भावनाओं की प्रगाढ़ता (Kahani)

November 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आकाश को मुट्ठियों से न मारो, भूसा कूटकर तेल न निकालो, बालू के महल न बनाओ और पानी मथकर घी मिलने की आशा न करो। कुकर्मों के सहारे उन्नतिशील बनने की योजना न बनाओ

साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है। तीसरी सर्वोच्च भूमिका में तो गायत्री माता के दाहिने नेत्र की पुतली ही ध्यान का केन्द्रबिन्दु बन जाती है। पुतली के बीच में जो काला मध्य बिन्दु है, जिसे तिल कहते हैं उसका ज्योति स्त्रोत के रूप में ध्यान किया जाता है। उस ज्योति में साधक अपनी आत्मा को उसी प्रकार होमता है, जैसे जलती हुई अग्नि में लकड़ी को डालने से उसे भी अग्नि की समरूपता मिलती है। माता की ज्योति में अपने आपका आत्म-समर्पण करने से मनोलय की प्रेम समाधि जैसी स्थिति आ पहुँचती है और ‘लययोग‘ की सिद्धि होती है। उसी स्थिति में अद्वैत अनुभव होता है। आत्मा और परमात्मा एक ही हुए परिलक्षित होते हैं। आत्मा साक्षात्कार का अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।

उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार, दोनों ही परिस्थितियों में जप के साथ ध्यान अनिवार्य है। ध्यान से चित्त में स्थिरता आती और अन्तः चेतना की प्रखरता बढ़ती है। प्रेम भाव का विकास होता है। श्रद्धासिक्त भावनाओं की प्रगाढ़ता जितना अधिक बढ़ती और उच्चस्तरीय बनती जाती है, साधना की सफलता भी उतनी ही तीव्रगति से अपना सत्परिणाम प्रस्तुत करती और साधक को धन्य बनाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles