सत्य की ओर चल रही महायात्रा

November 1991

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सत्य का शोध वह परम लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने की दिशा में निरन्तर प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस दिशा में जितनी प्रगति होती चलती है, पिछली पीढ़ियों का महत्व उतना ही घटता जाता है। यों पीछे-पीछे चल कर आने वाले के लिए वे पिछली पीढ़ियाँ भी अगली के समतुल्य ही होती हैं।

मनुष्य क्रमिक गति से अविज्ञात से ज्ञात की दिशा में चल रहा है। जो पिछले दिनों अज्ञात था, उसकी जानकारी अगले कुछ समय में प्राप्त कर ली जाती है। इस प्रकार अविज्ञात ज्ञात बन जाता है, फिर यही क्रम आगे चलता है एवं उससे और आगे की जानकारी उपलब्ध की जाती है। इस क्रम में अब तक लम्बी मंजिलें पार कर ली गई हैं, किन्तु जितना चलना शेष है, उसे भी कम नहीं माना जाना चाहिए। हम सत्य के शोधक भर हैं। क्रमिक गतिशीलता ही अपनी सफलता है। पूर्ण सत्य की उपलब्धि ही चरम लक्ष्य है।

दृश्य, बुद्धि एवं अनुभूतियों के सहारे जो जाना जाता है, वह आँशिक सत्य है। हमारी जानकारियाँ ‘सापेक्ष’ हैं। किसकी अपेक्षा क्या और कौन अधिक उपयुक्त है, इतना ही मात्र जाना जा सकता है। किन मान्यताओं को स्वीकार किया जाय, किन्हें छोड़ दिया जाय, इस संदर्भ में आवश्यक-अनावश्यक, उपयोगी अनुपयोगी, सार्थक-निरर्थक, छोटी-बड़ी को ध्यान में रख कर चुन लेना ही उपयुक्त है, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि जिसे कनिष्ठ माना गया है, वह सचमुच कनिष्ठ ही है। अपने से घटिया से जब तुलना होती है, तब कनिष्ठ भी वरिष्ठ बन जाता है और अपने समुदाय में उसे सर्वश्रेष्ठ की उपाधि दी जाने लगती है। इतने पर भी वह सर्वोत्तम नहीं हो सकता, यह सर्वविदित है, जब उसे वरिष्ठों के दरबार में उपस्थित किया जायेगा, तो गणना कनिष्ठों में ही होगी। तब यह नहीं माना जा सकेगा, कि अमुक चुनाव में उसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जा चुका है। यही बात उपयोगी-अनुपयोगी, आवश्यक, अनावश्यक, सार्थक-निरर्थक जैसी मान्यताओं के साथ भी लागू होती है। सबको समय, परिस्थिति, व्यक्ति, वस्तु के सापेक्ष ही ऐसी संज्ञाएँ दी जाती हैं।

इस संदर्भ में आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धाँत ने विज्ञान, दर्शन और व्यवहार के तीनों क्षेत्रों को चिन्तन की नई दिशा दी है और कहा है कि आग्रह व दुराग्रह पर न अड़ा जाय एवं समय, परिस्थिति व स्थिति के आधार पर जो औचित्यपूर्ण लगे, उसे अपना लिया जाय, क्योंकि सभी मान्यताएँ आँशिक सत्य होती हैं, उनकी उपयोगिता एक स्थिति में बहुत अधिक हो सकती है, किन्तु दूसरी स्थिति में उसे निरर्थक भी ठहराया जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का मानापमान, हार-जीत का विचार नहीं बना लेना चाहिए, अपितु यह माना जाना चाहिए कि हम सभी पूर्ण सत्य की दिशा में खोज करते हुए क्रमशः आगे बढ़ रहे हैं। सभी अपूर्ण हैं, पूर्ण तो केवल ईश्वर है। ऐसी दशा में हम पूर्ण और हमारी मान्यता पूर्ण यह अड़ियल रुख अपना लेने से सत्यान्वेषण की दिशा में हमारी प्रगति ही अवरुद्ध हो जायेगी और हम प्रतिगामिता के पक्षधर बन कर रह जायेंगे, यहाँ सापेक्षवाद हमारी सहायता और जड़ता से रक्षा कर सकता है। सापेक्षवाद का अँगुली-निर्देश सत्यान्वेषी-तथ्यान्वेषी होने के लिए जन-चेतना को सहमत करना है। इसमें प्रगतिक्रम को बनाये रखने और पूर्वाग्रहों के प्रति लचीला रुख अपनाने का भी अनुरोध है।

दर्शन और विज्ञान के द्रष्ट मनीषी आइंस्टीन ने दूरी, समय और पदार्थ को भी सापेक्ष कहा है और बताया है कि इनके संदर्भ में अपनायी गई वर्तमान मान्यताएँ भी तुलनात्मक प्रयोजन से ही सत्य हैं, आँशिक सत्य, पूर्ण सत्य नहीं, उदाहरण के लिए यात्रा। साइकिल सवार को लिया जा सकता है। उस पर यात्रा करने वाले को व्यक्ति को मार्ग की वस्तुएँ उसी रूप में दिखायी देंगी, जिस रूप में वे हैं, जबकि एक ट्रेन यात्री को वे छोटी दिखायी देंगी। किसी अतितीव्र वाहन में सफर करने वाले व्यक्ति को मार्ग की कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होगी। आशय यह है कि लम्बाई, चौड़ाई की धारणा गति के सापेक्ष है। पृथ्वी पर समय की गणना सौर मण्डल की गति के आधार पर होती है, जबकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की तुलना में यह गति नगण्य है।

यदि मनुष्य किसी प्रकार ऐसे ग्रह पर पहुँच जाय, जो पृथ्वी से सैकड़ों प्रकाश वर्ष दूर तथा वहाँ से किसी शक्तिशाली टेलिस्कोप के माध्यम से पृथ्वी को देखे, तो हजारों वर्ष पूर्व घटित हुए घटनाक्रम उसे फिल्म की भाँति उसी प्रकार दिखाई देंगे, मानों अभी-अभी यह सब उसके सामने घटित हो रहे हों। ऐसी स्थिति में महाभारत व राम-रावण युद्ध एवं ऐतिहासिक काल के ऐसे ही ढेरों घटनाक्रम, देखे जा सकते हैं। अभिप्राय यह है धरती वासियों के लिए जो वर्तमान काल है, वह दूरस्थ ग्रह के लिए भविष्य एवं धरित्री के लिए जो भूतकाल था वह उनके लिए वर्तमान। इसी प्रकार अन्य ग्रहों के लिए जो भूतकाल था वह पृथ्वी वासियों के लिए वर्तमान है और जो वहाँ वर्तमान है, वह पृथ्वी पर सैकड़ों वर्ष बाद घटित होने वाला भविष्य। इस प्रकार स्पष्ट है कि भूत, वर्तमान और भविष्य का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, वे सब प्रकाश की गति के सापेक्ष है? पृथ्वी से प्रकाश के अन्य नक्षत्रों तक पहुँचने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। इसी प्रकार अन्य तारों से पृथ्वी तक प्रकाश किरणें आने में लम्बा समय लेती हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि घटनाओं का सर्वथा लोप नहीं होता, उनका स्थूल स्वरूप भले ही लुप्त हो जाय, पर सूक्ष्म स्वरूप प्रकाश के गर्भ में अक्षुण्ण और अक्षय बना रहता है, जिसे आवश्यकतानुसार समर्थ आध्यात्मिक पुरुष देख भी सकते हैं।

