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November 1991

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विषयों की सड़क पर दौड़ने वाली इन्द्रियाँ उन स्वेच्छाचारी घोड़ों के समान हैं, जो जीवन रूपी रथ को तोड़ डालती हैं और उसके सारथी आत्मा को पतन के गर्त में धकेलती हैं।

यथार्थ के ठोस धरातल पर पत्थर से करेगा। कोई अपनी कल्पनाओं, इच्छाओं में कितना महान है, विश्व से इसका कोई संबंध नहीं। यहाँ तो उसे उस रूप में जाना जायगा, जो रूप वह अपनी क्रिया के द्वारा उपस्थित करेगा।

क्रिया का आधार विचार ही होते हैं, किन्तु मनुष्य के सारे विचार इस कोटि में नहीं आते, बहुत से विचार व्यर्थ तथा निरुपयोगी होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह विचारों को परख कर अलग कर ले। उसी को विकसित करे और उसी के आधार पर जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ उसे मूर्तिमान करने में लग जाए। क्षण-क्षण में उठने वाले विचारों के माया जाल में पड़ा रहने वाला जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। बहुधा हम किसी का आध्यात्मिक प्रवचन सुनकर प्रभावित होते और मोक्ष प्राप्ति के लिए विचार करने लगते हैं। कभी किसी राजनीतिज्ञ की उक्तियों के प्रभाव में जाकर राजनीति में बढ़ने का विचार करने लगते हैं। कभी किसी का कारोबार देखकर व्यापारी बनने की सोचते हैं, तो यदा-कदा किसी की रचना देखकर चित्रकार, साहित्यकार, शिल्पकार होने की कल्पना में डूबने उतरने लगते हैं। इस प्रकार के प्रतिपल आने वाले विचारों को, विचारों की कोटि में नहीं रखा जा सकता। यह केवल बाह्य प्रभाव अथवा विकार ही होते हैं। इनमें कोई मौलिकता नहीं होती। मौलिक विचार वही होते हैं, जो अपनी आत्मा की प्रेरणा से प्रबुद्ध होता और मूर्तिमान होने के लिए मस्तिष्क में आन्दोलन संचार करता है।

अनेक बार लोगों में मौलिक विचार नहीं भी होते, किन्तु उन्हें जीवन में कुछ कर गुजरने की इच्छा जरूर होती है। ऐसी दशा में वह यह नहीं समझ पाता कि वह क्या करे अथवा उसे क्या करना चाहिए। इस स्थिति में विचार उधार भी लिए जा सकते हैं, अथवा यों कहा जाय कि दूसरों से ग्रहण किये जा सकते हैं। दूसरों से विचार ग्रहण करने में एक सावधानी यह रखनी होगी कि कोई ऐसा विचार ग्रहण न किया जाए, जो अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुरूप नहीं। मान लीजिए किसी की स्वाभाविक प्रवृत्ति है-साहित्यकार की और वह किसी की सफलता अथवा उन्नति देखकर विचार ग्रहण कर लेता है, राजनीतिक और जीवन में नेता बनने की सोचने लगता है, तो वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सकेगा। उसकी प्रवृत्तियाँ रह-रह कर उसका विरोध करती रहेंगी। उसकी क्रियाएँ अपनी पूर्ण क्षमता के साथ आगे नहीं बढ़ सकती। कोई कार्य सफल तभी होता है जब उसके साथ तन-मन तथा मूल प्रवृत्तियों का भी सहयोग है। केवल क्रिया ही कोई सफलता ला सकती है, यह संभव नहीं।

जीवन लक्ष्य पूरा करने के लिए किसी से विचार ग्रहण करते समय एक बात विचारणीय है कि जिस विचार को हम ग्रहण कर रहे हैं, साथ ही हमारी मूल प्रवृत्तियों से जिनका सामंजस्य, भी है, क्या उसके अनुसार हमारी क्षमता अथवा परिस्थितियाँ हैं भी अथवा नहीं? माना हम एक बहुत गूढ़ आध्यात्मिक साधना से हैं और उसको सफल करने के लिए बहुत बड़े संयम, त्याग, समय, एवं मार्ग निर्देशक की जरूरत है। हमारी प्रवृत्ति भी उसके अनुकूल है। किन्तु परिस्थिति इस योग्य नहीं कि सब कुछ त्याग साधना में जुटा जाए, तो वह विचार ग्राह्य होते हुए भी अग्रहणीय है। इसको क्रियान्वित करने के लिए समय की प्रतीक्षा करनी होगी और तब तक करनी होगी जब तक परिस्थिति अनुकूल न हो जाय। विचार ग्रहण करके उसे अपने अन्तराल में सँजो लेना होगा और धीरे-धीरे अन्दर मन में चिन्तन करते हुए उसे दृढ़ से दृढ़तर बनाते रहना होगा। साधना पथ पर धीरे-धीरे परिस्थिति से सामंजस्य करते हुए चलना होगा। सहसा कोई बड़ा कदम उठा लेना उचित न होगा।

तो इस प्रकार विचारों की भीड़ से अपने मूल विचार को छाँट लेना चाहिए और यदि मूल विचार न हों तो अनुकूल विचार कहीं से ग्रहण करके जीवन लक्ष्य तथा पथ निर्धारित कर उस पर योजना-बद्ध


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