डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उन दिनों बिहार का दौरा कर रहे थे। राँची में उनके पुराने और घिसे जूते के स्थान पर नये जूता पहनने की आवश्यकता हुई। उनका निजी सचिव मुलायम चमड़े का आरामदेह कीमती जूता खरीद लाया। इस पर वे बोले “मैं कड़ा और सस्ता जूता पहनने का अभ्यस्त हूँ। फिर यह कीमती जूता क्यों खरीद लाये। इसे लौटा दीजिये।”
निजी सचिव जूता बदलवाने के लिये मोटर की ओर बढ़ा तभी उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर समझाया- दो मील जाकर और दो मील लौटकर जितना पेट्रोल खर्च करोगे बचत उसकी आधी ही होगी। जब किसी काम से उधर जाओ तब बदल लाना।
स्वः राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की यह प्रदर्शन-रहित सादगी कितनी अनुकरणीय और सराहनीय है। राष्ट्रीय धन के एक एक पैसे का वे कितना ध्यान रखते थे।
किन्तु इस तथ्य को हृदयंगम करने के लिए आवश्यक है कि मनोभूमि उदार चिंतन से युक्त तथा पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। औचित्य को प्रधानता देकर मानवीय आदर्शों को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए। यह एक ऐसी संजीवनी है जो शालीनता नीतिमत्ता को पुनर्जीवित कर सकती है। प्रगति व शान्ति का वातावरण सुरक्षित रख सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि इस हेतु हर क्षेत्र से प्रबल प्रयत्न किया जाय। ऐसे सुव्यवस्थित प्रयत्नों को ही तत्वदर्शियों ने धर्मधारणा का नाम दिया है। वर्तमान को सुखद और भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए उसकी आज सबसे बड़ी आवश्यकता भी तो है।