुटाएगा ।

वस्तुतः भारतीय संस्कृति जो कि प्राचीनतम है, में जीवन के हर पक्ष को स्पर्श करने वाली विभिन्न आदर्शवादी दिशाधाराओं का समावेश है। विचार परिष्कार से लेकर चरित्रनिष्ठ एवं समाज के नवनिर्माण के वे सभी तत्व उसमें विद्यमान हैं, जो मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रख उसका मार्ग दर्शन करने में सक्षम हैं । मानव में देवत्व, धरती पर स्वर्ग, तथा सतयुग के अवतरण की समस्त संभावनाएँ देवसंस्कृति के निर्धारणों में समाई हुई हैं। समझदारी ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के चारों तत्व उसमें इस प्रकार समाविष्ट हैं कि उन्हें अपनाने वाला सच्चे अर्थों में महामानव ऋषि स्तर का महापुरुष बनता चल सकता है।

इसे एक विडम्बना ही कहा जा सकता है कि जब सारे विश्व में भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धा जागी है, जानने व अनुकरण करने की वृत्ति उमगने लगी है, तब हमारे अपनी ही संस्कृति के अनुचर, हमारी संतानें देव संस्कृति से सर्वथा अपरिचित-अनभिज्ञ होती व विदेशी सभ्यता को जीवन में उतारती नजर आ रही हैं। संभवतः विगत 45 वर्षों में हमें राजनीतिक दासता से मुक्ति मिली है, हमने भारतीय संस्कृति को भूलने व पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण अधिक से अधिक करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। दो सहस्राब्दियों का अनाचार-अंधकार भरा युग भी हमारी मानसिक तथा साँस्कृतिक गौरवगरिमा को अक्षुण्ण बनाए रख उसे युगानुकूल बनाते हुए अपने देशवासियों व समस्त विश्वसुधा के नागरिकों का शिक्षण ही नहीं, नेतृत्व भी करें । इसके लिए सर्वप्रथम हमारे देश के लोगों को ही सर्वप्रथम संस्कृति की प्रेरणाओं, तत्वदर्शन एवं व्यावहारिक पक्ष की जानकारी करानी होगी।

भारतीय संस्कृति मानवधर्म की बड़ी विशिष्ट व्याख्या करती है जो आज की परिस्थितियों में अभीष्ट भी है। आदि पुरुष मनु कहते हैं-

वेदस्मृतिः सदाचारः स्वस्थ च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्॥

वेदों को अपौरुषेय वाणी मानते हुए वेद और शास्त्रों को प्रमाण मानकर एक प्रकार से आत्मानुशासन की बात ऋषि कहते हैं । सदाचार को महत्व देते हुए वे उसे व्यावहारिक धर्म कहते हैं । सबसे बड़ी विशेषता जो देवसंस्कृति में है, वह है विवेक का अनुपालन करते हुए मूल्यों का युगानुकूल निर्धारण तथा समस्याओं का परिस्थितियों के अनुरूप समाधान । इसके लिए प्रमाण वेदों को माना गया है जो कि निरन्तर कठोर तप करने वाले पुरुषार्थ परायण, ब्रह्मनिष्ठ जीवन जीने वाले, व्यक्तिगत रागद्वेष से परे, सत्य की खोज में जीवन होम कर देने वाले ऋषिगणों की अन्तःस्फूर्त प्रज्ञा में प्रतिबिम्बित सत्य हैं। अतः यह किसी एक पुरुष की वाणी नहीं, समष्टिगत जाग्रत प्रज्ञा की अभिव्यक्ति के रूप में अपौरुषेय वाणी कही जाती है। इनमें शब्द की कम व अर्थ की प्रधानता अधिक है।

