तृण पर्णोदकाहाराः सततं वन वासिनः।
जम्बूकाखुमृगाद्याश्च तापसास्ते भवन्ति किम्॥ 67॥
आजन्म मरणान्तं गंगादि तटिनी स्थिताः।
मण्डूकमत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्॥ 68॥
पारावत्शिलाहा हराः कदाचिदापि चातकाः।
न पिवन्ति महीतोयं ब्रतिनस्ते भवन्ति किम् ॥ 69॥
तस्मान्तिस्यादिकं कर्मलोकरंजन कारकम्।
मोक्षस्य कारणं साक्षातत्वज्ञानं खगेश्वर ॥ 70॥
घास, पत्ते, पानी का आहार करने वाले तथा नित्य वन में रहने वाले गीदड़, चूहे, मृगादि क्या तपस्वी हो जावेंगे॥ 67॥
जन्म से लेकर मरने तक गंगादि नदियों के किनारे रहने वाले मेंढक मछली आदि क्या योगी हो जाते हैं॥ 68॥
पत्थरों का आहार करने वाले कबूतर और कभी भी पृथ्वी का पानी न पीने वाले चातक क्या वे व्रती हो जाते हैं॥ 69॥
इसलिये नित्यादि कर्म तो लोगों को प्रसन्न करने के लिये हैं। मोक्ष का साक्षात् कारण तो ज्ञान ही है॥ 70॥