योगविद्या के निष्णात विशिष्ट साधना प्रणालियों द्वारा भूतकाल की घटनाओं को दृश्यमान करते हैं। आराध्य के रूप में राम, कृष्ण, हनुमान मुहम्मद साहब, रामकृष्ण, बुद्ध आदि के दर्शनों के पीछे यही तथ्य निहित है कि वे भूतकाल के इन महापुरुषों के माध्यम से चैतन्य प्रक्रिया द्वारा अदृश्य जगत में पहुँच कर वहाँ विद्यमान देवमानवों का साक्षात्कार करते और आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इस संबंध में विवेकानन्द अपनी पुस्तक “राजयोग“ में लिखते हैं कि यहाँ भी गति की भूमिका महत्वपूर्ण है। हमारे इर्द-गिर्द अनेकों अशरीरधारी आत्माएँ घूमती-फिरती रहती हैं, किन्तु हम उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं देख पाते हैं कि उनके प्राण का कम्पन हमारे प्राण कम्पन से कई गुना अधिक है। इसी असमानता के कारण हम उन्हें देखने की बात तो दूर अनुभव भी नहीं कर पाते हैं, योगीजन विशेष साधना उपक्रमों से जब अपने प्राण के प्रवाह को उनके कम्पन गति के समतुल्य बना लेते हैं, तो फिर उनसे संपर्क साधना उनके लिए तनिक भी कठिन नहीं होता। फिर वे स्थूल मनुष्य की तरह उनसे साक्षात्कार कर विचार विनिमय, बातचीत सब कुछ सामान्य ढंग से सम्पन्न कर सकते हैं।

वस्तुतः गति की तीव्रता के साथ-साथ प्रकृति के बन्धन ढीले पड़ते जाते हैं। गति यदि निरपेक्ष हो जाय, तो स्थूल बन्धन टूट जाते हैं। यही बन्धन-मुक्ति है। गति कम रहने के कारण ही स्थूल वस्तुओं का बन्धन बढ़ता जाता है। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति हरिद्वार से आगरा जाता है, जिसमें वह साइकिल का प्रयोग करता है, तो इसमें उसे न सिर्फ अधिक समय लगेगा, वरन् पाथेय की भी समय और दूरी के हिसाब से आवश्यकता पड़ेगी। अन्य व्यक्तियों में से एक मोटर से तथा दूसरा हवाई जहाज से यात्रा करता है तो खाने-पीने की वस्तुओं की आवश्यकता और समय की व्ययिता कम पड़ेगी, पर यदि कोई प्रकाश अथवा टेकियोन (प्रकाश से भी तीव्र गति युक्त कण ) की गति से यात्रा करे, तो इन स्थूल वस्तुओं की तनिक भी आवश्यकता नहीं रह जायेगी। दूसरों शब्दों में स्थूलता का बन्धन पूर्णतः टूट जायेगा। यही चेतनात्मक स्थिति है। योगी लोग इसी में अवस्थित होकर हिमालय जैसे अति शीत प्रधान हिमाच्छादित प्रदेश में जीवित बने रहते हैं। प्रकाश की गति में स्थूल अस्तित्व लुप्त हो जाने से स्थूल चीजों की आवश्यकता भी नहीं रहती।

चेतना को आवृत्त किये रहने में इन्हीं दो की, समय और दूरी की प्रमुख भूमिका होती है। बन्धन में यही बाँधते हैं। विभिन्न साधनाओं का लक्ष्य इसी दूरी और समय को समाप्त करना है।

स्थूल जगत में भी यदा-कदा इस प्रकार की घटनाएँ घटती देखी जाती हैं, जिनमें स्थूल स्वरूप ही लुप्त हो गया हो। अटलाँटिक महासागर में फ्लोरिडा कोस्टारिका एवं बरमूडा के बीच एक ऐसा त्रिकोण है जिसमें ऐसी ही रहस्यमय गतिविधियाँ देखने को मिलती हैं। ऐसा क्यों होता है? तथ्य अब तक अविज्ञात है, पर यदि प्रकाश की तीव्रतम गति की उपरोक्त व्याख्या के आधार पर इसकी विवेचना की जाय, तो जहाज, वायुयान आदि के तिरोधान का कारण स्पष्ट समझ में आ जाता है। विज्ञान जगत में इन दिनों इसी सम्भावना पर अध्ययन चल रहा है कि क्या ऐसा संभव है? और यदि संभव है, तो उस त्रिकोण में ऐसी क्या बात है, जो हर वस्तु को प्रकाश की गति प्रदान कर देती है? मूर्धन्य विज्ञानी चार्ल्स वर्लिट्स ने अपनी बेस्ट सेलर पुस्तक “बरमूडा ट्रेंगिल” में इन्हीं संभावनाओं को लेकर अध्ययन-विश्लेषण किया है।

इस संबंध में गहन अध्ययन करने के उपरान्त भी वैज्ञानिकों को अब तक कोई ऐसा ठोस कारण उपलब्ध नहीं हो सका है, जिससे कि वे दावे के साथ कह सकें कि ऐसा अमुक कारण से होता है, पर अधिकाँश वैज्ञानिकों का विश्वास है कि उक्त क्षेत्र में चलने वाले साइक्लोन की गति प्रकाश की गति के बराबर है, फलतः जहाज, हवाई जहाज इस सीमा क्षेत्र में आते ही प्रकाश की गति पकड़ लेते और त्रिआयामी दृश्य जगत से किसी उच्च आयामी अदृश्य लोक में पहुँच जाते हैं। इस प्रकार की एक घटना 5 दिसम्बर सन् 1945 की है। अमेरिकी जलपोत से उड़े दो वायुयान चालकों सहित लुप्त हो गये। प्राप्त संकेतों के अनुसार चालक यह कहते हुए पाये गये कि हम विचित्र स्थान पर पहुँच गये हैं। यहाँ कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा हैं। यहाँ हम लोगों के अपने स्वरूप भी स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। उस क्षेत्र से बचे हुए कुछ लोगों का कहना था कि वहाँ दिशा, समुद्र, आकाश सभी का स्वरूप एक जैसा लग रहा था, भिन्न कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।

वैसे इस संबंध में एक मान्यता यह भी है कि बरमूडा त्रिकोण लोक -लोकान्तरों से संपर्क साधने का अदृश्य मार्ग है। इस बात की पुष्टि महाभारत के बन तीर्थयात्रा प्रकरण के 132 वें अध्याय के उस तथ्य से भी हो जाती है, जिसमें शास्त्रार्थ में परास्त होने व शर्त के अनुसार समुद्र में डुबोने के बहाने कहोड़ मुनि को बन्दी नामक पंडित ने अपने पिता के यज्ञायोजन में सम्मिलित होने के लिए समुद्र मार्ग से वरुण लोक भेज दिया था और यज्ञ की समाप्ति पर ऐसे सभी शास्त्रज्ञों को पुनः उसी मार्ग से वापस बुला लिया था। तथ्य चाहे जो हो, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे स्थानों में प्रकाश अथवा उससे भी तीव्रगति वाली ऐसी शक्तियाँ कार्य करती हैं जो व्यक्ति, वस्तु अथवा यान को क्षणमात्र में एक से दूसरे लोक में पहुँचा दें। हम ऐसे मार्ग द्वारा दूसरे जगत में पहुँच तो जाते हैं, पर लौटने की विद्या मालूम न होने के कारण पुनः अपने स्थूल संसार में वापस लौट नहीं पाते।

आज उड़न तश्तरियों की चर्चा सामान्य और सर्वत्र है। उन्हें संसार के अनेक भागों में उड़ते देखने और उनकी तस्वीरें खींचने की खबरें समय-समय पर आती रही हैं, किन्तु किसी समाचार से उनकी यह पुष्टि न हो सकी कि दिखाई पड़ने के बाद वायुयान की तरह वह दूर तक उड़ती दिखाई पड़ती रही हों। प्रत्यक्षदर्शियों ने यही कहा कि आकाश में वह अचानक प्रकट हुई और उसी प्रकार गायब हो गई। संभव है ब्रह्माण्ड के किसी ग्रह में विज्ञान इतना विकसित हो चुका हो कि प्रकाश की गति से विमान को चलाने की विद्या उनके हाथ लग गई हो और इसी विकसित विज्ञान के आधार पर समय-समय पर वे पृथ्वी और पृथ्वीवासियों की टोह लेने आते रहे हों, इस क्रम में जब उन्हें दृश्यमान होना होता हो, तो वे विमान की गति कम कर देते होंगे और अदृश्य होने के समय उसे प्रकाश की गति प्रदान करते होंगे।


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