सविता साधना से आज्ञाचक्र का जागरण

November 1991

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सृष्टि का मूल आधार सविता अर्थात् सूर्य है। वेदों, उपनिषदों आदि में सूर्य को ही इस सृष्टि की आत्मा और उसका प्रसविता माना गया है। यदि वह बुझ जाय या प्रकाश बखेरना बन्द कर दे तो यह सृष्टि और सम्पूर्ण सौरमण्डल निर्जीव हो जायेगा। प्रत्यक्ष सूर्य सविता देवता का स्थूल प्रतीक है, इसलिए उसे ही सविता कह दिया जाता है। वस्तुतः सविता, उस मूल चेतना शक्ति का नाम है जिससे कि शक्ति ग्रहण कर सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि को सतत् जीवन चेतना प्रदान करता रहता है। विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में जो जीवन चेतना अविराम स्फुरित होती रहती है- अनुभव में आती है उसका मूल आधार सविता की सत्ता ही है। उसी सविता देवता की साधना गायत्री साधना है। गायत्री उपासक को सविता आराधना से जो शक्ति प्राप्त होती है वह उसकी भावनात्मक उत्कृष्टता के अनुपात में ही उपलब्ध होती है।

प्रायः मनुष्य देवताओं को अपने से श्रेष्ठ मानता रहता है और समझता है कि वे उसकी मनुहार से प्रसन्न होते और वरदान देते हैं, किन्तु बात ऐसी है नहीं। वस्तुतः देवता मनुष्य की श्रद्धा एवं विश्वास के छेनी-हथोड़े से गढ़े-सँवारे गये उसके ही मानस पुत्र हैं। गीता में कहा भी गया है -”देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तिऽ व” अर्थात् भावनाओं से देवताओं का वन्दन होता है और वे देवता बदले में भावात्मक अनुदान देते हैं। ‘भावोहि विद्यते देव’ का क थन यह स्पष्ट करता है कि पाषाण खण्ड को दैवी सामर्थ्य सम्पन्न बना सकने की क्षमता का वास्तविक आधार भावना ही है। सविता साधना की सफलता का आधार भी यही श्रद्धासिक्त भावना है। इसके अभाव में देवाराधन निष्प्राण मात्र चिन्ह पूजा भर रह जाता है।

सविता देवता की शक्ति को समझ लेने पर तथा श्रद्धा−भावना की प्रगाढ़ता के साथ उससे अपना संपर्क जोड़ लेने पर मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव अथवा अज्ञात नहीं रह जाता। मानवी सत्ता इतनी रहस्यमय है कि उसके तीन शरीरों, पंचकोशों, षट्चक्रों आदि सूक्ष्म परतों में सन्निहित एक से बढ़कर एक उच्चस्तरीय चेतनात्मक शक्ति रहस्यों का अनावरण सविता देवता से प्राप्त शक्ति के आधार पर ही होता है। उस शक्ति-स्रोत से प्रत्यक्ष संपर्क जोड़ने की साधना सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक सहज कुण्डलिनी-साधना विधान है।

मूलाधार में यह कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त अवस्था में पड़ रहती है। सविता की शक्ति से जब यह जाग्रत होकर सहस्रार स्थित परम शिव से जा मिलती है तो साधक स्वयं उस महाज्योति के साथ तद्रूप हो जाता है। शक्ति जागरण की यह प्रक्रिया क्रमशः जिन चेतना-स्तरों को पार करती जाती है, उन्हीं को साधना विज्ञान में ‘चक्र’ या ‘प्लेक्सस’ कहा जाता है। मूलाधार तथा सहस्रार के बीच मेरुदण्ड में ऐसे पाँच प्रमुख चक्र संस्थित हैं। ये हैं -स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र। मूलाधार और सहस्रार को मिलाकर ये सप्त चक्र हो जाते हैं। इन्हें ही सप्त लोक, सप्तऋषि, सप्तद्वीप, सप्तसागर आदि कहा जाता है। बीच में स्थित पाँच चक्र पंचतत्व, पंच प्राण के प्रतीक हैं। इनकी उपासना ही वास्तविक पंचोपचार है। कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में इसे ही पंचाग्नि विधा कहा गया है।