सृष्टि के प्रारंभ से अब तक मूल्यों की व्यवस्था देते चले आ रहे दो प्रधान तत्व भारतीय संस्कृति में “सत्य “और ऋतु कहे गये हैं दोनों मिलकर एक धारा प्रवाह बनाते हैं, जिसे ‘धर्म ‘ कहते हैं। धर्म का एक स्वरूप स्थिरता प्रदान करता है व दूसरा उसे गति प्रदान कर आगे बढ़ाता है। इसे इसी कारण “सनातन धर्म” भी कहा गया हैं । यह धर्म यह नहीं कहता न मानता है कि मनुष्य को अपने गन्तव्य या लक्ष्य की प्राप्ति केवल एक उपाय या मार्ग का अवलम्बन लेने से होती है। अपितु वह यह स्वीकार करता है कि मार्ग असंख्यों हैं, अनेकानेक उपाय हैं, सभी अपनी अपनी जगह सही हैं किसी भी मार्ग-मत संप्रदाय को तिरस्कार से न देखकर हर व्यक्ति स्वधर्म को पहचाने, अपनी योग्यता के अंतर्जगत की क्षमताओं के आधार पर धर्म का निर्धारण करें । आज के समय की साम्प्रदायिक अलगाव व पारस्परिक विद्वेष की समस्या का इससे श्रेष्ठ समाधान और क्या हो सकता है?

भारतीय संस्कृति की कुछ मोटी लाक्षणिक मान्यताएँ हैं। यथा नदी, पर्वत, वृक्ष में देवता की भावना करना उन्हें सम्मानपूर्वक पूजना व उनके पारस्परिक संतुलन को बनाए रखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना। यही नहीं देवशक्तियों की तृप्ति हेतु नियमित यज्ञ करना ताकि उन्हें सूक्ष्म हवि के रूप में सामग्री मिले। परिस्थिति की असंतुलन पर्यावरण की सुरक्षा ही नहीं उससे अटूट लगाव हेतु भारतीय संस्कृति की यह विज्ञान सम्मत स्थापना है। विश्व ब्रह्माण्ड के विग्रह के रूप में देवालयों की स्थापना, आत्मशुद्धि हेतु व्रत-उपवास, दैनंदिन व्यवहार में बहिरंग व अन्तरंग की शुचिता का अभ्यास, प्राणिमात्र के साथ करुणा व सहानुभूति व्यवहार, योगाभ्यासों का पालन, माता-पिता और गुरु को देवसत्ताओं के समकक्ष मानना, पत्नी को सहधर्मचारिणी मानते हुए गृहस्थ संस्था का संचालन, श्रेष्ठ ग्रन्थों का स्वाध्याय व संतों-आचार्यों का सत्संग, तीर्थ यात्रा को जीवन में स्थान देना, देवता-पितर-ऋषि और मनुष्य मात्र के प्रति स्वयं को ऋणी मानते हुए उस ऋण से उऋण होने में ही जीवन की सफलता मानना जैसी कुछ ऐसी विज्ञान सम्मत मान्यताएँ भारतीय संस्कृति की हैं जो उसे आज युगधर्म देने के नाते सर्वांगपूर्ण बनाती हैं।

मोटे तौर पर देवसंस्कृति जिसके माध्यम से हम आस्था संकट का परित्राण होना सोचते हैं व जिसके शिक्षण की एक सुनियोजित प्रक्रिया का शुभारंभ करना चाहते हैं तीन भागों में विभाजित की जा सकती है।

संस्कृति का चिन्तन-दर्शनपक्ष-यह मूलतः भारतीय अध्यात्म का तत्वदर्शन वाला पक्ष है जिसमें वेद उपनिषदों -दर्शन ब्राह्मण- आरण्यक आदि आर्ष वाङ्मय का परिचय समसामयिक संदर्भ में आता है। यह वह शाश्वत चिन्तन है जिसके आधार पर सारी मान्यताओं का निर्धारण संभव बनाया जाता है। मानवी व्यक्तिगत के विभिन्न स्तर, उससे जुड़ी समस्याएँ व समाधान हेतु साधना पद्धतियों का निर्धारण भी उसी में आता है। मन, आत्मा, मोक्ष, परलोक और पुनर्जन्म की व्याख्याएँ इसी धारा में स्पष्ट की जाती हैं। वेदों का सार है गायत्री व उसकी समग्र व्याख्या इसी चिन्तन पक्ष में आती हैं। गायत्री सार्वभौम है, विश्वमाता है व आने वाले भविष्य के समाज का आधार बनेगी । गायत्री की दार्शनिक व व्यवहारिक विवेचना, उपासना पद्धतियाँ, प्राणाग्नि-कुण्डलिनी तथा मंत्र शक्ति का विज्ञान सम्मत विवेचन इसी पक्ष के अंतर्गत आता है।

