“मुनि श्रेष्ठ!”-सुजाता कह रही थी “मुझे एक तेजस्वी और प्रतिभावान पुत्र चाहिए।”
“आँ” कहकर कहोड़ मुनि पुनः पाँडुलिपि को उलटने-पलटने में व्यस्त हो गये, क्योंकि आज उन्हें अपने शिष्यों को पाणिनि के अष्टध्यायी व्याकरण के अंतिम सूत्र की व्याख्या करनी थी।
“देव!” अनुरोध भरा स्वर पुनः उभरा “लगता है आज आप अधिक व्यस्त हैं। निवेदन फिर करूंगी।”
ऋषि की तंद्रा अब टूटी। उन्होंने अचकचा कर पूछा-”देवि! तुमने कुछ कहा क्या?
“ हाँ, आर्य! पर अभी आप अपना अध्ययन पूरा कर लें। बात फिर कर लेंगे।” सुजाता कह रही थी।
शाम से रात्रि घिर आयी। ऋषि का अध्ययन समाप्त हो चुका था। वे ग्रंथ को उपयुक्त स्थान पर रख कुटिया से बाहर ठंडी-ठंडी हवा में टहलने के लिए निकल पड़े। सामने ही वे टहल रहे थे और सूत्र की व्याख्या पर चिंतन मनन भी करते जा रहे थे, अभी थोड़ी ही देर हुई होगी कि कुटीर के अंदर से पत्नी की वाणी उनने कानों से टकरायी “स्वामी”! भोजन तैयार है, ग्रहण कर लें।”
वे अंदर प्रविष्ट हुए। हाथ-मुँह धोया और भोजन के लिए बैठ गये। सुजाता ने भोजन परोसा और सामने बैठ गयी। अब कहोड़ मुनि ने बात छेड़ी।
“भार्ये! तुम कुछ कहना चाह रही थीं? अब कहो, बात क्या है? “
तनिक लज्जा व संकोच प्रकट करती हुई सुजाता बोली -”आर्य! आप तो जानते ही हैं कि हर पत्नी की पहली इच्छा मातृत्व की होती है। तब मैं यही निवेदन करना चाह रही थी, किंतु एक शर्त भी है। “ इतना कहकर सुजाता रुक गयी।
“शर्त! शर्त कैसी? ऋषि प्रवर ने आश्चर्य प्रकट किया।
“अत्यंत छोटी है। मैं एक सामान्य संतान नहीं, तेजस्वी व मेधावी संतति चाहती हूँ।”
ऋषि हल्के से मुसकराये, बोले-”भद्रे! यह ‘शर्त’ शब्द जितना छोटा दिखता है अनुबंध उतना छोटा है नहीं। इसके लिए हम दोनों को जीवन साधना की कठिन तपश्चर्या करनी पड़ेगी, तभी ऐसा संभव है। बोलो तैयार हो? अपना व्यक्तित्व गंगा जैसा निर्मल और समुद्र जैसा शाँत बना सकोगी? अन्तस् की महानता हिमालय जैसा विशाल बनाने की दृढ़ता है? स्वयं के लिए कठोर और दूसरों के लिए उदार बनने की सामर्थ्य रखती हो? बोलो, यदि इतना कर सको, तो मैं तैयार हूँ, अन्यथा एक पक्षीय प्रयास वह परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगा, जिसकी आशा सँजोये बैठी हो?
स्वीकृति में सुजाता का सिर हिल गया। “ठीक है, तो आज और अभी से यह जीवन साधना आरंभ कर दो।”
ऋषि कह रहे थे-” मैं भी शुरू कर रहा हूँ।”
चार साल बीत गये। दोनों ने अध्ययन-अध्यापन का नियमित कार्य और गृहस्थ जीवन की भलीभाँति निर्वाह करते हुए संयमपूर्वक व्यावहारिक जीवन में इतनी कठिन तपश्चर्या सम्पन्न की, कि स्वल्प अवधि में ही लहलहाती फसल के लिए अत्यंत उर्वर भूमि तैयार हो गई।
उपयुक्त समय में उपयुक्त फसल जब उपयुक्त भूमि में बोयी जाती है, तभी वह किसान के अन्तःकरण को गुदगुदा पाती और धन-धान्य से निहाल करती है।
ऋषि दम्पत्ति के लिए अब ऐसा ही अवसर उपस्थित हो चुका था। उनने अपने चरित्र, चिंतन और व्यवहार को तपा-तपाकर ऐसे स्थायी और सुगढ़ ढाँचे में ढाल लिया था, कि जिसके वासंती बयार से शिष्यगण भौंरों की भाँति उमड़े चले आ रहे थे। दिन-दिन उनकी संख्या बढ़ती ही चली जा रही थी और मलयानिल की तरह दम्पत्ति के सुमधुर आचरण की सुगंध का प्रसार भी विस्तृत होता जा रहा था। फलतः देर रात तक उन्हें अध्ययन संबंधी कठिन परिश्रम करना पड़ता।
दोनों प्रसन्न थे कि उन्होंने सुसंतति प्राप्ति के लिए स्वयं को वाँछित ढांचे में ढाल लिया और गदगद इसलिए हो रहे थे, शिष्यगणों की बढ़ती संख्या ने उस यथार्थता पर प्रामाणिकता की मुहर लगा दी, जिसके लिए मुनि-दम्पत्ति का मन शंकाग्रस्त बना रहता कि पता नहीं खरे सोने की सी प्रखरता उनके व्यक्तित्व में आ पायी या नहीं, किन्तु अब संशय करने जैसी कोई बात थी ही नहीं। जब कंगन कलाई में हो, तो उसे निहारने के लिए दर्पण की क्या आवश्यकता है।