वस्तुतः यह सातों चक्र सूक्ष्म आध्यात्मिक केन्द्र हैं। ब्रह्मांड में जो चेतन-शक्ति की धारायें अविराम द्रुत गति से दौड़ रही हैं उनके कुछ निश्चित आवर्त केन्द्र हैं जो ब्रह्माण्ड स्थित चेतन संस्थानों के प्रतिनिधि हैं। ये चक्र भिन्न-भिन्न प्रकार के शक्ति-प्रवाहों के उद्गम केन्द्र माने जा सकते है। यद्यपि इन सभी का मूल उद्गम केन्द्र तो सविता देवता ही है। जो चक्र-संस्थान अविज्ञात चेतना प्रवाह के जिस केन्द्र से विशेष रूप से जुड़ा रहता है उसका जागरण उसी प्रकार की अनुभूतियों और विभूतियों को जन्म देता है।

प्रत्येक चक्र का अपना तत्व-बीज, अपना वाहन, अपना आधि देवता, अयन दल, यंत्र शब्द एवं रंग होता है। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके भेद किये गये हैं। जिस प्रकार ज्वालामुखी के छिद्र आग, धुआँ तथा दूसरी वस्तुयें उगलते रहते हैं, उसी प्रकार ये चक्र संस्थान जाग्रत होने पर भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ-विभूतियाँ उगलते हैं।

इन षट्चक्रों में आज्ञाचक्र को ‘गुरुचक्र’ कहा जाता है क्योंकि वही मार्गदर्शक है, शक्ति प्रवाह का ज्योति का उद्गम स्थल है। इस आज्ञाचक्र को ही तीसरा नेत्र-’थर्ड आई’ अथवा दिव्य दृष्टि भी कहते हैं। संतुलन अंतःदृष्टि, दिव्यदर्शन की क्षमता इस चक्र संस्थान में सन्निहित है। चक्रबेधन एवं कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया, स्वरूप, निहितार्थ तथा उपयोग की विधि को जानने समझने की शक्ति इस चक्र के जाग्रत होने पर ही प्राप्त होती है। जिसका ‘आज्ञा चक्र’ जग गया,जिसे दिव्य दृष्टि मिल गयी, उसका साधनापथ आलोकित हो जाता है और लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है। उस साधना-पथ पर चलते हुए साधक सुगमता से लक्ष्य को पा लेता है। इस आज्ञाचक्र को जाग्रत करने के लिए सविता के ज्योति पुँज के अवतरण की साधना करनी होती है।

आज्ञाचक्र मनुष्य के मस्तिष्क की दोनों भवों के मध्य में अवस्थित होता है। भृकुटी के नीचे अस्थियों का जो आवरण है उसके भीतर एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि होती है। वही आज्ञाचक्र संस्थान है। इसके जागरण के लिए साधक कुशासन अथवा कम्बल बिछा कर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए पद्मासन या सुखासन में पालथी मारकर ध्यान मुद्रा में बैठता है। शरीर पर न्यूनतम वस्त्र ही रखे जाते हैं।

प्रारंभिक अभ्यास के लिए सूर्य पर त्राटक आवश्यक हो जाता है। अतः अरुणोदय के समय कोई ऐसा स्थान निश्चित करना पड़ता है जहाँ मकानों, पेड़ों आदि की आड़ न हो और ऊपर उभरता बाल-सूर्य स्पष्ट दिखाई दे सके। इस प्रकार स्थान चयन के बाद साधक ध्यानावस्था में सुदूर अन्तरिक्ष में उदित प्रभात-कालीन स्वर्णिम बाल-सूर्य को देखता है।

