इस संसार में अवाँछनीयताओं व उत्कृष्टताओं दोनों का समावेश है। यहाँ पाप व अनीति अधिक और पुण्य, नीति स्वल्प रहे होते तो अब तक दुनिया का नामो−निशान न रहता। आग दुनिया में है तो सही, पर पानी से अधिक नहीं। इतने पर भी देखने में यह आता है अध्यात्म तंत्र से जुड़े धर्मपरायण व्यक्ति ही अधिक संकट पाते है। दुष्टता का प्रत्याक्रमण बढ़ता जाता है, घटता नहीं, प्राणों का संकट एकाएक आ चढ़ बैठता है। कभी-कभी यह अपने निजी संबंधियों से लेकर आत्मीयों का अहित कर बैठता है। असुरता अजेय बनती दीख पड़ती है एवं देवत्व मोटी दृष्टि से पराजित होता दिखाई देता है। साधारण बुद्धि वाले मनुष्य इसमें कार्य कारण की कुछ संगति बिठा नहीं पाते व नाना प्रकार की शंकाएँ उनके मन में उठती रहती हैं। इसका समाधान पाने हेतु कुछ प्रसंगों को पहले समझना होगा।
देवासुर संग्राम में ऐसे कई घटनाक्रम घटित हुए हैं जब असुरता देवत्व पर हावी हुई है। अच्छे काम में अड़चन डालने वाले असुर देव समुदाय को अपने मार्ग का रोड़ा मानकर उन पर आक्रमण करते आए हैं। देव शक्तियाँ चाहे वे अवतार के रूप में हों अथवा महामानव के रूप में धर्म के पथ पर जागरुक हो प्रतिरोध करती रहीं हैं। किसी को अपनी जान गँवाकर, किसी को कष्ट सहन करके, किसी को प्रिय का वियोग विछोह सह कर तथा किसी को प्रखर संघर्ष द्वारा व्यापक विध्वंस करके यह माहौल बनाना पड़ा है कि देवत्व सदैव जाग्रत रहेगा।
ईसा जीवन भर कष्ट सहते रहे। आज तीन चौथाई आबादी विश्वभर में उन्हें मानती है। अंतिम समय में मात्र आठ शिष्य उनके साथ थे उसमें से भी एक ने धोखा दिया व अंततः वे सूली पर चढ़ा दिये गए। उनके मरने के बाद भी क्रिश्चियन धर्म नहीं मरा।
गृहकलह से लेकर शत्रुओं की दुरभि संधियाँ प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात को जीवन भर त्रास देती रहीं। हमेशा प्रसन्नता से जीने वाले इस महामानव ने जहर का प्याला पीकर मौत स्वीकार कर ली किन्तु सिद्धाँतों से समझौता नहीं किया।
क्या महात्मा गाँधी ने किसी का कुछ बिगाड़ा था जो उन्हें स्वतंत्रता की लक्ष्य सिद्धि के बाद भी गोली खानी पड़ी। लाला लाजपतराय लाठियाँ खाकर व सैकड़ों निर्दोष व्यक्ति गोलियाँ द्वारा जलियावाला काण्ड के समय मारे गए। दीन दयाल उपाध्याय जैसे संत हृदय व्यक्ति की किसी से क्या दुश्मनी हो सकती थी कि वे एक आक्रमण का शिकार बनते। स्वामी दयानन्द ने किसी का क्या बिगाड़ा था कि कोई व्यक्ति उनका विश्वस्त बनकर उनकी जान ले बैठा। वस्तुतः इन सभी प्रकरणों में प्रत्यक्ष को नहीं परोक्ष को कारण समझा जाना चाहिए एवं यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि सत्य व धर्म की रक्षा के लिए आदर्श कर्तव्य पालन के अतिरिक्त धर्मपरायणों-आस्तिकों समाज के लिए समर्पित जीवन जीने वालों को अपनी जान की कीमत पर वह काम करना पड़ा है जो शायद वैसे संभव न हो पाता, इसका कारण यह नहीं कि असुरता इसमें जीतती व देवत्व की हार होती रही है। दैवी चेतना का कुछ विधान है यह कि कुछ कारण न होते हुए भी महामानवों को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा है व अपनी आहुति देनी पड़ी है।
सत्य व धर्म का अवलम्बन लेने वाले समाज समर्पित व्यक्तियों के जीवन में एक ऐसी समानता देखने में आती है, जो त्रासदी से भरी है। वह है उन पर जीवन भर कष्टों का आना। न केवल कटु वचनों के हमलों के रूप में, रोगों के प्रत्याक्रमण के रूप में वरन् आक्रमणों के रूप में भी। एक सामान्य व्यक्ति यह सोच सकता है कि धर्म एवं न्याय के पक्षधर कभी किसी का बुरा न चाहने वालों के साथ ऐसा क्योंकर होता है? क्या विधाता के यहाँ ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं कि आसुरी शक्तियाँ ऐसे भले मानसों को कोई कष्ट नहीं पहुँचाएँ।
इस असमंजस का एक ही समाधान है कि दैवी व्यवस्था बड़ी विलक्षण है। बड़े काम बड़ों द्वारा खतरे उठाकर ही संपन्न किये जाते हैं। वे आत्मबल संपन्न होते हैं व बड़ी से बड़ी क्षति पर भी साहस नहीं खोते। ऐसे लोग होते तो गिने चुने ही हैं, पर दैवी कृपा, लोक सम्मान जनशक्ति के सहयोग व अनुग्रह के रूप में उन पर हमेशा बरसती है। प्रकृति का नियम अटल है। परोक्ष जगत में क्या हो रहा है-हम नहीं जानते पर उस महासत्ता पर विश्वास कर अपनी आस्तिकता को तो सतत् पोषण देते रह सकते हैं।
मधु संचय-