अध्यात्म दर्शन पढ़ने, समझने या समझाने की दृष्टि से कथा प्रवचन या वाचन सत्संग जैसे स्वरूप में प्रतिपादित होता रहता है। पर वह सड़क की ओर अंगुलि निर्देशन जैसा है। इतने भर से काम नहीं बनता। रास्ता तो चलने से पार होता है। चलने और पार होने का तात्पर्य है अपनी अन्तःभूमिका में उन मान्यताओं का गहरा प्रवेश जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए गढ़ी गई है।
इसी को धर्म कहते हैं और यह अध्यात्म है कि मनुष्य अपने सम्बन्ध में उच्चस्तरीय मान्यता रखे और अपने हर क्रिया-कलाप में कर्मयोग का समावेश रखे। यह सामान्य मनुष्यों की तुलना में सर्वथा भिन्न होता है। अतएव अपने और लोगों के बीच एक ऐसी खाई रहने लगती है जिसमें एक दूसरे को मतिभ्रम से ग्रस्त मानने लगते हैं।
लोगों के सोचने का ढंग यह है कि अधिक कमाया, अधिक खाया और शरीर को बड़प्पन के साज-सामान से लदा हुआ रखा जाय। वे इसी में जीवन की सफलता मानते हैं किन्तु अध्यात्मवादी का दृष्टिकोण होता है कि वह ईश्वर का उत्कृष्टता सम्पन्न अंश है। उसे वह सोचना और करना चाहिए जो उसके गौरव को बढ़ाये और सृष्टा की कृति को यशस्वी बनाये। उसे सज्जा या प्रशंसा की नहीं, चिन्ता इस बात की होती है कि व्यक्तित्व आदर्श एवं अनुकरणीय बन पड़ा या नहीं। इस मान्यताओं के बीच मतभेद तो रहेगा ही उपहास, बहिष्कार, व्यंग और तिरस्कार भी सम्भव है। यह मतभेद जितना स्पष्ट और सशक्त हो, समझना चाहिए कि अपनी आध्यात्मिकता उतनी ही सशक्त है। जहाँ दुनियादारों के साथ साझेदारी करते हुए इच्छा अपनी और क्रिया उनकी चल रही हो। समझना चाहिए कि विडम्बना ही प्रमुख है। कथन और श्रवण वाला पोला खोखला अध्यात्म ही हाथ लगा है। यथार्थता में दृढ़ता जुड़ी होती है।
गीताकार ने सच ही कहा है कि “दुनिया जब सोती है तब ज्ञानी जागता है और जब ज्ञानी सोता है तब दुनिया जागती है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मवेत्ता की मान्यता एवं गतिविधियाँ इस प्रकार की होती हैं जो लोगों को नहीं सुहाती। दोनों के बीच सैद्धान्तिक तालमेल नहीं बैठता, मात्र शिष्टाचार भर का निर्वाह होता है।
ह्यूम फासेट ने “दि फ्लेम एण्ड दि लाइट” पुस्तक में बुद्ध धर्म और हिन्दू के सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए लिखा है कि तथ्यतः दोनों एक हैं। बुद्ध धर्मानुयायियों को आदर्श निर्वाह में कट्टर होना होता है और सच्चे हिन्दू धर्मानुयायियों को भी अपने आचरण में उन्हीं सिद्धान्तों का समावेश करना होता है। “पवित्र बुद्धि” दोनों का समान लक्ष्य है। पवित्र बुद्धि अर्थात् ऐसी आदर्शवादी प्रेरणा जो व्यवहार में उतरे बिना चैन न ले। बुद्धि की पवित्रता से ही गौतम भगवान कहलाये और उसी को अपनाने वाले “स्थिति प्रज्ञ” आत्मवादी योगी कहलाते हैं।
थियोसोफिकल सोसाइटी ने इसी को ब्रह्मविद्या या ब्रह्मदर्शन कहा है।
एन॰ श्रीराम ने अपने ग्रन्थ ‘लाइफ व डीपर’ आस्पेक्ट में बताया है कि गीता का ब्रह्म ज्ञान जब कथन श्रवण तक सीमित न रहकर चिंतन और चरित्र बनकर प्रकट होने लगे। साथ ही अपनी मान्यता पर अटूट आस्था भी रहे तो समझना चाहिए कि गीता की प्रेरणाऐं जीवन में सम्मिलित हो गईं और ब्रह्म-विद्या के क्षेत्र में गहरा प्रवेश हो गया।
तत्वज्ञान का अर्थ है− भगवान के सम्बन्ध में अपनी मान्यता का स्पष्ट होना और प्राणी मात्र में उसकी ज्योति का दर्शन होना। तब भौतिक उपलब्धियों पर प्रसन्नता या अप्रसन्नता निर्भर नहीं रहती। सीमित साधनों से भी काम चल जाता है और जो न्याय तथा परिश्रम का कमाया है उतने में ही परिपूर्ण सन्तोष रहा है। उच्च जीवन के लिए सादा जीवन अपनाना पड़ता है, जब यह सिद्धान्त कार्यान्वित होने लगे तो समझना चाहिए कि अध्यात्म तत्वज्ञान जीवनचर्या के साथ एकीभूत हो गया।
भौतिक विज्ञानी एडविन सोडिगर ने अपनी पुस्तक “ह्वाट इज लाइफ” में लिखा है− धर्म धारणा का अर्थ है ईश्वर की व्यापकता, न्याय परायणता को अंगीकार करना, साथ ही अपने चिन्तन और चरित्र को क्रमशः अधिकाधिक निखारते जाना। सब की सत्ता को अपने में और अपने व्यक्तित्व को सब में संव्याप्त देखना। इस मनोभूमि को अपनाने वाला संकीर्ण स्वार्थपरता में सीमाबद्ध नहीं रह सकता। उसे व्यापक विश्व में अपनी आत्मीयता को विकसित करना होता है।
