एक था, राक्षस। उसने एक आदमी पकड़ा। खाया नहीं, डराया और कहा, मेरी मर्जी के कामों में निरन्तर लगा रह। ढील की तो खा जाऊँगा।
आदमी से जब तक बस चला तब तक काम करता रहा, जब थक कर चूर-चूर हो गया और आजिज आ गया तो उसने सोचा, तिलतिल मरने से तो एक बार ही पूरी तरह मरना अच्छा। उसने राक्षस से कह दिया। “जो मर्जी हो करे इस तरह मैं नहीं खटता रह सकता।”
राक्षस ने सोचा, काम का आदमी है। थोड़ा-थोड़ा काम बहुत दिन करता रहे तो क्या बुरा है। एक दिन खा जाने पर तो उस लाभ से हाथ धोना पड़ेगा, जो उसके द्वारा मिलता रहता है।
राक्षस ने समझौता कर लिया और खाया नहीं, थोड़ा काम करते रहने की बात मान ली।
कथा सार यह है कि हममें ‘ना’- कहने की भी हिम्मत होनी चाहिए। “गलत काम का समर्थन नहीं करूंगा। उसमें सहयोग नहीं दूँगा।” जिसमें इतना भी साहस न हो सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं माना जा सकता।