बचाओ मेरी बच्ची को बचाओ । लगभग अर्ध रात्रि के समय आर्तचित्कार की नींद से उठा दिया था रघुनाथदास को । आतुरतापूर्वक उन्होंने प्रदीप उठाया और द्वार खोला ।
वे उसे लिए जा रहे हैं। वे पिशाच उसे घोड़े पर लिए जा रहे हैं। एक खून से सना व्यक्ति दौड़ता आ रहा था उसके पैर अस्त-व्यस्त पड़ रहे थे।
उसे बचाओ मेरी बच्ची...। रघुनाथदास तेजी से लपके किन्तु वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा । दुर्भाग्य से उसका सिर एक बड़े पत्थर पर पड़ा । वह अन्तिम आघात पहले ही उस पर पता नहीं कितनी चोटें पड़ी थी । अवश्य उसने डट कर शत्रुओं का सामना किया होगा । एक बार शरीर में तड़पन हुई और शान्त हो गया।
दीपक पास रख कर रघुनाथदास जमीन पर बैठ गए। उन्होंने नाड़ी देखी, हृदय पर हाथ रखा, कोई जीवन चिन्ह नहीं था। शव को उठाकर आश्रम में ले आये ।
आज वे एकाकी रह गये थे आश्रम में । आवश्यक सूचना पर सभी साधु अन्यत्र सेवा कार्य के लिए जा चुके थे और ....किन्तु कोई आर्यकन्या अत्याचारियों के हाथ पड़ गई है। श्री समर्थ के आश्रम तक उसकी आर्त पुकार पहुँच चुकी तो उसका उद्धार अनिवार्य हो गया । अश्वारोही पता नहीं कितनी दूर निकल गए। एक एक क्षण मूल्यवान था । शव को सुरक्षित रखकर अपना अश्व कसा और शस्त्र सम्हाले। एक आश्रम का संचालक साधु दो क्षण में पीड़ित परित्राण का सैनिक बना घोड़े पर उड़ा जा रहा था।
आहत परिचित था। उसे उसके गाँव तक पहुँचाना कठिन नहीं हुआ। आक्रमणकारियों का दल कि धर गया, यह वहाँ से पता लग गया।
जय-जय श्री रघुवर समर्थ अरुणोदय से पूर्व रघुनाथदास का अश्व, आक्रमण करके निश्चित चले जा रहे शत्रु सैनिकों के पीछे पहुँच गया।
समर्थ का साधु । आततायियों में आतंकव्याप्त हो गया। वे यद्यपि संख्या में अधिक थे एक साधु दस सशत्र सैनिकों का क्या कर लेता ? किन्तु समर्थ के प्रत्येक साधु ने तो शिक्षा ही यही पाई थी शरीर अनित्य है। मनुष्य तो मृत्यु का ग्रास होता ही है। आर्त का परित्राण प्रभु की सेवा है। उसमें शरीर उत्सर्ग हो जाय परम सौभाग्य ।
उस लड़की को उतार दो चुपचाप । दस्युओं के बीच उनका अंश अशंकवाद से चला गया और सरदार की बगल में पहुँच कर उन्होंने ललकारा-समर्थ के साधु को शस्त्र उठाने पर विवश मत करो ।
उतार दो ! उतार दो, सरदार उसे । उसी के दल के सदस्य ही चीखने लगे। खुदा के लिए उतार दो। शैतान का पूरा काफिला इन काफिर फकीरों के बस में रहता है। ये शमशीर उठाते हैं तो डायनें खप्पर लेकर उतर आती हैं आसमान से। इस अत्याचारी वर्ग में पता नहीं कितनी ऐसी बाते फैली हैं। इनकी बद दुआ से पूरी फौज महामारी से मर जाती है।
चारों ओर घोर वन, मशालों की रोशनी आस-पास और ऊपर जहाँ तक जाती है, उससे आग लगता है। प्रेतों का झुँड मुँह फाड़े अंधेरे में छिपा है। भय से उन अत्याचारियों ने इधर-उधर और ऊपर देखा। वन के पत्ते डालियाँ वायु से लड़खड़ाते ही रहते हैं। वे काँप उठे अभी इसने शमशीर उठाई और भूतनियाँ खप्पर लेकर आसमान से उतरीं।
चुपचाप उसे उतार दो, अन्यथा ! रघुनाथदास का अश्व सरदार के अश्व से आ सटा था । अपना एक हाथ तलवार की मूठ पर रखकर सरदार के मुख पर नजर जमाई उन्होंने और दूसरा हाथ सरदार के आगे बैठी आकृति की ओर बढ़ा दिया। अश्व की लगाम इसी क्षण मुख में आ गई थी ।
उतार दो उसे ! साथी चीख रहे थे। सरदार का मुख पीला पड़ चुका था। वह कुछ करे या सोचे इससे पहले उसके आगे बैठी आकृति को रघुनाथदास के हाथ ने अपने अश्व पर उठा लिया और तब उनका अश्व पीछे मुड़ गया।