संस्कृति का व्यवहार -क्रियापक्ष- इसमें सभी साँस्कृतिक प्रतीक यथा शिखा - सूत्र, देवता, बहुदेववाद, तीर्थ कर्मकाण्ड, षोडश संस्कार, पर्व-त्यौहार, यज्ञ, मूर्तिपूजा,खानपान, वेशभूषा, रीति रिवाज, युगानुकूल प्रचलन तथा गृहस्थ जीवन व परिवार संस्था से जुड़ी वर्जनाएँ व दायित्व आदि का क्रियापरक व्यावहारिक पक्ष आ जाता है। इन सभी की व्याख्या आत्मशिक्षण व लोकशिक्षण के परिपेक्ष में मनोविज्ञान की परिधि में रहकर कैसे की जा सकती है, इसका ऊहापोह इसी वर्गीकरण में होता है।

सतयुगी समाज भारतीय संस्कृति के परिपेक्ष में - इसी वर्गीकरण का मूल उद्देश्य है व्यक्ति-प्रकृति और समाज के ऋषि युगीन संबंधों के बहुविधि पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए अतीत का मूल्याँकन करते हुए आज की परिस्थितियों के अनुरूप सतयुगी व्यवस्था का चिन्तन करना। उन सभी कारणों व तत्वों पर प्रकाश डालना जिनकी वजह से ऋषि सतयुग की व्यवस्था कर सकें। साँस्कृतिक कार्यक्रम के माध्यम से, संवेदना के जागरण द्वारा नये समाज की परिकल्पना किन आधारों पर की जा सकती है, यह इस विभाजन का मूल उद्देश्य है। आज राजनीतिक आधार पर जुड़े सारे देश, समूह व वर्ग टूटते जा रहे हैं। यदि हमें राष्ट्र की एकता-अखण्डता को बनाये रखना है, एक विश्वसंस्कृति का प्रचार- प्रसार करना है तो वह पारस्परिक संबंधों की संवेदना के आधार पर बनी घनिष्ठतम अवस्था द्वारा ही संभव है। उज्ज्वल भविष्य का स्वरूप जो दृष्टाओं, महामानवों, भविष्य वक्ताओं ने देखा कैसे व किन माध्यमों से स्पष्ट होता चलेगा, यह स्पष्टीकरण संस्कृति के संवेदना पक्ष की व्याख्या करते हुए जब सामने रखा जायेगा तब वे सभी संभावनाएँ साकार होती चली जायेंगी, जिनकी घोषणा पूज्यवर कर गए हैं।

वस्तुतः भारतीय संस्कृति एक विचार करने की शैली, जीवन जीने की क्रियापद्धति तथा वैशिष्ट्य पर आधारित एक सर्वांगपूर्ण चिन्तन पद्धति का नाम है इसका अतीत का गुणगान तो बहुत हो चुका, अब जरूरत है, युगानुकूल संदर्भों में इसके शाश्वत जाज्वल्यमान स्वरूप के प्रस्तुतीकरण की । जीवात्मा को अनन्त संभावनाओं से अभिपूरित बताते हुए उसे परमात्मा बनाने के उपक्रम का और तदनुसार निर्धारित जीवन पद्धति का नाम ही हिन्दु या देवसंस्कृति है। विज्ञान की तरह ही भारतीय संस्कृति भी मनुष्य को, जीवन को, विराट यात्रा की तरह जीने की प्रेरणा देती है। जो चाहें इस क्रम में आत्मिक प्रगति हेतु साधन योगाभ्यास का अवलम्बन ले सकते हैं । जो इसे कठिन समझे, वे समूची जीवन पद्धति को ऐसी बना सकते हैं जिससे भौतिकवादी जीव जीते हुए भी मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यथा खानपान, रहन−सहन, अनुशासन-शिष्टाचार, संस्कार, पर्व रीति-रिवाज वेशभूषा आदि में साँस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना करते हुए सामाजिक जीवन जीना।

