सहमते हुए उसने दृष्टि उठाई। लगा वह इस दृष्टि के माध्यम से अपनी समूची व्यथा एक बारगी उड़ेल देना चाहती हो, नेत्रों के मौन स्वरों से अस्तित्व के स्पन्दन झर रहे थे। न जाने कितने समय से वह उनके पास आने को सोच रही थी। कितनी आशाएँ, कितनी आकाँक्षाएँ नहीं सँजोई थी आज तक उसने। कभी-कभी तो दिवस रात्रि भावनाओं और कल्पनाओं की उमगती लहरों के बीच क्षण की तरह खो जाते। पर मिलना इतना सहज नहीं था। समाज की पारम्परिक व्यवस्था ने एक-एक अनगिनत लौह श्रृंखलाओं से उसके अस्तित्व को जकड़ रखा था। उबरने के हर प्रयास का परिणाम-होता विफलता और विफलता को निराशा के इस निविड़तम में आशा की एक मात्र किरण सोचते-सोचते अचानक उसके सारे शरीर में प्राण विद्युत की लहर दौड़ गई।
“कातूशा”। सामान्य स्वरों में कहे गए इन शब्दों के साथ ही वह स्वयं में चैतन्यता अनुभव करने लगी। निराशा, भय, डर का सम्मिलित कुहासा शब्दघात से छँटता प्रतीत हुआ। एक विलक्षण चमत्कार की अनुभूति कर रही थी वह। चमत्कार की विलक्षणता शब्दों में नहीं कहने वाले की वाणी में थी। अन्यथा शब्द तो उसके लिए चिर प्राचीन थे। शैशव से लेकर आज तक दिन में पता नहीं कितने बार अपने इस नाम का उच्चारण सुनती आयी थी। पर आज की बात ही कुछ और थी। पुकारने वाले ने पास आने का इशारा किया। पास बैठे हुए लोगों ने एक-एक कर दोनों को तीक्ष्ण नजर से देखा। देखने वालों की आंखों में आश्चर्य और तिरस्कार के मिले-जुले भाव थे।
यहूदी शमौन को भी कम आश्चर्य न था। उसी ने उन्हें अपने यहाँ भोजन के लिए निमंत्रित किया था। सोचा इसी बहाने महापुरुष के चरणों से अपना भवन पवित्र हो जाएगा। पर तब तो उसे असहनीय लगने लगा जब कातूशा ने पास बैठकर उनके चरण पोछे फिर उन्हें चूमने लगी। शमौन के मन को ढेरों शंकाओं ने घेर लिया। वह सोचने लगा “यदि यह सर्वज्ञ होते तो इस दुराचारिणी को अपना स्पर्श क्यों करने देते।”
वस्तुस्थिति को समझकर ईसा मुस्कराए। उन्होंने शमौन को अँगुली के संकेत से पास बुलाया। पास आने पर शंका का निवारण करने के लिए एक कहानी सुनाने लगे- “एक महाजन के दो कर्जदार थे। एक पर पाँच सौ दीनारों का कर्ज था और एक पर केवल पचास दीनारों का। महाजन के पास दोनों व्यक्ति गए और अपनी असमर्थता प्रकट पर गिड़गिड़ाने लगे।”
महाजन ने कहा-”यदि आप इस स्थिति में नहीं है कि कर्ज पटा सकें तो आपको माफ किया। राशि में कम ज्यादा का फर्क जरूर था, पर माफी दोनों को बराबर दी गई। यदि ध्यान से देख सको तो पाओगे कि सबसे ज्यादा माफी पाँच सौ दीनार वाले कर्जदार को मिली। क्योंकि महाजन की दृष्टि में इसके प्रति निष्ठ और पात्रता पहले की अपेक्षा कहीं अधिक थी।”
शमौन! यही बात तो आज कातूशा के संबंध में है। इसने अपने में जितनी पात्रता विकसित की है उतनी यहाँ मैं तुममें से किसी को नहीं देख रहा हूँ। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि यह अपने समूचे जीवन को बदल डालने की योजना बना चुकी है। जबकि तुम केवल एक समय भोजन करवाकर ही उसका पुण्य लूटना चाहते हो। इसलिए मैंने तुम्हारी निष्ठ के अनुसार दिया है और कातूशा को उसकी निष्ठ और विश्वास के अनुसार।
उपस्थित सभी लोग एक स्वर से चिल्लाए-ईसा! तुम कातूशा को क्षमा कैसे कर सकते हो? यह तुम्हारा दुस्साहस है। दुष्टों को क्षमा करने का अधिकार तो केवल ईश्वर को है।
इन सबों के क्रोधित स्वर पर उन्हें हँसी आ गई। थोड़ा रुक कर हँसते हुए बोले-मैंने आज तक नहीं सुना कि ईश्वर किसी को वेश्या या दुराचारी बनाता है। किसी भली स्त्री को वेश्यावृत्ति की ओर ले जाने वाले तुम सब समाज के प्रतिनिधि हो। तुम्हें किसी कन्या को वेश्या बनाने का अधिकार किसने दिया? कातूशा को अपने विगत जीवन के दुष्कृत्यों पर कितनी आत्मग्लानि है। इस आत्मग्लानि से अधिक पवित्र भला किस सरिता का जल है।
ईसा ने कातूशा की ओर मुड़ते हुए उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए कहा-देवि! तुम्हारी आत्मग्लानि विश्वास की रक्षा करेगी और सारे कलुष तथा पापों को भस्म कर कंचन की तरह खरा बना देगी। प्रायश्चित्त अन्तःकरण की संरचना में फेर बदल कर डालने के लिए उतारू प्रबल पुरुषार्थ है। इसके द्वारा हर कोई अपने विगत पाप कर्मों का शमन करके नव जीवन प्राप्त कर सकता है।