एक धनी सज्जन रामकृष्ण परमहंस के पास आये। उन्होंने परमहंस को धन देने का आग्रह किया और बोले, “महाराज, इस धनराशि को आप स्वीकार करें। इसे आप परोपकार के कार्यों में लगा दीजिएगा।” परमहंस मुसकराये “भाई मैं तुम्हारा धन ले लूँगा तो मेरा चित्त उसमें लग जायगा। इससे मेरी मानसिक शाँति भंग होगी।” धनिक ने तर्क दिया, “महाराज, आप तो परमहंस हैं। आपका मन उस तैल-बिन्दु के समान है जो कामिनी-काँचन के महासमुद्र में स्थित होकर भी सदैव उससे अलग रहेगा।” परमहंस गंभीर हो गये- “भाई क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि अच्छे से अच्छा तैल भी यदि बहुत दिनों तक पानी के संपर्क में रहे तो वह अशुद्ध हो जाता है और उससे दुर्गन्ध निकलने लगती है।”
पेरिस के तत्कालीन पुरातत्ववेत्ता जे.ए. लेट्रोन ने बहुत छानबीन और प्रतिमाओं के गहन निरीक्षण करने के उपरान्त एक पुस्तक लिखी है। “ला स्टेचू वोकेल डी मेमनन”। इसमें उनने अनेक तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह ध्वनियाँ मूर्ति के अन्दर किसी याँत्रिक उपकरण का परिणाम नहीं है। उन्होंने इसे मानने से स्पष्ट इन्कार कर दिया है कि संगीत प्रस्तर खण्ड के अन्दर किसी मानव निर्मित वाद्य यंत्र की फलश्रुति है। इसके समर्थन में वे यह तर्क देते हैं कि यदि ऐसा होता तो एक ही प्रकार की ध्वनि उनसे निःसृत होनी चाहिए थी किन्तु विभिन्न पर्यटकों के यात्रा-विवरणों से ऐसा विदित नहीं होता, दूसरे वे अपने निर्माण-काल के बहुत समय बाद तक मौन रहीं फिर उन्होंने बोलना शुरू किया और लम्बे समय के पश्चात एक बार पुनः मौन धारण कर लिया है। इतिहासकारों के अनुसार ईसा पूर्व 20वीं शताब्दी से लेकर सन् 196 तक यह मूर्तियाँ प्रत्येक सुबह नहीं तो कम-से-कम वर्ष में अनेक बार अवश्य बोलती थीं, किन्तु इसके उपरान्त यह एकबार पुनः मौनव्रत का अनुपालन कर रही हैं और कब तक करती रहेंगी, यह अविज्ञात है। लेट्रोन की अवधारणा है कि यदि याँत्रिक कारणों से आवाजें होतीं, तो उन्हें निश्चित अन्तराल पर बराबर होनी चाहिए थीं, पर अब तक के साक्ष्यों के अनुसार इनकी मौन की अवधि सदा अनिश्चित रही है। वे इन आवाजों को प्रकृति का कोई विशेष संकेत संदेश बताते हैं, जिन्हें समझने में अब तक मनुष्य विफल रहा है।
अँग्रेज पर्यटक सर ए. स्मिथ के अनुसार मेमनन की मूर्तियों ने 19वीं सदी के प्रारंभिक दशक में भी आवाजें उत्पन्न की थी, किन्तु इस बात की कोई और साक्षी उपलब्ध नहीं होने के कारण इतिहास वेत्ता इसे प्रामाणिक नहीं मानते। हाँ, फ्राँस का “रिव्यू एन्साइक्लोपीडिक” (भाग 9, पृ. 598, पेरिस, मार्च 1821) ही एक मात्र ऐसा उपलब्ध ग्रन्थ है, जो ए. स्मिथ के इस कथन को पुष्टि करता है, कि आधुनिक काल में भी ये मेमनन के प्रस्तर विग्रह अचानक एक बार पुनः मुखर हो उठे थे। इसके पश्चात अधुनातन समय में फिर किसी ने इनकी बोलियाँ नहीं सुनीं, और न ही इस संबंध में कोई लिखित रिकार्ड पाया गया है।
उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ऐसी ही ध्वनियाँ नेपोलियन के मिश्र अभियान दल में सम्मिलित तीन मूर्धन्य वैज्ञानिकों जोमार्ड, जोल्वायस एवं डेविलियर्स ने वहाँ की अन्य कई मूर्तियों से उत्सर्जित होती हुई अपने कानों सुनी थीं। उन्होंने तब उन रहस्यमय आवाजों के कारण जानने की असफल कोशिश की थी, हर प्रकार से विग्रहों का निरीक्षण-परीक्षण किया था और संदेह की ऐसी कोई गुँजाइश शेष नहीं छोड़ी थी कि बाद में लोग उनकी जाँच पर उँगली उठा सकें, मगर नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात वाला सामने आया। जब वे इस संबंध में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके, तो अन्ततः थककर उनने शोध कार्य अधूरा छोड़ दिया, परन्तु अध्ययन के उपरान्त उनने एक टिप्पणी अवश्य की थी कि मूर्तियों से निकलने वाली सुरीली धुनों के संबंध में किसी प्रकार की शंका करना नितान्त भ्रमपूर्ण है। उनके अनुसार यह संगीत प्रतिमा के अन्दर से ही यदा-कदा निकलता है-इसमें दो मत नहीं है। उन्होंने लिखा है कि मिश्र के सियोन और कारनक मन्दिर के विग्रहों के अन्दर से जो आवाजें प्रस्फुटित हुई थीं, उनकी ध्वनियाँ पाउसेनियस द्वारा वर्णित मेमनन की मूर्तियों से विकीर्ण साज से काफी कुछ मिलती जुलती हैं।