सर राधाकृष्णन ने अपने एक लेख “फिलॉसफी आफ उपनिषद्” में तत्व दर्शन की दिशाधारा को और भी अधिक स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं− बौद्धिक तर्क क्षमता ऐसी है जिसके सहारे हम अनैतिक और अवास्तविक बातों को भी प्रामाणिक जैसे ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। तर्कों के आधार पर असत्य को भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है। जिस प्रकार मोटा पहलवान साधारण स्वास्थ्य वाले को दबोच लेता है उसी प्रकार मस्तिष्कीय बलिष्ठता के सहारे अनुपयुक्त को भी उपयुक्त सिद्ध किया जा सकता है। इसलिए बुद्धि को तत्वज्ञान में मान्यता नहीं दी गई है। इस क्षेत्र में अनुभूति और संवेदना ही प्रामाणिक मानी जाती है और यह दोनों उस अन्तःकरण में उत्पन्न होती हैं जिसे संयम और साधना द्वारा परिष्कृत किया गया हो, आत्मा की वाणी इसी को कहते हैं। यह देश और धर्म की सीमाओं को उल्लंघन करके सर्वत्र एक जैसी ही उद्भासित होती है। इसमें बुद्धि की अवज्ञा नहीं की जा रही है वरन् यह कहा जा रहा है कि उसे श्रद्धा और सदाशयता का पुट लगा−लगाकर पवित्रता बनाया जाय।
अंतर्दृष्टि या विवेकशील प्रज्ञा ही हमें हमारे वास्तविक स्वरूप को बताती है और उन कर्त्तव्यों का बोध कराती है जिनमें कोई सम्प्रदाय या दर्शन अवरोध उत्पन्न नहीं करता। आत्मा एक है। वही सर्वत्र बिखरा पड़ा है। उसमें सर्वत्र एक जैसी भाव सम्वेदना है। आत्मीयता और करुणा के आधार पर ही वह कोई निर्णय करती है तो उसमें पक्षपात या अनुपयुक्तता जैसी कहीं कोई गुंजाइश नहीं रहती है। सत्य और धर्म दोनों एक ही हैं इसलिए उनमें मतभेद की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है।
“लाइफस् डीपर आस्पेक्टस्” के लेखक ने गीता को किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रन्थ नहीं माना और कहा है कि तत्त्वदर्शन का जैसा स्पष्ट विवेचन इस पुस्तक में है वैसा अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। स्थिति प्रज्ञ को इसीलिए योगी माना गया है कि उसकी प्रज्ञा समस्त पक्षपातों, रुझानों और प्रचलनों से ऊँची उठी हुई होती है जो सत्य है जो सबके लिए हितकर और श्रेयस्कर है, उसी को वह स्वीकार करती है। इसे स्वीकार करने में कर्म भी सम्मिलित है। प्रज्ञा किसी तथ्य को स्वीकार करने के उपरान्त चुप नहीं बैठती वरन् अन्तःकरण की वाणी को कार्यान्वित किये बिना चैन से नहीं बैठने देती।
“मैं और तू” का भेद मिटते जाना ही ईश्वर दर्शन की प्रत्यक्ष अनुभूति है। वह भक्त और भगवान के बीच कोई अन्तर नहीं पहुँचने देती। इतना ही नहीं उसके कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच भी ऐसी कोई खाई नहीं रहती जिसकी आड़ में विद्वेष जमा रह सके और सेवा भावना से हाथ सिकोड़ना पड़े।
“आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रिलीजियस एक्सपीरियन्स रिसर्च यूनिट लम्बे समय तक सार्वभौम, धर्म एवं दर्शन की सम्भावनाओं पर लम्बे समय तक विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया है। उस विचार मंथन का यह निष्कर्ष निकला है कि धर्म आदि में एक था, अन्त में उसके साथ जो भ्रम जंजाल जुड़ गया है वह साफ होते ही एकता का माहौल बनेगा। यूनिट द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ “दि स्प्रिचुअल नेचर आफ मैन” में उपलब्ध अगणित तथ्य ऐसे प्रस्तुत किये हैं जिनसे विदित होता है मनुष्य आरम्भ में भी सभ्य स्वभाव का था। उसने क्रमशः प्रगति की है और उसकी सभ्यता धीरे−धीरे निखरती ही आई है। वह निखार ऐसा है जिससे धार्मिक मतभेद घटते हैं, बढ़ते नहीं।
तत्त्वज्ञानी का हृदय बालकों जैसा निश्छल होना चाहिए। धार्मिक की उदारता ऐसी मधुर होनी चाहिए जो दूसरों का हृदय जीत सके। ज्ञानी की तपश्चर्या इसमें है कि स्वयं कष्ट उठाकर भी सच्चाई का ही पक्ष ले। अनीति से लड़ने में लगने वाली चोटों की परवाह न करे और चिकित्सक की तरह विकृतियों से जूझते हुए सर्वतोमुखी स्थापना के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे।