सत्य को विवेक की कसौटी पर कसा जाय।

March 1985

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भगवान का सर्वश्रेष्ठ और सार्थक नाम हैं− ‘सत्य नारायण’ इसका अर्थ होता हैं− सत्य ही नारायण है। इस सम्बन्ध में यह भ्रान्ति चली आती है कि नारायण ही सत्य है। पहले गान्धी जी भी ईश्वर ही सत्य है। ऐसा कहते रहे हैं। बाद में गम्भीर विचारणा के उपरान्त उन्होंने ‘सत्य की ईश्वर है।’ यह कहना आरम्भ किया था। सत्य के पीछे मात्र श्रद्धा नहीं यथार्थता भी है और उसे उलट−पुलट कर जाँचा जा सकता है। प्रामाणिकता इसी आधार पर बनती है। जो प्रामाणिक हैं उसी को श्रद्धास्पद मानने की अन्तर से मान्यता उभरती है।

नारायण के अनेक नाम रूप हैं। इतना ही नहीं उनके स्वभाव, प्रयास और निर्देशन में भी असाधारण अन्तर हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों ने ईश्वर की जो व्याख्या विवेचना की है, उनके निर्देशों की जो व्याख्या की है वह ऐसी है जो एक−दूसरे के कथन से बहुत अंशों में संगति नहीं खाती। एक धर्म का ईश्वर पूर्ण अहिंसावादी है यहाँ तक कि पानी में रहने वाले− साँस के साथ वायु में उड़ने वाले और धूलि कणों में रहने वाले अदृश्य जीव−जन्तुओं तक पर दया करने और उनकी हिंसा न होने देने का निर्देश करता है। दूसरे सम्प्रदाय का ईश्वर इससे भिन्न प्रकृति का है, उसे प्रसन्न करने के लिए पशुबलि आवश्यक है किन्तु ईश्वर अपने−अपने पर्वों पर इसी बलि के निमित्त निरीह प्राणियों की रक्त धार बहाने में प्रसन्न होते माने जाते हैं। एक सम्प्रदाय का ईश्वर सभी प्राणियों में अपनी आत्मा देखने का निर्देशन करता है। दूसरे सम्प्रदाय वाला इसमें निर्धारित मान्यताओं से इन्कार करने पर काफिर नास्तिक कहलाता है और प्राणदण्ड तक का अधिकारी बन जाता है। दोनों में से कौन सच्चा रहा कौन झूठा। इनमें से किसी की बात मानी जाय? किसकी न मानी जाय? यह बड़ा असमंजस है। वनवासी कबीले ईश्वर को अपना पक्ष घर बनाने के लिए प्रति पक्षी कबीले वालों को जितनी अधिक संख्या में−जितनी निर्दयता से बलि कर सकते हैं उतनी ही अपनी भक्ति भावना को सार्थक हुई मानते हैं। कई सम्प्रदायों का ईश्वर ध्यान, धारणा के सहारे वशवर्ती होता है। कई ईश्वरों के लिए महंगे धार्मिक कर्मकाण्डों का विधान है। अश्वमेध जैसे कृत्य सुसम्पन्न राज−दरबारी ही कर सकते हैं। अन्य पन्थ वाले राम नाम लेने भर से भक्ति का समग्र उद्देश्य पूरा हुआ मान लेते हैं। किसी−किसी के अनुसार ध्रुव, भागीरथ या पार्वती जैसी काय कष्ट वाली साधनाएँ लम्बे समय तक करनी पड़ती हैं। यह सभी बातें ऐसी हैं जिन्हें एक−दूसरे को सामने रखकर समीक्षा की जाय तो भारी भ्रम उत्पन्न होता है कि इन ईश्वरों में से किसका कथन निर्देशन सही माना जाय किसका गलत। जब सभी धर्म एक ईश्वर की मान्यता करते हैं तो उनके इलहामों, मंतव्यों और स्वरूप में इतना अन्तर क्यों होना चाहिए। इस विभिन्नता और विचित्रता के रहते किसे मान्य ठहराया जाय किसे अमान्य। किसे अपनाया जाय और किसे गलत कहा जाय। सूर्य एक है तो उसकी आकृति और प्रकृति भी संसार भर में एक जैसी मान्यता प्राप्त किये हुए है। फिर ईश्वर के सम्बन्ध में वैसी एक मान्यता हजारों लाखों भक्ति भाव चलते रहने पर भी क्यों न बन सकी।

सत्य के महत्व, माहात्म्य के सम्बन्ध में उसकी महिमा असीम बताई गई है। “साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप” वाली उक्ति में सत्य को सर्वोपरि महत्व का पुण्य बताया गया है। यह बात इसलिए गले उतरती है कि उसके आधार पर हम यथार्थता के अधिकतम समीप पहुँचते हैं। सत्य में मतभेदों की गुंजाइश नहीं है। विज्ञान इसी आधार पर सर्वमान्य बना है कि उसकी क्रिया और परिणति में कहीं कोई अन्तर नहीं पाया जाता और उसे बिना किसी अड़चन के सभी लोग मान्य करते और प्रयोग में लाते हैं।

गान्धी जी ने अपनी आत्मकथा को ‘सत्य नुं प्रयोग’ नाम दिया है। वे आजीवन सत्य का प्रयोग परीक्षण करते रहे हैं। और उन्हीं अनुभूतियों को जीवन गाथा के रूप में लिखा है। सत्य ही नारायण है इस मान्यता के अनुरूप सत्य नारायण व्रत या माहात्म्य का प्रचलन हुआ है।

अब यहाँ भी प्रश्न उठता है कि एक समय के सत्य का दूसरे समय के सत्य में अन्तर पड़ जाता है। परिस्थिति भेद से भी उसमें उलट−पुलट होती रहती है। ऐसी दशा में कैसे जाना जाय कि सत्य का यथार्थ स्वरूप क्या है? किसी समय पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती ध्रुव माना जाता था और कहा जाता था कि सूर्य आदि सब ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं पृथ्वी स्थिर है। यह मान्यता अधिक समय स्थिर न रही। विज्ञान की अगली खोजों ने पुरानी मान्यता को झुठला दिया और कहा सूर्य के इर्द−गिर्द सौर-मण्डल के ग्रह−उपग्रह चक्कर काटते हैं। इतना ही नहीं, यह भी कहा गया है कि अपनी निहारिका में ऐसे करोड़ों सूर्य और उनके सौर मण्डल हैं। अपना सूर्य किसी बड़े महासूर्य की परिक्रमा में अपने परिकर समेत घूमता है। पुराने समय का वही सत्य था और आज का यही सत्य है। सम्भव है अगले दिनों इन मान्यताओं में और कोई परिवर्तन करना पड़े। ऐसी दशा में ईश्वर की भाँति सत्य की स्थिति भी अनिश्चित हो जाती है। तब हम भ्रम मुक्त सत्य तक कैसे पहुँचे?

यहाँ एक कसौटी की आवश्यकता पड़ती है। वह है विवेक। इसके सहारे हम क्रमशः एक−एक सीढ़ी पार करते हुए सत्य के अधिकतम निकट पहुँचने का प्रयास जारी रख सकते हैं। बुद्धि और विवेक का यहाँ अन्तर समझने की आवश्यकता है। बुद्धि अपनी मान्यता या रुचि का समर्थन करने के लिए उलझन में ही फँसे रह जाते हैं। दोनों पक्ष के वकील अपने−अपने यजमान को सफल बनाने के लिए तर्कों का ढेर लगा देते हैं। कानून की धाराओं का ऐसा अर्थ करते हैं। जिससे प्रतीत होता कि उनका कथन ही सच है। परस्पर विरोधी दावों के दोनों पक्ष सही हों यह हो नहीं हो सकता फिर भी वकील उसके लिए एड़ी-चोटी का बल लगाते हैं और झूठ को सच साबित करने की कोशिश करते हैं। न्यायाधीश को विवेक कह सकते हैं। वह पक्ष और विपक्ष दोनों की बात तो सुनता है पर बुद्धि द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों से प्रभावित नहीं होता। अपनी स्वतन्त्र चेतना से न्याय एवं औचित्य के सहारे वस्तुस्थिति को समझने का प्रयत्न करता है और तद्नुसार ही निर्णय कर रहा है। सत्य में इतना दम खम होना चाहिए कि वह तर्कों को मान्य−अमान्य कर सके।

