शक्ति के स्रोत और सद्गुणों के समुच्चय का दूसरा नाम ईश्वर है। इसे नियामक शक्ति और उसकी विधि-व्यवस्था के रूप में भी समझ सकते हैं। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। यह अनादि काल से है और अनंत काल तक रहेगी। मनुष्य इसे पहचाने और इसका ध्यान रखते हुए उछले, गिरे, उठे और चले तो उसके कार्य ठीक रहेंगे। उसकी सत्ता का ध्यान रखे बिना हलचलें करने पर चोट लगना स्वाभाविक है। नदी की प्रचण्ड धारा में जो भी पड़ेगा बहेगा और निर्धारित नियमों के अनुसार तैरेगा या डूबेगा। किनारे बैठकर स्नान करने में, तैरना सीखकर पार जाने में नदी अपने लिए कोई अवरोध नहीं खड़ा करती। नाव चलाकर परिवहन का लाभ भी उस नदी प्रवाह से लिया जा सकता है। पर लोहे की नाव बनाकर अथवा छेद वाली लकड़ी की नाव में बैठकर चला जायगा तो फिर डूबना निश्चित है। परमात्म सत्ता को गुरुत्वाकर्षण अथवा नदी के प्रवाह जैसा सोचा जा सकता है। हमें उससे लाभ उठाना हो तो अनुकूलता प्रतिकूलता के नियमों को समझने और तदनुरूप आचरण करने की बात सोचनी चाहिए।
बिजली की उपयोगिता सुविदित है। इससे सम्बन्ध जोड़कर घर के पंखे, हीटर, कूलर, बल्ब, रेडियो आदि न जाने कितने यन्त्र चलाए जा सकते हैं। इन यन्त्रों के अनेकों लाभों से लाभाँवित हुआ जा सकता है। खुले तार छूने में प्राण संकट उत्पन्न होगा। नियामक सत्ता की विधि व्यवस्था भी कुछ इसी तरह है।
भगवान दयालु है, उदार है, भक्त वत्सल है दीनबन्धु हैं, यह सब कुछ ठीक है। यदि ऐसा न होता तो इतना बहुमूल्य शरीर यंत्र मुफ्त में हमें कैसे मिल जाता? जीवन निर्वाह के इतने उपयुक्त साधन किस तरह जुट जाते? प्रगति के पथ पर चलते हुए अपने पुरुषार्थ से भी अधिक परिस्थितियों की अनुकूलता का सहारा क्यों मिलता है? उसकी उदारता और दयालुता में सन्देह रखने जैसी कोई बात नहीं। किन्तु यह मान्यता तब तक अधूरी ही बनी रहेगी जब तक उसके रुद्र नाम को भी ध्यान में न रखा जाय। रुद्र का अर्थ होता है भयंकर। वस्तुतः वह उतना ही भयंकर भी है जितना दयालु।
बिजली, गुरुत्वाकर्षण, नदी, प्रवाह, आग आदि का सदुपयोग इन देवताओं से वरदान दिलाता है और हमारे क्रियाकलापों में इनसे अतिशय सहायता मिलती है। लेकिन दुरुपयोग आरम्भ होते ही ये सभी निर्दयता पर उतारू हो जाते हैं और मर्यादा उल्लंघन की धृष्टता के लिए तिल-मिला देने वाला दण्ड देते हैं। थोड़ी सी चूक भी उन्हें सहन नहीं। जितनी बड़ी शक्ति उतनी ही कठोर उसकी व्यवस्था। बैटरी छूने से मामूली झटका भर लगेगा, पर जहाँ प्रचण्ड विद्युत धारा बह रही होगी-वहाँ एक सेकेण्ड के स्पर्श से ही मृत्यु दण्ड का निर्णय हो जाएगा। ईश्वरीय चेतना प्रचण्डतम शक्ति है। इसी महान शक्ति स्रोत से विश्व की तमाम छोटी-बड़ी शक्तियाँ उद्भूत हुई हैं। उसकी सृष्टि-व्यवस्था मर्यादा के रूप में अपना काम चला रही हैं। सूर्य, चन्द्र, बादल, समुद्र, धरती सभी उसकी नियम व्यवस्था के अनुरूप चलते हैं। यदा-कदा दिखने वाले आश्चर्य भी मनमानी नहीं, विज्ञान के उन नियमों के अनुसार होते हैं जिन्हें हम साधारणतया अनुभव नहीं कर पाते।
ईश्वरीय नियमों का पालन करना मनुष्य के लिए अनिवार्य कर्तव्य है। इस अनुशासन को हम भूलते हैं। जो सामने नहीं दीखता उसकी चीजें चुराने का प्रायः दुस्साहस किया जाता है। ईश्वर को भुला बैठने का मतलब है उसकी उस व्यवस्था का विस्मरण जिसकी अनुकूलता रखकर हम अपना जीवन सुख-शान्ति और प्रगति की दिशा में चलाते रह सकते हैं। साथ ही उसका अतिक्रमण करके भयंकर विपत्ति में फँसते और दुःख उठाते हैं। चूँकि ईश्वर दीखता नहीं, मोटी बुद्धि उसकी सर्वव्यापकता की कठोर व्यवस्था को नहीं देख पाती इसलिए अवज्ञा का दुस्साहस करती रहती है। उपासना का अर्थ है उस अदृश्य सत्ता के अस्तित्व और विधान की अनुभूति और तदनुसार मर्यादा पालन के लिए अपनी मनोभूमि का प्रशिक्षण।
