उपाख्यान है कि महर्षि उद्दालक ने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ पूरा हो जाने पर जब ऋत्विजों को दक्षिणा स्वरूप बूढ़ी मरणासन्न गायें दान में दी जाने लगीं तो उनकी दयनीय दशा को देखते हुए ऋषि पुत्र नचिकेता क। मन में प्रश्न उठा कि पिता जी ये कैसी गायें दक्षिणा में दे रहे हैं यही सोचकर उसने अपने पिताजी से पूछा-”कस्मै माँ दास्यमीति“ अर्थात् आप मुझे किसे देंगे? दो-चार बार पूछने पर उद्दालक चुप रहे, पर बार-बार यही प्रश्न दुहराये जाने पर उनने क्रोधपूर्वक कहा- “मृत्यवे त्वाँ ददामीति।” अर्थात् तुझे मैं मृत्यु को दान देता हूँ।
यही नचिकेता मृत्यु को प्राप्त होता है और यमसदन पहुँचकर यमराज को नहीं पाता, तो तीन दिन बिना अन्न-जल ग्रहण किये ही उनकी प्रतीक्षा करता है। यमसदन के लौटने पर प्रसन्न होकर तीन वरदान माँगने को कहते हैं।
प्रथम वर में नचिकेता ने अपने पिता के क्रोधावेश के शमन की ओर दूसरे वर में अग्निविद्या का उपदेश देने की प्रार्थना की। इस पर यमराज ने उसे गुह्य अग्निविद्या का उपदेश दिया। यमराज ने उस स्वर्गलोक की कारण रूपा अग्नि विद्या का उपदेश करते हुए उसमें कुँड निर्माण आदि के लिए जो और जितनी ईंटें आवश्यक होती हैं तथा जिस प्रकार उनका चयन किया जाता है, वे सब बातें भी बतायीं। नचिकेता ने भी यह सब जैसा सुना था, ठीक उसी प्रकार समझकर यमराज को पुनः सुना दिया। इससे यम देवता प्रसन्न होकर बोले “अब मैं तुमको यहाँ पुनः वह अतिरिक्त वर देता हूँ कि यह अग्नि तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगी।” इस अग्नि का तीन बार अनुष्ठान करने वाला तीनों वेदों के साथ संबंध जोड़कर यज्ञ, दान और तप रूप तीनों कर्मों को निष्काम भाव से करते रहने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु से तर जाता है तथा वह ब्रह्मा से उत्पन्न सृष्टि के रहस्य इस अग्निदेव को जानकर तथा इसका निष्काम भाव से चयन करके इस अनन्त शक्ति को प्राप्त हो जाता है।
अग्निविद्या क्या है? उसका साधन किस प्रकार किया जाना चाहिए? इस संबंध में उपनिषद् मौन हैं। केवल संकेत ही किये गये है, मर्मज्ञों का कथन है कि यह अग्निविद्या और कुछ नहीं, गायत्री महाविद्या का ही रहस्योद्घाटन है जो यमराज ने नचिकेता को अधिकारी सत्पात्र मानकर बताया। शास्त्रों में गायत्री साधना के तीन चरण बतायें गये है, एक ‘भू’ इस चरण में साधक गुरु से मंत्र दीक्षा प्राप्त करता है। मंत्र दीक्षा लेते समय साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं गुरु का आदेश अनुशासन पूर्ण श्रद्धा के साथ मानूँगा। समय-समय पर उनके परामर्श और मार्गदर्शन से अपनी जीवन नीति निर्धारित करूंगा तथा अपनी सब भूलों को उनके सामने स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया करूंगा।
नचिकेता ने यमदेव से गुरुदीक्षा प्राप्त की थी और उनने कहा था- इस विद्या का तीन प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूप में अनुष्ठान करने वाला व्यक्ति जन्म मरण से छूट जाता है। तीन बार अनुष्ठान अर्थात् साधना के तीन सोपान-दीक्षा के तीन चरण। पहला ‘भू’, मंत्र दीक्षा, दूसरा ‘भुवः’ प्राण दीक्षा और तीसरा ‘स्वः’ ब्रह्म दीक्षा। प्राणदीक्षा को ही अग्निदीक्षा कहा गया है। ब्रह्म दीक्षा उससे आगे की बात है।
‘भुवः’ दीक्षा अथवा प्राण दीक्षा अथवा अग्निदीक्षा में गुरु साधक के प्राणमय एवं मनोमय कोश की अन्तर्निहित शक्तियों को जाग्रत करने का शिक्षण देते हैं। सर्वविदित है कि साधना एक समर है जिसे प्राण शक्ति की प्रचुरता के बिना जीता नहीं जा सकता। इस शक्ति को अर्जित करना और उससे अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं सुसंस्कार सम्पन्न बनाना ही अग्निविद्या है। प्राण को अग्नि भी कहा गया है। अग्नि अर्थात् कषाय-कल्मषों, दोष-दुर्गुणों व्यक्तित्व में विद्यमान विकारों मलिनताओं को जला-गलाकर कुँदन सदृश तपाये हुए व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली ऊर्जा। प्राण ही वह अग्नि है जिसके अभिवर्धन का रहस्य ज्ञात हो जाने पर साधना मार्ग में आगे वाले अवरोधों को दूर किया और व्यक्तित्व बना जाता है।
जब यह शक्ति पर्याप्त मात्रा संचित हो जाती है तो साहस, उत्साह, दृढ़ता, स्फूर्ति, धैर्य, मनोयोग जैसे कई गुणों का आविर्भाव और अभिवर्धन होता है। मानवी काया में विद्यमान कई गुप्त और अज्ञात रहस्यमय शक्ति केन्द्र इस भूमिका में आकर सक्रिय तथा जाग्रत होते हैं, जो इसके पूर्व प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। इसी भूमिका में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय का संशोधन तथा परिमार्जन होता है। जब प्राण दीक्षा की भूमिका आती है तब गुरु साधक में कई दिव्य शक्तियाँ उड़ेलते हैं और उसमें बीज रूप से साधक के अन्तःकरण में आत्मबल का आरोपण हो जाता है, इसका प्रभाव यह होता है कि साधक तीव्रता से आत्मोन्नति की ओर बढ़ने लगता है।
यमदेव ने नचिकेता को इसी रहस्यमयी अग्निविद्या का उपदेश देकर उक्त भूमिका में पहुँचाया था। इसी का परिणाम था कि नचिकेता के मन में आत्मा संबंधी जिज्ञासा उत्पन्न हुई और आत्मिक उत्कर्ष की तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हुई।