सुजाता गर्भवती हुई। एक दिन जब मुनि कहोड़ अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे, तो उनकी सहायता के लिए पत्नी भी पास ही बैठी थी। इससे तीन कार्य सम्पन्न होते थे ऋषि का भार कुछ हल्का होता था, क्योंकि उनने सुजाता को इतना पढ़ा दिया था कि प्रारंभिक शिक्षा वह शिष्यों को दे सके, दूसरे वह स्वयं भी अपना ज्ञानवर्धन करती थी, तीसरे गर्भ में पलते भ्रूण पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता था। इन्हीं सब बातों पर विचार कर वह अध्यापन के समय सदा उपस्थित रहती थी।
उस दिन भी इन्हीं कारणों से वहाँ मौजूद थी। आचार्य शिष्यों को पढ़ा रहे थे। शिष्य ध्यानपूर्वक उन्हें सुनते और हृदयंगम करते जा रहे थे, किन्तु बीच-बीच में आचार्य के कानों से एक तीखी सी आवाज टकरा जाती, मानों कोई कुछ प्रश्न कर रहा हो। कुछ समय तक तो वह उसे अपने कानों का विभ्रम समझते रहे, परन्तु जब थोड़े-थोड़े समय के पश्चात् लगातार यह ध्वनि उठने लगी तो वह तनिक सावधान हुए। ध्यान से सुनने पर पाया कि कोई अत्यन्त धीमे स्वर में कह रहा था। “सवरात्रिमध्ययनम करोषि नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते।” अर्थात् पिताजी आप देर रात तक अध्ययन करते रहते हैं, फिर भी उच्चारण और अध्यापन संबंधी यह त्रुटि क्यों? ऐसा न करें।
मुनि और शिष्यों ने इधर-उधर देखा, किन्तु आस-पास कोई दिखाई नहीं पड़ा। फिर मेरे अध्यापन को त्रुटिपूर्ण बताने वाला दुस्साहसी कौन है। आचार्य को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अचानक उनका ध्यान सुजाता की ओर खिच गया। ध्यान से सुना तो पता चला कि स्वर पत्नी के गर्भ में पलते शिशु से आ रहा है। रहस्य अब सुजाता की भी समझ में आ गया। पति -पत्नी की आँखें चार हुई? वे खुशी से फूले न समा रहे थे कि इतना प्रतिभावान शिशु कि पिता की भी गलतियाँ निकालने लगे, जबकि वह अभी गर्भ से बाहर भी नहीं आया।
मगर देर तक कहोड़ की यह प्रसन्नता बनी न रह सकी। उन्हें जब शिष्यों की उपस्थिति का भान हुआ, तो भृकुटियाँ तन गई। गर्भस्थ शिशु ही पिता के अध्यापन को दोषपूर्ण बताये यह अपमान वे तनिक भी बर्दाश्त न कर सके। उन्होंने शाप दे डाला “अरे दुस्साहसी! तेरी यह हिम्मत। तुमने अभी जन्म भी नहीं लिया और पिता में ही त्रुटि निकालने लगे। मैं तुम्हें शाप देता हूँ- “तू आठ अंगों से टेढ़ा पैदा होगा।”
सुजाता ने सिर पीट लिया। सजल नेत्रों से कहा। “हाँ! आर्य! यह आपने क्या कर डाला? अपने ही प्रतिभावान पुत्र को शाप दे दिया।”
क्रोध से काँपते ऋषि ने कहा “उद्दण्ड को उद्दण्डता का दण्ड मिलना ही चाहिए। हमने जो कुछ किया, उचित ही था।”
अपने भाग्य को कोसते, रोते, पछताते सुजाता कुटिया के अन्दर चली गई और भारी मन से एक कोने में बैठ कर सोचने लगी-”प्रभु! यह आपने किस पाप का बदला मुझसे लिया। प्रतिभावान संतान की इच्छा पूरी की, तो वह भी शापित-विकलाँग। यदि यही नियति व आपकी मर्जी थी, तो हम दोनों से इतनी तपश्चर्या क्यों करवायी?” सोच-सोच कर वे दुखी होने लगी। “आर्ये!” अकस्मात के संबोधन से उसकी तन्द्रा टूटी। आँखें ऊपर उठायी, तो सामने पतिदेव खड़े मिले, कहा- “दुःख मत करो देवि। हमें भी इस घटना से उतना ही क्षोभ हुआ है, जितना तुम्हें। क्रोधवश यह भूलकर डाली, पर इसका उपाय भी मुझे स्पष्ट दीख रहा है।” त्रिकालदर्शी कहोड़ शून्य में निहारते हुए बोले “अपना पुत्र आठ अंगों से टेढ़ा उत्पन्न अवश्य होगा,शाप का यह कलंक उसे अधिक दिनों तक ढोना नहीं पड़ेगा। दण्डी नामक पंडित को पराजित कर वह जब मुझे मुक्त करेगा, तो मेरे आशीर्वाद से समंगा नदी में स्नान करने से उसका टेढ़ापन जाता रहेगा। तब वह एक स्वस्थ सुन्दर,प्रतिभावान युवक के रूप में तुम्हारे सामने होगा।”
हुआ भी ऐसा ही। अष्टवक्र का टेढ़ापन कुछ काल पश्चात् समाप्त हो गया और उनकी अद्भुत विद्वता व प्रतिभा की चर्चा दिग्दिगंत में छा गई। जीवन-साधना का प्रत्यक्ष प्रतिफल अष्टवक्र रूपी विभूति के रूप में ऋषि-दम्पत्ति को मिल चुका था। यही उनकी अदम्य इच्छा भी थी।