विभिन्न धर्म सम्प्रदाय अपनी−अपनी मान्यताओं को सही सिद्ध करने के लिए तर्कों के ढेर लगा देते हैं। सभी पक्षों के तर्क आकर्षक लगते हैं। इतने पर भी एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। ऐसी दशा में तार्किक और बुद्धिवादी मान्य नहीं हो सकते। औचित्य एवं न्याय का पक्षधर विवेक ही तत्कालीन सत्य ठहरता है। किन्तु इसमें भी गुंजाइश रहती है कि पूर्ण निर्णय में खामी रही है और उसका सुधार परिमार्जन किया जाय। छोटे कोर्ट के फैसलों को हाई कोर्ट के सामने−हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट के सामने इसीलिए प्रस्तुत किया जाता है और खामी रही हो तो उसे ठीक कराया जाता है।

ईश्वर की तरह सत्य सम्बन्धी मान्यताओं को भी परिवर्तनशील माना जाता है और इसीलिए विवेक की सार्वजनिक हित की−औचित्य की कसौटी पर कसा जाता है। गान्धी जी ने अपनी जीवनचर्या सत्य के प्रयोग में नियोजित रखी और जब उन्हें प्रतीत हुआ कि पहले की अपेक्षा अधिक सही मार्ग पा रहे हैं तो उन्होंने पूर्वाग्रह को तिलाञ्जलि देकर अन्तरात्मा की आवाज को स्वीकारा। भले ही इसके लिए अस्थिर मति होने का दोष सहना पड़ा हो।

सत्य की मोटी परिभाषा जो बात जैसी सुनी या समझी हो उसे उसी रूप में कह देना मानी जाती है पर यह आवश्यक नहीं कि जानकारी को यथावत् ही कह दिया जाय। दार्शनिक हेगल के अनुसार कथन में यथावत् प्रयुक्त होने वाला एक प्रतिशत ही औचित्य की कसौटी पर खरा उतरता है। ढेरों प्रसंग ऐसे होते हैं जिनमें जानकार होते हुए भी अनजान बनना सत्य के अधिक निकट होता है? चोर के पूछने पर कोई अपनी सम्पदा का विवरण क्यों बताये? युद्ध संचालक सेनापति अपनी गठी योजना क्यों प्रकट करे? गुप्तचर जिस काम के लिए नियुक्त हैं उसका ब्यौरा क्यों प्रकट करे? किसी के चरित्र पर लाँछन लगाने और उसका भविष्य बिगाड़ने को भला सत्य वचन बोलते फिरने की क्या और आवश्यकता समझी जाय?

सत्य का यथा अवसर बोलने में भी प्रयोग किया जाय तो हर्ज नहीं, पर इससे पूर्व विवेक की कसौटी पर यह परखा जाना चाहिए कि इस कथन का भावी परिणाम क्या होगा? जिसमें सुधार होने की गुंजाइश है, जिससे लोक हित सधता है, उसे प्राथमिकता देनी चाहिए और सत्य वचन उतना ही बोलना चाहिए जिसमें किसी अनर्थ की आशंका न हो।

समग्र सत्य बहुत बड़ा है। मनुष्य की समझ सीमित है। सीढ़ी पर एक−एक पैर रखते हुए चढ़ा जाता है। यथार्थता की खोज के लिए हमें अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए। प्राचीन काल में कोई प्रथा प्रचलन ऐसे रहे होंगे जो उस समय सही माने गये होंगे, किन्तु आज का विवेक उसे स्वीकार नहीं करता तो पूर्व पुरुषों के कथन अथवा कृत्य को ध्यान में रखते हुए उसी परिपाटी को अपनाने की आवश्यकता नहीं है। मध्यकाल में कितनी ही प्रथाएँ उस समय के चिन्तन के अनुसार सही समझी जाती रही हैं, पर आज उनकी कोई उपयोगिता नहीं समझी जाती तो पुस्तकों के उल्लेख, किसी बड़े आदमी के अनुकरण या विद्वान के कथन को प्रमाण मानकर उन पुरातन व्यवहारों का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं समझी जानी चाहिए। विवेक, औचित्य न्याय को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि मान्यता या निर्णय की प्रतिक्रिया स्वयं उनके ऊपर बीतने पर क्या होगी? यह विवेक और औचित्य का सारथी रखकर ही निर्णय किया जा सकता है।


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