जान बख्शी खुदा ने । सरदार का श्वास ऊपर अटक गया था भय से। अब वह आश्वस्त हुआ।
मौत का फरिश्ता था काफिर ! दूसरों के घोड़े भी पास खिसक आये । इनके करिश्मों से खुदा बचाए। लड़की को उसके सम्बन्धियों तक पहुँचाने की व्यवस्था में रघुनाथ दास को सवेरा हो गया। अभी वह आश्रम के द्वार पर ही था कि अचानक समर्थ के स्वामी रामदास आते दिख पड़े । वह आते ही आते उस पर असन्तुष्ट हो गए थे। जिसमें शौर्य नहीं है वह साधना नहीं कर सकता ।
शौर्य से परिपूरित इतना बड़ा काम कर डालने के बाद भी शौर्य के लिए उलाहना । इस बीच और साधु भी आ गए थे। सबने अपने भाग का सेवाकार्य सम्पन्न कर लिया था। प्रातः स्नान सन्ध्या एवं अर्चन से अवकाश मिलते ही सबको श्री समर्थ ने अपने समीप बुला लिया । अब आपके सम्मुख वे संचालक को सम्बोधित कर रहे थे। अब तुम आश्रम के योग्य नहीं रहें । कहीं अलग रहो और गृहस्थाश्रम को अपना लो तो अच्छा ।
हुआ क्या है? किसी के समझ में बात नहीं आ रही थी । संचालक ने प्रमाद नहीं किया था। रात्रि में वे एकाकी जाकर यवनों द्वारा हरण की गई कन्या को ले आये थे। कहीं कोई कापुरुषता उनके द्वारा नहीं हुई किन्तु श्री समर्थ सर्वज्ञ हैं। वे अकारण इतने क्षुब्ध भी तो नहीं हो सकते । अब तो वे साधु भी आ गये थे, जिन्हें रात्रि के सुरक्षित शव को विसर्जित करने का आदेश मिला था।
वह लड़की कहाँ है? समर्थ ने पूछा लक्ष्मणदास उसे उसके मामा के पहुँचाने गया है। संचालक बोलने का साहस नहीं कर सके तो एक दूसरे साधु ने कहा। वह बार-बार मूर्च्छित हो रही थी । सम्भव है स्वजनों में पहुँच कर कुछ आश्वस्त हो ।
इस बार श्री चरण मुझे क्षमा करें । हिचकियाँ लेते हुए रघुनाथदास समर्थ के चरणों पर गिर पड़े।
सौंदर्य की वह सुकुमार मूर्ति-बहुत दूर तक उसे अश्व पर अपने आगे अपने अंक में बिठाकर लाना पड़ा था। अरुणोदय की आभा में उसकी वह म्लान मुख छवि रघुनाथदास को दोष कैसे दिया जाए ? साधन परिशुद्ध उनके चित्त में पता नहीं कहाँ से कामुकता का मनोभाव उठ खड़ा हुआ था । वे तरुण हैं, उनके बाहु कई बार थरथराए भी हैं। बालिका को सम्भवतः कुछ अधिक सावधानी से अश्व पर उन्होंने सम्हाल लिया था। अपने से सटा लिया था। संभवतः यही विकार समर्थ देख चुके थे ।
आँख का स्वभाव है रूप पर आकृष्ट होना सर्वज्ञ गुरु शिष्यों को सचेत कर रहे थे- इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों का स्वभाव अपने-अपने विषयों की ओर जाना है। मनका स्वभाव संकल्प विकल्प करते रहना है। इन्द्रियों एवं मन के इस स्वभाव पर जिसने विजय प्राप्त कर ली, केवल वही शूर है। शेष सब कायर हैं। साधु लोकसेवी ही नहीं लोक शिक्षक भी होता है। उसके द्वारा अपने दायित्व का भली प्रकार निर्वाह तभी सम्भव है जब उसमें शौर्य हो । श्री रघुवीर समर्थ की सेवा तो मन इन्द्रियवर्ग के स्वभाव पर विजय पाना वाला शूर ही कर सकता है ।
केवल इस बार श्री चरण मुझे क्षमा करें रो रहे थे रघुनाथदास गुरु के चरणों में मस्तक रखे। आश्रम में तुम्हें स्थान नहीं दिया जा सकता कुसुम कोमल संत पता नहीं क्यों कभी-कभी वज्रकठोर हो उठते हैं। तुम्हें गृहस्थ बनने की आज्ञा तो मैं नहीं देता । वह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है किन्तु कहीं अलग रहो । लोकसेवी साधु रहना हो तो शौर्य उपार्जन करना चाहिए। वह शौर्य सबसे पहले आत्मसत्ता पर विजय प्राप्त कर ही संपन्न हो सकता है।