केवल सिर मुड़ा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, केवल नाम जपने से कोई सिद्ध नहीं होता, केवल क्रिया करने से कोई योगी नहीं होता। केवल मृगछाला पहनने से कोई योगी नहीं होता। संत को मन बदलना पड़ता है।
की भी कल्पना की जा सकती है। प्रमुख उद्देश्य है-शरीर को पूरी तरह ढीला करना तथा मन को भी शिथिल व शान्त करना।
इस प्रकार के शिथिलीकरण के नियमित अभ्यास से शारीरिक-मानसिक तनावों पर पूरी तरह नियंत्रण हो जाता है। यह मनोनिग्रह की भी प्रथम भूमिका है। उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं एवं ध्यान के लिए यह मनः स्थिति आवश्यक है। इससे उपासना में भी प्रगति होती है और दैनन्दिन जीवन में भी सहज प्रसन्नता समाई रहती है। प्रारंभ में शिथिलीकरण का अभ्यास 10-15 मिनट तक करना चाहिए, बाद में इसे आधे घंटे तक बढ़ा सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के इच्छुक प्रत्येक साधक को यह अभ्यास बहुत सहायक सिद्ध होता है। अन्यथा तनावग्रस्तता एवं चित्त विक्षेप की स्थिति में मन कभी भी एकाग्र नहीं हो पाता और चित्त की तन्मयता-प्रसन्नता के बिना जप और उपासना-साधना से समुचित लाभ नहीं मिल सकता, पर्याप्त प्रगति नहीं हो पाती।