षोडश संस्कारों में व्यक्ति निमार्ण के सूत्र- भारतीय संस्कृति मानव जीवन को एक विराट यात्रा का एक महत्वपूर्ण अध्याय मानते हुए मानव के जन्म के पूर्व से मरणोत्तर विराम तक के महत्वपूर्ण मोड़ों की समुचित व्यवस्था संस्कार प्रक्रिया के माध्यम से हमें समझाती हैं। व्यक्तित्व के विकास की सारी संभावनाएँ षोडश संस्कारों में छिपी पड़ी हैं। ऋषियों की ये व्यवस्था अपने आप में इतनी समर्थ और सर्वांगपूर्ण है कि इस प्रक्रिया से निकले हुए निश्चित ही प्रतिभावान ही बनते हैं । संस्कार एक प्रकार से ऐसी खराद प्रक्रिया है जो कोयले को तराशकर हीरा, मिट्टी को सोना, अनगढ़ पत्थर को पूजा योग्य प्रतिमा तथा पतन की ओर बढ़ती वृत्ति को ऊर्ध्वगामी बनाकर जीवन को उल्लेखनीय ऊँचाई तक पहुँचा देती है। हमारे ऋषियों ने पाया कि माँ के गर्भ में आने से लेकर चिन्ता में अग्नि को समर्पित होने तथा उसके बाद के विभिन्न योनिक्रमों में यदि जीवात्मा को सँभाला व सँवारा न जाय तो मनुष्य जीवन की गरिमा को भुलाते हुए नरपशु, नरपिशाच, नरपामर का जीवन जीता चला जाता है। इन सभी महत्वपूर्ण मोड़ों पर सावधान करते हुए जीवात्मा में विद्यमान दोषों का निवारण कर गुणों का विकास करने व योग्यता को धारण कराने की प्रक्रिया संस्कार प्रक्रिया है। जैमिनी ने कहा है कि “जिसके होने पर कोई पदार्थ होने योग्य हो जाता है, उसे ही संस्कार कहते हैं (पूर्व मीमाँसा)” । संस्कार एक प्रकार से नया जन्म है।

चिन्ह पूजा के रूप में सोलह संस्कारों का प्रचलन अभी भी है पर वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण के अभाव में वे मात्र कर्मकाण्ड और पैसे का अपव्यय मात्र बनकर रह जाते हैं विवाह संस्कार जैसे गृहस्थ प्रवेश वाले महत्वपूर्ण संस्कारों की आज जो दुर्गति हुई है, वह सभी के समक्ष है। संस्कारों का प्रचलन जब भी शिक्षण के साथ जुड़कर हमारे देश में हुआ । हमारा यह देश “स्वर्गादपि गरीयसी “ बना रहा । आज उस शिक्षण प्रशिक्षण के अभाव में समाज में भटकाव तथा आस्था संकट की विभीषिका का संकट सामने खड़ा प्रत्यक्ष नजर आता है। परमपूज्य गुरुदेव ने संस्कारों को अति महत्वपूर्ण मानते हुए उसके सारी विश्ववसुधा में विस्तार की बात विज्ञान-सम्मत ढंग से कही ताकि हमारी साँस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण बनी रहे व प्रतिभाओं का नियमित उत्पादन होता रहे । आज देवसंस्कृति विस्तार के परिपेक्ष में सर्वाधिक आवश्यकता संस्कारों के माध्यम से लोकशिक्षण की समझते हुए भारत में स्थान -स्थान पर संस्कार महोत्सवों का प्रदर्शनयुक्त आयोजन करने तथा भारत में बाहर विश्व भर में बड़े स्तर के 28 संस्कार महोत्सवों के आयोजन की बात इन्हीं दिनों सोची गयी है।

यूँ तो सोलह संस्कारों में गर्भाधान, पुँसवन, सीमान्त, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास व अन्त्येष्टि यह क्रम से वर्णित किए गए हैं। किन्तु आज के समय में जो व्यवहारिक नहीं है या जिनकी उपयोगिता नहीं रही उन छः को छोड़कर तथा जन्मदिवस, विवाह दिवस जैसे आज के दो महत्वपूर्ण संस्कारों को छोड़कर कुल बारह संस्कार ऐसे हैं जो अपनी वैज्ञानिक महत्ता से सारे समाज को नयी दिशा दे सकते हैं। ये है पुँसवन, नामकरण अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, विद्यारम्भ, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि तथा श्राद्धतर्पण जन्मदिवस व विवाह दिवस संस्कार।