विद्युत की भारी भरकम मशीनें जहाँ लगी रहती हैं वहाँ “440 वोल्ट-खतरा” लिखा रहता है। इतना ही नहीं वहाँ एक मृत मुण्ड का चित्र, मौत का स्मरण दिलाने के लिए टाँग दिया जाता है। ऐसे खतरनाक स्थानों पर यह बोर्ड टाँगने का कानून है। इस बोर्ड को देखने पर ये तथ्य मन को सचेत करते हैं और बिजली के खतरे की विस्मृति से उत्पन्न होने वाली विभीषिका का खतरा कम करते हैं। ठीक इसी तरह मन्दिर, देवालयों, घरों में रखे ईश्वर के चित्र प्रतीकों से हमारी ईश्वरीय शक्ति के सम्बन्ध में विस्मृति दूर होती है और अप्रत्यक्ष सत्ता का प्रत्यक्ष से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी शक्ति के रूप में आभास होने लगता है।
प्रार्थना के शब्दों में प्रायः ऐसी भाषा का प्रयोग होता रहा है, जिससे लगता है वह याचना है। याचना की बात उसी सीमा तक ठीक है जब तक उचित मूल्य चुकाने के साथ की जाय। हथेली पर पैसे रखकर टिकट बाबू से टिकट माँगें तो ठीक है। यदि मुफ्त में ही रेल टिकट की याचना करें तो उसकी पूर्ति होना कठिन है। ऐसे तो रेलवे प्रशासन ही ठप्प हो जायगा। मुफ्तखोरों को उदारतापूर्वक टिकटें बँटने लगें तो फिर रेल चलाने में जो खर्चा पड़ता है, वह कहाँ से आवेगा? ईश्वर से प्रार्थना की जाय और मनोकामनाएँ पूरी हो जायँ यदि ये बात इतनी सस्ती और इतनी वास्तविक रही होती तो निश्चय ही पूजा प्रार्थना से बढ़िया उद्योग इस संसार में और कोई न दिखाई पड़ता। फिर हर समझदार आदमी दूसरे सब काम छोड़कर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए “अमुक विधान से अमुक देवता की अमुक पूजा पत्री” करने में ही अपनी सारी गतिविधियाँ केन्द्रित कर देते। ऐसी दशा में पुरुषार्थ पराक्रम, क्षमता, विकास, सतर्कता, प्रामाणिकता, प्रतिद्वन्द्विता जैसे वे तथ्य ही समाप्त हो जाते जो मानवीय व्यक्तित्व को विकसित करने के आधारभूत कारण रहे हैं।
प्रार्थना जिस ईश्वर से ही जाती है वह वस्तुतः अपनी ही अन्तरात्मा है। ईश्वर अर्थात् अन्तरात्मा में सन्निहित दिव्य चेतना। परमेश्वर अर्थात् विश्व व्यापी सृष्टि व्यवस्था। हमें परमेश्वर को जानना चाहिए। ब्रह्म विद्या का विचार साहित्य इसीलिए सृजा गया है कि मनुष्य की प्रत्यक्षदर्शी आँखें विवेक का तीसरा नेत्र खोलें और परोक्ष में विद्यमान परमेश्वर और उसके विधान का साक्षात्कार कर सकने में समर्थ बन सकें। ज्ञानयोग इसी का नाम है। गीता, उपनिषदों आदि के पाठ, पारायण, प्रवचन आदि के सहारे मनःचिन्तन के आधार पर ज्ञानयोग की साधना की जाती है और ब्रह्म दर्शन का लाभ मिलता है। पूजा उपासना का विधि-विधान भक्तियोग के अंतर्गत आता है। भक्ति ईश्वर की ही की जाती है। इसलिए सर्वत्र “ईश्वर भक्ति” शब्द ही प्रयोग में आता है। अपनी भुलक्कड़ चेतना को झकझोरने और उसे विकासोन्मुख बनाकर मनोकामना पूर्ति का वरदान दे सकने योग्य बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी अनुनय-विनय का नाम ईश्वर प्रार्थना है।
ज्ञान और भक्ति का समन्वय कर्म में होता है। ज्ञान यदि सच्चा है तो उसे व्यवहार में उतरना चाहिए। इसी प्रकार भक्ति यदि सच्ची है तो उसकी मादकता शरीर के अवयवों पर छाई रहनी चाहिए। ज्ञानयोग के लिए रची गई ब्रह्मविद्या और भक्तियोग के लिए सृजे गए पूजा-विधान का समन्वय कर्म में होता है। कल्पना की उड़ाने कुछ काम नहीं देतीं। प्रयोजन तो कर्म से ही पूरे होते हैं। किसी के व्यक्तित्व की तौल उसके कर्मों को देखकर की जाती है, ज्ञानयोग और भक्तियोग किसका, किस स्तर का है? इसकी वास्तविकता परखने की एक ही कसौटी है प्रखर और परिष्कृत कर्म। गीता आदि शास्त्रों में यही कर्मयोग प्रतिपादित हुआ है। साथ ही यह भी कहा गया है कि कर्तव्य कर्म अनायास ही नहीं बन पड़ते। इस कल्प वृक्ष का परिपुष्ट और फलित होना उस खाद-पानी के बगैर सम्भव नहीं हो सकता जिसे ज्ञानयोग और भक्तियोग कहते हैं।