खुली आँखों से सर्वप्रथम एक या दो सेकेंड बाल सूर्य को देख कर आँखें बन्द कर ली जाती हैं। तीस सेकेंड तक बन्द आँखों से उसी प्रकार सूर्य को देखने की भावना-कल्पना की जाती है। यह क्रम तभी तक चलता है जब तक सूर्य की स्वर्णिम आभा समाप्त न हो जाय। दस-पन्द्रह मिनट के भीतर ही सूर्य श्वेत वर्ण होने लगता है। तब यह त्राटक सर्वथा निषिद्ध है। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि सूर्य का स्वर्णिम प्रकाश भी तीन सेकेंड से अधिक देर तक देखने से आँखों को हानि पहुँचती है। अति उत्साह में आकर सूर्य को देर तक देखने की भूल किसी को भी नहीं करनी चाहिए।

प्रारंभिक बीस दिन तक इस प्रातःकालीन सूर्य-त्राटक का नियमित रूप से अभ्यास करने से वह कल्पना में- भावना में गहराई तक बैठ जाता है। इसके बाद इस प्रारंभिक अभ्यास की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसके उपरान्त अभ्यास, सिद्धि, कल्पना और आस्था पुष्ट भावना के सम्मिश्रण से सविता के ज्योति बिन्दु का ध्यान आगे बढ़ाया जाय।

उपासना अवधि में साधक गायत्री महामंत्र के जप के साथ ही अपने ‘आज्ञाचक्र’ संस्थान में वैसे ही स्वर्णिम सविता का ध्यान करता है। अगले चरण के इस ध्यान में यह प्रगाढ़ भावना करनी पड़ती है कि ईश्वरीय दिव्य प्रकाश की प्रेरणापूर्ण किरणें जो अपने ऊपर बरस रही हैं उनसे सम्पूर्ण स्थूल,सूक्ष्म एवं कारण शरीर जगमग हो गया है। आज्ञाचक्र स्थित आत्म-ज्योति जाग्रत हो गयी है। वहाँ एक्स-रेज जैसी प्रचण्ड किरणें निकल रही है जो वस्तुओं, व्यक्तियों को ही नहीं,विचारों भावनाओं, शास्त्रों और सैद्धान्तिक प्रतिपादनों तक के मर्म-वेधन में समर्थ हैं। जो अन्तर्निहित दिव्य दृष्टि को प्रखर बना रही है। अपने भीतर के कषाय-कल्मष, दोष−दुर्गुण भी स्पष्ट दिख रहे हैं और उन्हें दूर करने-फेंक देने, समाप्त कर देने की प्रक्रिया भी सामने स्पष्ट है। साथ ही अपनी आन्तरिक उत्कृष्टताओं, प्रसुप्त क्षमताओं को उभारने का मार्ग भी पूर्णतः प्रकाशित हो उठा है।

जितनी गहरी श्रद्धा भावना के साथ अन्तःक्षेत्र को दिव्य बनाने वाली यह सविता-साधना की जायेगी, आज्ञाचक्र के जागरण का उद्देश्य उतना ही मात्रा में पूरा होता जायेगा।

आज्ञाचक्र के जागरण की यह सविता-साधना नियमित रूप से लम्बे समय तक करने पर साधक के भीतर की उत्कृष्टतायें उभरती चली जाती हैं और वह गीतोक्त संजय की तरह दिव्य दर्शन की शक्ति-दिव्य दृष्टि भी प्राप्त कर लेता है। भूगर्भ में या सृष्टि के अन्तराल में छिपी दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान आज्ञाचक्र से निकलने वाली अद्भुत सूक्ष्म किरणों द्वारा सहज ही हो जाता है। अविज्ञात के गर्भ में पक रही संभावनायें, भविष्य में घटित होने वाली घटनायें भी उसे दिख जाती हैं। आज्ञाचक्र के जागरण से ही साधक आत्म ज्योति के अनावरण में सफल होता और आप्तकाम बनता है। आज्ञाचक्र के जागरण की यह सविता साधना सरल भी है और बिना जोखिम की सर्वोपयोगी भी। इसे हर कोई सरलतापूर्वक सम्पन्न कर सकता है।


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