शाँतिकुँज में उपरोक्त सभी संस्कारों के समुचित विज्ञान-मनोविज्ञान सम्मत प्रशिक्षण की न केवल व्यवस्था बनाई गयी है इसके विकेन्द्रीकरण का तन्त्र भी प्रस्तुत समारोह के माध्यम से करने की बात सोची गया है। परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा लिखी गई पर्व, संस्कार, गायत्री यज्ञों व षोडश संस्कारों संबंधी पुस्तकों के कारण अब बुद्धिजीवी समाज भी संस्कारों के महत्व के बिना किसी ननुनच के स्वीकारने लगा है। अब आवश्यकता है इसे आँदोलन बनाते हुए देव संस्कृति के राष्ट्रव्यापी, विश्वव्यापी विस्तार करी तथा इस प्रयोजन हेतु समर्पित सुयोग्य कार्यकर्ताओं की । विगत एक वर्ष में शाँतिकुँज द्वारा सामूहिक स्तर पर स्थानीय गतिविधि के रूप में पूर्णिमा पर्वों पर संस्कारों का सम्पूर्ण साज सज्जा विधिविधान से शिक्षण का क्रम चला। कृत्य तो सम्पन्न होते ही रहे साथ ही शक्ति साधना वर्ष में स्थान स्थान पर अखण्ड जप आयोजन के साथ ये कार्यक्रम संपन्न हुए। इन सभी आयोजनों के पूरे दक्षिण भारत,पूर्वी भारत, पंजाब व जम्मू कश्मीर क्षेत्र तक विस्तार के निमित्त अगणित लोकसेवियों के समय की अब आवश्यकता प्रतीत हो रही है। अपने अपने क्षेत्रों में कार्यरत मूर्धन्य प्रतिभाओं को तलाशने के लिए ही यह विराट शपथ समारोह आयोजित किया जा रहा है।

शपथ समारोह में भागीदारी करने वालों के लिए अनिवार्य अनुबंध-

वे ही लोग शपथ समारोह में भाग लेंगे जो न्यूनतम अनिवार्य व्रतों के पालन का संकल्प लें व निभा सकें।

(1) प्रतिवर्ष न्यूनाधिक तीन माह का समय शान्तिकुँज के लिए देना। नियोजन केन्द्र द्वारा जो हो उसे स्वीकार किया जाना ।

(2) अथवा एक लोकसेवी परिव्राजक की तीन माह की अवधि के लिए ब्रह्मवृति जीवन निर्वाह का प्रबंध करना।

(3) शक्ति संचार साधना के वे भागीदार जो नियमित उपासना एक घण्टा व बीस पैसा प्रतिदिन अथवा एक दिन की आजीविका माह में एक बार शाँतिकुँज को देवसंस्कृति विस्तार के निमित्त देने के अनुबंध का पालन करें।

(4) आगामी वर्ष पूरे भारत व विश्व में संपन्न होने जा रहे संस्कार महोत्सवों का स्थानीय स्तर पर आयोजन करने का जो संकल्प लें।

(5) जून 92 से फरवरी 93 तक की अवधि में शाँतिकुँज में आयोजित बुद्धिजीवी वर्ग के सम्मेलनों में दस अपने परिचय के प्रतिभावानों को भेजने- भेजने से पूर्व उनका मानस तैयार करने के उद्देश्य से उन्हें “अखंड ज्योति” के तत्वदर्शन से जोड़ने के व्रत का जो परिपालन करें।

