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November 1991

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गुणाश्च षण्मितभुक्तं भजन्ते,

आरोग्यमायुश्च बलं सुखंच।

अनाविलंचास्य भवत्यपत्यं,

न चैन माद्युर्नमिति क्षिपन्ति॥

मिताहार में छः गुण हैं। उससे रोग नहीं होता है। आयु बढ़ती है। बल तथा सुख लाभ होता है। मिताहारी के पुत्र आलस्य-परायण नहीं होते हैं और लोग उनको औदरिक भी नहीं कहते है।

अनारोग्य मनायुष्यमष्वर्ग्यंचाति भोजनम्।

अपुण्यं लोक विद्विष्टं तस्मात्तं परिवर्जयेत्॥

अमिताहार से रोग होता है, आयु घटती है, स्वर्ग नष्ट होता है, पुण्य नष्ट होता है और लोक विद्विष्ट भी है, अतः अतिभोजन त्यागना चाहिए।

सबसे बड़ा अवरोध जीवन प्रगति के मार्ग में एक ही है वह है दिशा भूल। संभवतः इसी को ज्योतिषी दिशा शूल कहते होंगे। लक्ष्य से भटक जाने वाले भूलभुलैयों में फिरते और थकान, निराशा, खीझ के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत नहीं करते। मिथ्या आकर्षणों के वशीभूत होकर कितने ही क्षुद्र प्राणी भयंकर संकट में पड़ते हैं। दाने के लोभ में चिड़िया जाल में फंसती है। आटे की गोली के लालच में मछलियाँ जान गंवाती हैं। वीणा की स्वर लहरी सुनकर हिरन और सपेरे की बीन सुनकर साँप पकड़े जाते हैं। चासनी पर बेतहाशा टूटने वाली मक्खी भी अपने पंख फंसाती और उसी में तड़प-पड़प कर मरती है। मनुष्य के लिए कुछ ऐसे प्रलोभन हैं जो उसके पीछे लगते हैं तो भूत पिशाच की तरह निगल कर ही छोड़ते हैं। नशेबाजी के बारे में प्रसिद्ध है कि आरंभ में पीने वाले उन्हें शौक मजे का आभास करते हुए आदत में सम्मिलित करते हैं किन्तु बाद में वे ही सेवनकर्ता के स्वास्थ धन, सम्मान, संतुलन, परिवार आदि की पूरी तरह चौपट कर देते हैं, यह भ्रम जंजाल ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इतने पर भी लोग उनके प्रलोभन में फंसते और जिन्दगी का सार तत्व उन्हीं के कुचक्र में बरबाद कर देते हैं, मृगतृष्णा वाला हिरन इसी प्रकार दुर्भाग्यग्रस्त होता है। कस्तूरी की सुगन्ध के लिए दिशा दिशा में छलाँगें लगाने वाले भी खिन्नता और असफलता के अतिरिक्त और कुछ पाते कहाँ है?

वासना कितनी मधुर लगती है। तृष्णा का लालच कितना आन्दोलित करता है। अहंता के उन्माद में इठलाता-अकड़ता व्यक्ति उद्धत प्रदर्शन और झूठे बड़प्पन के लिए न जाने कितने जाल जंजाल रचता रहता है। इन्हें मनमर्जी स्तर पर पूरा कर सकना किसी के लिए भी संभव नहीं हुआ। समुद्र जैसी इस खाई को पार कर सकने में अब तक कोई सफल नहीं हुआ और न भविष्य में कोई कर सकेगा। भौतिक महत्वकाँक्षाएँ किसी की भी पूर्ण नहीं हुई, जब तक एक सीढ़ी चढ़ा जाता है तब तक आगे की और दस सीढ़ियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं। मनोरथों की प्रबलता एक क्षण के लिए भी संतुष्ट नहीं होती और अधिक पाने के लिए निरन्तर ललचाती और अगले कदम बढ़ाती रहती है। यही है वह चक्रव्यूह जिसमें फंसकर महाभारत वाला अभिमन्यु ही नहीं मरा था वरन् हर महत्वाकांक्षी को इसी प्रकार इतना फँसना पड़ता है जिसमें बाहर निकलने का कोई मार्ग ही नहीं रह जाता है। जीवन इतना लम्बा नहीं है कि इन प्रयोगों को अन्तकाल तक करते रहा जाय।

महत्वाकाँक्षा उचित भी हो सकती है और ग्राह्य भी पर वे होंगी तभी जब वे आदर्शवादिता के साथ जुड़ी हुई हों, उनमें पुण्य परमार्थ का पुट हो, ऐसे पुरुषार्थ करने की ललक हो, जो दूसरों के लिए प्रेरणाप्रद अनुकरणीय एवं अभिनंदनीय बन सकती हों। सच्चा बड़प्पन उन्हीं में सन्निहित है। महानता अर्जित एवं चरितार्थ करने के लिए उत्कृष्टता का अवलम्बन लेना पड़ता है। साथ ही संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँचा उठकर तप संयम एवं मर्यादा पालन की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है, भोगवादी प्रचलनों के आज के वातावरण में ऐसा कर सकना असाधारण शौर्य साहस का परिचय देता है। मनुष्य स्वभाव अनुकरण प्रिय है। जैसा घटनाक्रम संपर्क क्षेत्र में घटित होता रहता है, जैसे वातावरण में समय गुजरता है उसी का अनुकरण करने के लिए स्वभाव ढल जाता है। साथी सहयोगी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वर्तमान ढर्रे पर चलने के लिए आकर्षित करते रहते हैं। यह प्रवाह है। उसमें हल्के-फुल्के व्यक्तित्व सहज ही बहते चले जाते हैं। किन्तु जो सर्वसाधारण द्वारा अपनाया नहीं जा रहा है, जो महामानवों की जीवनचर्या में समाविष्ट देखा जाता है। उसके अनुकरण की योजना कैसे बने? उत्कृष्टतावादी प्रतिभाएँ निकट तो रहती नहीं, वे या तो पुरातन युग में हो चुकी हैं या कहीं दूर रहती हैं उन्हें कैसे और कहाँ पाया जाय? इस धर्म संकट में केवल आत्मविश्वास ही काम देता है। एकाकी चल पड़ने की हिम्मत ही आदर्शवादी महत्वाकाँक्षा को पूरा करने के लिए साहस प्रदान करती है।


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