व्रतधारण के पश्चात् की विधि-व्यवस्था- व्रतधारियों को नियमित रूप से देव संस्कृति का पत्राचार पद्धति से विधिवत शिक्षण दिया जायेगा। सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष की विस्तृत व्याख्या वाला शिक्षण डाक द्वारा तथा “अखंड ज्योति” पत्रिका के जून 92 से दिसम्बर 92 तक के नौ विशेषांकों के माध्यम से होता रहेगा। प्रतिमाह दो बार दो पाठ डाक से नियमित भेजे जायेंगे। छः माह पश्चात् पत्राचार परीक्षा और परीक्षाफल के आधार पर लोकसेवी कार्यकर्ताओं की कार्यक्षमता व क्षेत्र के निर्धारण कर उन्हें केन्द्र द्वारा मार्गदर्शन दिया जायेगा। व्रतधारी अपने शहर में स्थानीय स्तर पर जनसभा बुद्धिजीवी सम्मेलन, संगोष्ठी अथवा व्यापक स्तर पर देवसंस्कृति महोत्सवों का आयोजन करेंगे व इनके माध्यम से साँस्कृतिक तत्वज्ञान का जन-जन तक विस्तार करेंगे। तीन माह के उनके समयदान का निर्धारण कहाँ व कैसे हो, यह व्यवस्था केन्द्र करेगा।

शपथ समारोह कार्यक्रम की रूपरेखा

यह समारोह केवल तीन दिन का है 8-9-10 जून की तारीखों में । 10 जून गायत्री जयंती गंगा दशहरे का दिन है। आँवलखेड़ा होकर पूज्यवर की जन्मस्थली की रज लेकर आने वाले स्वीकृति प्राप्त वाहनों को छोड़कर सभी लोग 7 जून की शाम या रात्रि तक आ जायेंगे। ठहराने भोजन आदि की व्यवस्था शाँतिकुँज के आसपास के सहयोगी आश्रमों की निजी जमीनों व शाँतिकुँज में की गयी है। 8 जून को प्रातःकाल शोभा यात्रा की अगवानी की जायेगी जो 6 जून को आँवलखेड़ा से रवाना होकर 8 जून की प्रातः हरिद्वार 501 बसों गाड़ियों के काफिले के रूप में आएगी। प्रतिदिन 108 वेदीय यज्ञशाला में संकल्पित शक्ति−संचार साधना करी पूर्णाहुति का क्रम चलेगा जिसमें सभी को समान अवसर मिलेगा। 12 संस्कारों का दृश्य प्रदर्शन अलग से विनिर्मित एवं संस्कारशाला में चलेगा। दीक्षा संस्कार स्वयं परम वंदनीया माताजी के श्री मुख से संपन्न होगा। सभी परिव्राजक जो व्रत लेंगे एकसी वसंती वेशभूषा धारण कर परमपूज्य गुरुदेव की जन्म स्थली की रज व सप्तसरोवर कास गंगाजल हाथ में लेकर देवसंस्कृति के उद्धार व विस्तार की शपथ 10 जून को लेंगे। उसी दिन महापूर्णाहुति, वंदनीय माताजी का उद्बोधन व एक विराट ब्रह्मदीप यज्ञ भी संपन्न होगा।

शोभा यात्रा का स्वरूप एवं व्यवस्था- मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र व दक्षिण भारत में आने वाली बसें, कारें, जीपें, मेटाडोर आदि वाहन जिन्हें शाँतिकुँज से शोभा यात्रा में भाग लेने की अनुमति प्राप्त है कुल पाँच सौ एक संख्या में 5 जून की शाम आँवलखेड़ा ग्राम पहुँचेगी जहाँ परमपूज्य गुरुदेव की जन्मस्थली पर शक्तिपीठ स्थापित है । इससे शोभायात्रा में भागीदारी हेतु पंजीयन आरम्भ हो चुका है। सभी आंवलखेड़ा शक्तिपीठ में स्थापना हेतु अपने-अपने स्थानों शक्तिपीठों प्रज्ञा संस्थानों की जल-रज लेकर आएँगे। 6 जून की प्रातः जुलूस आँवलखेड़ा से प्रस्थित हो दोपहर को अलीगढ़ व शाम को बुलन्दशहर पहुँचेगा। रात्रि विश्राम कर 7 जून की सबेरे रवाना होकर दोपहर मेरठ व शाम को रुड़की पहुँचकर विश्राम करेगा। रात्रि में दोनों ठहरने के स्थानों पर सामूहिक भोज समूहगान- कैम्पफयर की व्यवस्था रहेगी। 8 जून की प्रातः यह जुलूस रुड़की से चलकर नौ साढ़े नौ तक हरिद्वार में प्रवेश करेगा। आँवलखेड़ा से हरिद्वार तक गणवेशधारी मोटर साइकिल सवार पायलेटिंग करेंगे तथा वीडियोवॉन, एंबुलेंस एवं मेकेनिक-रिपेयर आदि के समान से सुसज्जित वाहन साथ चलेंगे। सभी गाड़ियों पर मिशन के निर्धारित वाक्यों से सुसज्जित बैनर्स होंगे तथा लाउडस्पीकर द्वारा सत्त जयघोष, गीतों का क्रम चलता रहेगा। आँवलखेड़ा आगरा जिले में यमुना पार करके आगरा से हाथरस के मार्ग पर रामबाग चौराहे से चलकर टेढ़ी बगिया नामक तिराहे से जलेसर की ओर जाने वाली सड़क पर चौबीस किलोमीटर दूर स्थित है । सड़क पक्की है। गर्मियों के दिन होंगे। भोजन की व्यवस्था है फिर भी सूखा नाश्ता, दलिया, कनातें, बिछावन गाड़ी के साथ लेकर चलें।

जो भी परिजन वाहनों द्वारा जुलूस में भागीदारी करना चाहते हैं, वे अभी से वाहन का प्रकार, नंबर और साथ आने वालों की सम्मिलित जानकारी अलग पत्र से भेजें । गाड़ी के बीमा, रजिस्ट्रेशन पेपर्स, सभी साथ रखें ताकि चेकिंग आदि होने पर परेशानी न हो। जुलूस का अनुशासन यातायात व्यवस्था का क्रम बिठाने के लिए शांतिकुंज के वरिष्ठ कार्यकर्ता कानवाय के साथ चलेंगे। मार्ग में आवास, भोजन की व्यवस्था स्थानीय शाखाओं के परिजन साथ लेकर चलें। वृद्ध, बीमार, बहुत छोटे बच्चों को साथ लेकर न आयें।

चूंकि अभी से आवेदन बड़ी संख्या में आ रहे हैं अतः दर्शन कौतुक के लिए आने वाली भीड़ को अभी से मना किया जा रहा है। मात्र उन्हीं को आने को कहा जा रहा है जो व्रतधारी बनकर न्यूनाधिक तीन माह का समय या उतनी अवधि के लिए एक परिजन की ब्राह्मणोचित वृत्ति का देने का संकल्प लेकर आयेंगे । सभी यह ध्यान रखें कि आवास व्यवस्था श्रद्धाँजलि कार्यक्रमों की तरह टेण्टों, शामियानों में रहेगी। कोई भी स्थान विशेष व आग्रह लेकर न पत्र लिखें, न आयें। शिक्षक जन यदि जून माह होने के कारण आना चाहें तो विशिष्ट शिक्षक सम्मेलनों में जो 16 से 20 जून, 21 से 25 जून व 26 से 30 जून की अवधि में आयोजित है, अपनी भागीदारी अभी से पत्र लिखकर सुनिश्चित कर लें। प्रबुद्ध वर्ग के इन सम्मेलनों में भी संस्कारों का प्रदर्शन व शपथ का क्रम चलता रहेगा

कहना न होगा कि यह आयोजन पुण्य और सौभाग्य की दृष्टि से कितनी महती उपलब्धियों भरा होगा । अक्टूबर 90 में संपन्न हुए संकल्प श्रद्धाँजलि समारोह के विराट रूप द्वारा परिजनों व जन सामान्य को ब्रह्मबीज से ब्रह्मकमल के बनकर विकसित हो खिलने की एक झाँकी परोक्ष सत्ता द्वारा दिखाई जा चुकी है। यदि बदलते समय की इस वेला में सबको महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया पर थोड़ा भी विश्वास हो तो उन्हें देवसंस्कृति के उद्धार व विस्तार हेतु किए जा रहे इस पुरुषार्थ प्रयास को अब अनदेखा न कर समय व साधनों को समाज देवता के निमित्त समर्पित करने हेतु बढ़ चढ़कर आगे आना चाहिए । यह आह्वान हर उस व्यक्ति के प्रति है, जिसके मन में देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए पीड़ा है, अंतरंग में संवेदना है व ऐसी बेचैनी है जो उन्हें चैन से बैठने नहीं दे रही। युग देवता को इन सबकी ही प्रतीक्षा है।


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